वैराग्य पच्चीसिका | Vairagya Pacchisika

रागादिक दूषण तजे, वैरागी जिनदेव।
मन वच शीश नवाय के, कीजै तिनकी सेव।। 1 ।।
जगत मूल यह राग है, मुक्ति मूल वैराग।
मूल दुहुन को यह कह्यो, जाग सके तो जाग ।। 2 ।।
क्रोध, मान, माया धरत, लोभ सहित परिणाम।
ये ही तेरे शत्रु हैं , समझो आतम राम ।। 3 ।।
इनहीं चारों शत्रु को, जो जीते जग माँहि।
सो पावहिं पथ मोक्ष को, यामें धोखा नाँहि ।।4।।
जा लक्ष्मी के काज तू,. खोवत है निज धर्म।।
सो लक्ष्मी संग ना चले, काहे भूलत भर्म ।। 5 ।।
जा कुटुम्ब के हेत तू, करत अनेक उपाय।
सो कुटुम्ब अग्नि लगा, तोकों देत जराय।।6।।
पोषत है जा देह को, जोग त्रिविध के लाय।
सो तोकों छिन एक में, दगा देय खिर जाय ।।7।।
लक्ष्मी साथ न अनुसरे , देह चले नहिं संग।
काढ़-काढ़ सुजनहिं करें, देख जगत के रंग।।8।।
दुर्लभ दस दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय।
विषय सुखन के कारणे, सर्वस चले गमाय ।।9।।
जगहिं फिरत कई युग भये, सो कछु कियो विचार।
चेतन अब तो चेतह, नरभव लहि अतिसार ।।10।।
ऐसे मति विभ्रम भई, विषयनि लागत धाय।
कै दिन, कै छिन, कै घरी, यह सुख थिर ठहराय।।11।।
पी तो सुधा स्वभाव की, जी तो कहूँ सुनाय।
तू रीतो क्यों जातु है, बीतो नरभव जाय ।। 12 ।।
मिथ्यादृष्टि निकृष्ट अति, लखे न इष्ट-अनिष्ट ।
भ्रष्ट करत है शिष्ट को, शुद्ध दृष्टि दे पिष्ट ।। 13 ।।
चेतन कर्म उपाधि तज, राग-द्वेष को संग।
ज्यों प्रगटे परमात्मा, शिव सुख होय अभंग ।।14।।
ब्रह्म कहूँ तो मैं नहीं, क्षत्री हूँ पुनि नाहिं।
वैश्य शूद्र दोऊ नहीं, चिदानन्द हूँ माहिं ।। 15 ।।
जो दीखे इन नैन सों, सो सब विनस्यो जाय।
तासों जो अपनो कहे, सो मूरख शिर राय ।। 16 ।।
पुद्गल को जो रूप है, उपजै विनसे सोय।
जो अविनाशी आतमा, सो कछु और न होय।।17।।
देख अवस्था गर्भ की, कौन-कौन दुख होय।
बहुरि मगन संसार में, सो लानत है तोय ।। 18 ।।
अधोशीश ऊरध चरण, कौन अशुचि आहार।
थोड़े दिन की बात यह, भूल जात संसार ।। 19 ।।
अस्थि चर्म, मलमूत्र में, रैन दिना को बास ।
देखे दृष्टि घिनावनो, तऊ न होय उदास ।। 20 ।।
रोगादिक पीड़ित रहे, महा कष्ट जब होय।
तबहूँ मूरख जीव यह, धर्म न चिन्ते कोय ।। 21 ।।
मरन समय बिललात है, कोऊ लेहु बचाय।
जाने ज्यों त्यों जो जीये, जोर न कछु बसाय ।। 22 ।।
फिर नरभव मिलबो नहीं, कियेह कोटि उपाय।
तातें बेगहि चेतह, अहो जगत के राय ।।23 ।।
‘भैया’ की यह वीनती, चेतन चितहिं विचार।
ज्ञान दर्श चारित्र में, आपो लेहु निहार ।।24।।
एक सात पंचास को, संवत्सर सुखकार ।
पक्ष सकल तिथिधर्म की, जैजै निशिपतिवार ।।25।।

रचयिता: भैया भगवतीदास जी

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