सत्गुरू बार-बार समझाये राग बंध की डोरी है

शुभ हो अथवा अशुभ कामना आकुलता की डोरी है
सत्गुरू बार-बार समझाये राग बंध की डोरी है…

हाथी नाज-घास दोनो को, एकमेक कर खाता है;
स्वाद कहां मीठे फीके का, सबको साथ चबाता है।
राग और चैतन्य एकसा, जिसको अनुभव आता है;
उसको कैसे मिले आतमा, वह संसार कमाता है।।
भेदज्ञान के बिना त्याग बेकार तपस्या कोरी है।
सत्गुरू बारबार समझाये राग बंध की डोरी है… ।।1।।

जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बित, होते हाथ पाव सारे;
किंतु एक भी अंश न अपना, दर्पण में घुसता प्यारे।
वैसे ही जो ज्ञेय ज्ञान में, झलक रहे मीठे-खारे;
अपनी अपनी जगह पडे है सबके सबके न्यारे-न्यारे।
है स्वतंत्र परिणमन, कौन का बिस्तर किसकी बोली है
सत्गुरू बारबार समझाये राग बंध की डोरी है…।।2।।

नाव रहे जल मे क्या खतरा, नही डूबने पायेगा;
किंतु नाव मे जल यदि आया, सबको साथ डूबायेगा।
जो जग मे निर्लिप्त उसे क्या, शंका कौन नचायेगा;
जिसके मन में बसा हुआ, संसार वही अपनायेगा।
पर का आलम्बन दुखदाई, क्या हिंसा क्या चोरी है
सुख हो अथवा अशुभ कामना आकुलता की डोरी है
सत्गुरू बारबार समझाये राग बंध की डोरी है…।।3।।

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