तुम्हारी मूरत पर हमने देखा, गज़ब की समता झलक रही है।
तुम्हारे अंतर की रश्मियों से, अनंत सृष्टि झलक रही है ।।टेक।।
हज़ारों भानुओं की प्रभा भी, शर्म से मस्तक झुका रही है।
तुम्हें विलोकनि को इंद्र तरसे, नव निधियाँ छटपटा रही हैं ।।1।।
अनंत गरिमा है उनकी हमको, नहीं मिले जग में कोई ऐसा।
पुण्य पाप का न होवे कीचड़, दिव्य ध्वनि अब बरस रही है ।।2।।
लाख चौरासी में आना जाना, नहीं मिली एक समय की फुरसत।
अजर अमर पद पाएँगे हम सब, गजब दामिनी दमक रही है ।।3।।