वीतरागी प्रभु तेरी अद्भुत छवि,
नाशाद्रष्टि धरी तो धरी रह गई ।
देखे दुनिया को क्या वो तो अंतर में हैं।
लब्धि नव केवल की प्रकट हो गई ।। टेक।।
सारी निधियां तजी निज की दृष्टि धरी।
आत्मदृष्टि जो ध्यायी जमी रह गई।।
आत्मदृष्टि का फल घाती चारों नशे,
सारी पाप प्रकृतियां वो क्षय हो गई ।।1।।
इंद्र सारे वहां कीन्हीं रचना महा।
कोठी बारह बनाई वो स्वर्णमई ।।
उनमें बैठे पशु नारी-नर देव है,
खिरती दिव्यध्वनि ओमकारमई ।।2।।
कैसा अद्भुत है प्रभु का ये समवशरण।
सारी जग की सुविधा यही पे धरी ।।
आए मानी भी तो देखे मानस्तंभ,
मानता वो टरी की टरी रह गई ।।3।।
नायक अम्बर