या चेतन की सब सुधि गई, व्यापत मोह विकलता गई |
है जड़ रूप अपावन देह, तासौं राखै परम सनेह || टेक ||
आइ मिले जन स्वारथ बंध, तिनहि कुटुम्ब कहै जा बंध |
आप अकेला जनमै मरै, सकल लोक की ममता धरै || १ ||
होत विभूति दान के दिये, यह परपंच विचारै हिये |
भरमत फिरै न पावइ ठौर, ठानै मूढ और की और || २ ||
बंध हेत को करै जु खेद, जानै नहीं मोक्ष को भेद |
मिटै सहज संसार निवास, तब सुख लहै ‘बनारसीदास’ || ३ ||
Artist - पं. श्री बनारसीदासजी