वैराग्य चौबीसी | Vairagya chaubisi

वैराग्य चौबीसी

रागादिक दूषण तजे, वैरागी जिनदेव ।
मन वच शीश नवाय के, कीजे तिनको सेव ।।१।।

जगत मूल यह राग है मुक्ति मूल वैराग ।
मूल दुहुन को यह कह्यो, जाग सके तो जाग ।।२।।

क्रोध, मान, माया धरत, लोभ सहित परिणाम ।
ये ही तेरे शत्रु हैं, समझो आतमराम ।।३।।

इनही चारों शत्रु को, जो जीते जग माहिं ।
सो पावहिं पथ मोक्ष को, यामें धोखो नाहि ।।४।।

जा लक्ष्मी के काज तू, खोवत है निज धर्म ।
सो लक्ष्मी संग ना चले काहे मूलत भर्म ।।५।।

जो कुटुम्ब के हेत तू करत अनेक उपाय ।
सो कुटुम्ब अग्नि लगा, तोकों देत जराय ।।६।।

पोषत है जा देह को जोग त्रिविध के लाय ।
सो तोकों छिन एक में, दगा देय खिर जाय ।।७।।

लक्ष्मी साथ न अनुसरे, देह चले नहि संग ।
काढ़-काढ़ सुजनहिं करें, देख जगत के रंग ।।८।।

दुर्लभ दश दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय ।
विषय सुखन के कारणें, सर्वस चले गमाय ।।९।।

जगहिं फिरत कई युग भये, यह कछु कियो विचार ।
चेतन अब किन चेतहू नरभव लहि अतिसार ।।१०।।

ऐसे मति विभ्रम भई विषयनि लागत बाय ।
कै दिन कै छिन कै घरी, यह सुख थिर ठहराय ।।११।।

पोतो सुधा स्वभाव की, जी तो कहूँ सुनाय ।
तू रीतो क्यों जातु है बीतो नरभव जाय ।।१२।।

मिथ्यादष्टि निकृष्ट अति, लखे न इष्ट अनिष्ट ।
भ्रष्ट करत है शिष्य को, शुद्ध दृष्टि दे पिष्ट ।।१३।।

चेतन कर्म उपाधि तज, राग द्वेष को संग ।
ज्यों प्रगटे परमात्मा, शिव सुख होय अभंग ।।१४।।

ब्रह्म कहूँ तो मैं नहीं क्षत्री हूँ पुनि नाहिं ।
वैश्व शूद्र दोऊ नहीं चिदानन्द हूँ मांहि ।।१५।।

जो दीखे इन नैन सों, सो सब विनस्यो जाय ।
तासों जो अपनो कहे, सो मूरख शिर राय ।।१६।।

पुद्गल को जो रूप है, उपजे विनसे सोय ।
जो अविनाशी आतमा, सो कुछ और न होय ।।१७।।

देख अवस्था गर्भ की, कौन कौन दुख होय ।
बहुरि मगन संसार में, सो लानत है तोय ।।१८।।

अधोशीश ऊरध चरण, कौन अशुचि आहार ।
थोड़े दिन की बात यह, भूल जात संसार ।।१९।।

अस्थि चर्म मलमूत्र में, रैन दिना को बास ।
देखें दृष्टि घिनावनो, तऊ न होय उदास ।।२०।।

रोगादिक पीड़ित रहे, महा कष्ट जब होय ।
तबहूँ सूरख जीव यह, धर्म न चिन्ते कोय ।।२१।।

मरन समय बिललात है कोऊ लेहु बचाय ।
जाने ज्यों त्यों जो जिये, जोर न कछु बसाय ।।२२।।

फिर नरभव मिलवो नहीं कियेहु कोटि उपाय ।
तातो बेगहिं चेतहू अहो जगत के राय ।।२३।।

‘भैया’ की यह बिनती चेतन चिंतहि विचार ।
ज्ञानदर्श चारित्र में, आपो लेहु निहार ।।२४।।

रचयिता:- भैय्या भगवती दास जी