अरे प्रभु ! तुझमें प्रभुता विद्यमान है । तू स्वयं ही प्रभु है। तेरे अंदर में परमात्मापना विद्यमान है ।"
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अपने से, अपने में, अपने लिये प्रसन्न रहना ।
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मंदिर दूर लगता हो तो समझना नरक पास है ।
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हे प्रभु! मुझमें किसी के दोष देखने की शक्ति ही न रहे। स्वयं के दोष सुनने में साहसी रहूँ और अपने दोष निकालने में पुरुषार्थी रहूँ ।
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किसी से प्रभावित होना भी नहीं, किसी को प्रभावित करना भी नहीं ।
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पाने के लिये मचलना मत, पाने पर उछलना मत।
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स्वयं को एवं जगत को हीनता की दृष्टि से देखना ही सबसे बड़ा पाप है ।
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दृश्य को अदृश्य कर, अदृश्य को दृश्य कर।
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चंचल चित्त ये ही सर्व विषम दुःख का मूल है।
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जिंदगी अल्प है और जंजाल अधिक हैं इसलिये जंजाल छोड़ेगा तो सुखरूप जिंदगी लम्बी लगेगी।
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पापों से कष्ट एवं भोगों से रोग आते हैं।
संकलनकार : चिदानन्द जैन