वो जिनवाणी की मीठी लोरियाँ मुझको सुहाती हैं।
अनादि से जो सोयी मेरी श्रद्धा को जगाती हैं ।। टेक ।।
(श्रुत परंपरा)
खिरी जब वीर वाणी जा हृदय गणधर समायी,
ज्ञान गंगा ज्ञानियों से काल पंचम तक है आई।
धन्य मुनिवर अहो! जिनसूत्र को हाथों रचाया,
कि जिनवर के विरह में भी धर्मध्वज को फहराया।
व्यथा की रात में जब देव गुरु की याद आती है।
वो जिनवाणी की मीठी लोरियाँ मुझको सुहाती हैं ।।1।।
(चार अनुयोग)
(प्रथमानुयोग)
कभी तीर्थंकरों के चरित की गाथा सुनातीं,
(चरणानुयोग)
कभी उँगली पकड़ संयम की राहों पर चलातीं।
(करणानुयोग)
कभी जब कर्म का साया मेरे मन को डराता,
(द्रव्यानुयोग)
मैं हूँ निष्कर्म शुद्धातम, देह से भिन्न बतातीं।
मेरे अन्दर छिपे भगवंत के जो गीत गातीं हैं।
वो जिनवाणी की मीठी लोरियाँ मुझको सुहाती हैं ।। 2 ।।
क्या कहूँ, क्या लिखूँ, माँ! है अनंत उपकार तेरा,
तेरी आराधना से घट रहा संसार मेरा।
जगत् जननी कर्म हननी मात तुम ही सहारा,
प्रेम से और समता से भरा आँचल ये तेरा।
अचानक जब कषायें वेदना मुझको सतातीं हैं।
वो जिनवाणी की मीठी लोरियाँ मुझको सुहातीं हैं ।।3 ।।
“लेखक- समकित जैन, दिव्यांश जैन” “गायन एवं संगीत- दिव्यांश जैन” (यह भजन पूर्ण रूप से मौलिक धुन पर रचा गया है)