‘चतुर्थ गुणस्थान में आत्मानुभव होता है,’ कृपया इस कथन के आचार्यों द्वारा प्रदत्त आगम-प्रमाण प्रस्तुत करें।
I’ll try to check more information on it. Meanwhile, try checking a few previous Slokas of the following to see if there’s any mention of 4th gunasthan.
पंचाध्यायी में जो आया है वह इस प्रकार है :
- ज्ञान की विशेष अवस्था का नाम आत्मानुभूति है |
- आत्मानुभूति सम्यक्त्व का अनात्मभूत लक्षण है, आत्मभूत नहीं |
- आत्मानुभूति और सम्यक्त्व का अविनाभाव सम्बन्ध है इस अपेक्षा से उसे सम्यक्त्व का लक्षण कहा जा सकता है | पर वह श्रद्धा गुण की पर्याय नहीं है |
- आत्मानुभूति सब जीवों के है | मिथ्यादृष्टि को भी आत्मा का अनुभव कर्मचेतना कर्मफलचेतना रूप है | बिना आत्मानुभव के कोई जीव है ही नहीं | यदि वह अनुभूति ज्ञान चेतना रूप है अथार्त शुद्ध आत्मा की अनुभूति है तब वह सम्यक्त्व का अनात्मभूत लक्षण कही जा सकती है |
- शुद्धानुभूति दो प्रकार की होती है : लब्धिरूप और उपयोगरूप |
लब्धिरूप स्वानुभूति की सम्यक्त्व के साथ समव्याप्ति है जिसके आधार पर शुद्ध आत्मानुभूति सम्यक्त्व का लक्षण कहा जाता है | यह स्वानुभूति सम्यकदृष्टि को हर समय होती है | इसका विरह नहीं है |
जिस समय सम्यग्द्रष्टि सब पर कार्य छोड़ कर आत्मध्यान में लीन होता है, बुद्धिपूर्वक सब विकल्पों का अभाव होता है, मात्र उपयोग पूर्णतया स्व में रमता है तब इसको उपयोगरूप स्वानुभूति कहते हैं | यह चौथे गुणस्थान में बहुत देर-देर से होती है | पांचवे में उससे जल्दी-जल्दी होती है और छटवें में अंतर्मुहूर्त बाद नियम से होती है | सातवे से सिद्ध तक स्वानुभूति रूप ही है | इस उपयोगरूप स्वानुभूति का सम्यक्त्व के साथ विषमव्याप्ति है |
इस प्रकार आया है, मुझे अधिक जानकारी नहीं है, विद्वतजन इसका खुलासा करें | ये सब सारांश बिंदु हैं जिनका प्रमाण नीचे है -
रत्नकरंड श्रावकाचार पहला अधिकार गाथा ३३ - सम्यक्तव गृहस्थ को हो सकता है (chaturth, पंचम गुणस्थान)
समयसार, आत्मख्याति टीका, गाथा १४४ - समयक्तव और आत्मानुभव
The above reference might be helpful. The PDF of प्रवचनसार (along with तात्पर्यवृत्ति) can be found here (133mb).
Pandit Todarmal ji has also addressed this issue:
तथा द्रव्यानुयोगमें भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग कराने का प्रयोजन है; इसलिये छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा ही वहाँ कथन करते हैं। इतना विशेष है कि चरणानुयोग में तो बाह्यक्रिया की मुख्यता से वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोग में आत्मपरिणामों की मुख्यतासे निरूपण करते हैं; परन्तु करणानुयोगवत् सूक्ष्म वर्णन नहीं करते। उसके उदाहरण देते हैंः — उपयोग के शुभ, अशुभ, शुद्ध – ऐसे तीन भेद कहे हैं; वहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम वह शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग और राग-द्वेष रहित परिणाम वह शुद्धोपयोग – ऐसा कहा है; सो इस छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा यह कथन है; करणानुयोगमें कषायशक्ति की अपेक्षा गुणस्थानादि में संक्लेशविशुद्ध परिणामोंकी अपेक्षा निरूपण किया है वह विवक्षा यहाँ नहीं है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक, आठवाँ अधिकार, पृ. 285.
https://drive.google.com/file/d/1Rm2XdRmhRQecpRTCLtB-QvqJ5q7k9xKj/view?usp=drivesdk
इस पुस्तक इस विषय कई आधार बनाकर चर्चा की हुई है।एवम शुध्दोपयोग संबंधित अन्य भी चर्चा की हुई है।
इस लिंक में एक ही पो पेज है। कृपया पूरी pdf शेयर कीजिए।
अर्थात चतुर्थ गुणस्थान में आत्मानुभव नहीं है?
आत्मानुभव है, उसका कोई निषेध नहीं है। उपर्युक्त प्रमाण में आचार्य जयसेन का स्पष्ट कथन है - शुद्धोपयोग के बिना दर्शनमोह का क्षय संभव नहीं है।
उपर्युक्त प्रमाण में आचार्य जयसेन का स्पष्ट कथन है - शुद्धोपयोग के बिना दर्शनमोह का क्षय संभव नहीं है।