त्रिभुवन के नाथ प्रभु झूल रहे पलना… २
अन्तर आनन्द में मुस्काय रहे ललना
आनन्द आनन्द छाय रहो रे…
मंगल सुअवसर आय गयो रे… २
निज चैतन्य महाहिमगिरि से, बहता अनुभव रस झरना।
निज अन्तर में केलि करते, अब न रहा कुछ भी करना ।।
चैतन्य रस का रसिया है ललना…
अनुभव के झूले में झूल रहे पलना… आनन्द आनन्द… ॥१॥
ज्ञान मात्र के अनुभव कर्ता, प्रतिक्षण ले ज्ञायक का स्वाद।
निज स्वभाव सीमा में बसते, तजकर पर संग वाद विवाद ॥
ज्ञायक की धुन नित ज्ञायक की भावना…
ज्ञायक स्वभाव ही लगता सुहावना… आनन्द आनन्द… ॥२॥
निजपद की महिमा जिनके घट, पर पद जिन्हें न भाते है।
कामदेव चक्री पद तज वह, मुक्तिरमा वर जाते हैं।
भव का अभाव हो एक यही भावना…
विषयों के सुख की रही न चाहना… आनन्द आनन्द… ॥३॥