अरे प्रभु ! तुझमें प्रभुता विद्यमान है । तू स्वयं ही प्रभु है। तेरे अंदर में परमात्मापना विद्यमान है

अरे प्रभु ! तुझमें प्रभुता विद्यमान है । तू स्वयं ही प्रभु है। तेरे अंदर में परमात्मापना विद्यमान है ।"

  1. अपने से, अपने में, अपने लिये प्रसन्न रहना ।

  2. मंदिर दूर लगता हो तो समझना नरक पास है ।

  3. हे प्रभु! मुझमें किसी के दोष देखने की शक्ति ही न रहे। स्वयं के दोष सुनने में साहसी रहूँ और अपने दोष निकालने में पुरुषार्थी रहूँ ।

  4. किसी से प्रभावित होना भी नहीं, किसी को प्रभावित करना भी नहीं ।

  5. पाने के लिये मचलना मत, पाने पर उछलना मत।

  6. स्वयं को एवं जगत को हीनता की दृष्टि से देखना ही सबसे बड़ा पाप है ।

  7. दृश्य को अदृश्य कर, अदृश्य को दृश्य कर।

  8. चंचल चित्त ये ही सर्व विषम दुःख का मूल है।

  9. जिंदगी अल्प है और जंजाल अधिक हैं इसलिये जंजाल छोड़ेगा तो सुखरूप जिंदगी लम्बी लगेगी।

  10. पापों से कष्ट एवं भोगों से रोग आते हैं।

संकलनकार : चिदानन्द जैन