वीर जिनेश्वर, अब तो मुझको मुक्ति महल जाना है - २
भव-भव में, भटक रहा विषयों में अटक रहा - २
तुम तो तिरे हो, मुझको भी वर दो, मुक्ति महल जाना है ।।टेक।।
हमने मुश्किल से पाया है मानव जनम्।
देव तरसे जिसे ऐसा पाया रतन।
हमने जाना नहिं, पहिचाना नहिं।
अपने आतम स्वरूप को ध्याया नहीं।
होता भोगों में सुख थी मेरी भ्रमणा॥ वीर… ।।1।।
अब मिला जिनधरम, और जिनवर शरण।
गुरु मिलें हैं दिगम्बर, और अमृत वचन॥
अब जो जाना नहीं पहिचाना नहीं।
गुरुवयों के वचन, है कल्याण मयी ॥
जाने बिन थे सहे, अब तक जन्म-मरण । वीर… ।।2।।
अब मैं त्यागू भरम, और पाऊँ शरम।
जग भर दुःख से भरा, दु:खमय बँधते करम् ॥
अब जो जाना सही, और माना वही।
जग में होता जो सुख, क्यूँ जिन जाते कहीं?
अब मैं भी चला, सिद्धों के अँगना । वीर… ।।3।।