हरिगीतिका
वीर प्रभु ने दिव्यध्वनि में, मार्ग शिवपथ का कहा।
कलिकाल में निर्ग्रन्थ-पथ के. जो हुए रक्षक महा॥
सर्वज्ञता की सिद्धि से, इस काल के सर्वज्ञ जो।
मन-वचन-तन से वन्दना है, कुन्दकुन्दाचार्य को॥
साक्षात् जिनवर दर्श का, सौभाग्य पाया आपने।
दिव्यध्वनि के श्रवण का आनन्द पाया आपने॥
आकर भरत में रच दिए गुरु ग्रन्थ परमागम अहो।
भाग्य जागे भविजनों के, पा रहे शिव-पन्थ जो॥
तीर्थंकरों का विरह भी, बिसरा दिया गुरु आपने।
एकत्वमय शुद्धात्म का दर्शन कराया आपने॥
आचार्यवर विचरण करो, मम ज्ञान अरु श्रद्धान में।
अब खिल उठे गुरु पद-कमल, मम हृदय के उद्यान में॥
दोहा
गुरु वचनों में बह रही, चिदानन्द रस धार।
पूजूं भक्तिभाव से, स्वानुभूति सुखकार॥
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यगुरुवर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ-कुन्दकुन्दाचार्यगुरुवर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ हीं भी कलिकालसर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यगुरुवर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
जोगीरासा
गुरु परिणति सम निर्मल जल से, श्रीगुरु चरण पखारूँ ।
परमागम के ज्ञान-नीर से, जन्म-जरा निरवारूँ ॥
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ-कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय से सुरभित गुरु-पद-पंकज उर में धारूँ
परमागम की ज्ञान-गन्ध से भव आताप निवारूँ।।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ हीं थी कलिकालसर्वज्ञ- कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर के अक्षत वैभव पर उज्ज्चल अक्षत वारूँ ।
परमागम के अवगाहन से अक्षत आत्म निहारूँ।।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ-कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अक्षयपद प्राप्तये अक्षता निर्वामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य व्रत धारी गुरु को भक्ति सुमन से पूजूँ ।
परमागम के ज्ञान शील से काम-कलंक निवारूँ।।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ -कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय कामवाण विनाशनाय पुष्पं निर्वयामीति स्वाहा।
रत्नत्रय-साधक भोजन गुरु पाणिपात्र में अरपूँ ।
परमागम का ज्ञान सुधारस पीकर क्षुधा निवारूँ।।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ही श्री कलिकालसर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय सुधारोग-विनाशनाय वैषेधं निर्वस्वाहा।
केवल-तट वासी गुरु को श्रुतज्ञान दीप से पूजूँ ।
परमागम की ज्ञान ज्योति से ज्ञायकभाव प्रकाशूँ ।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ-कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
दश धर्मों की धूप सुरभि से सुरभित गुरु चित धारूँ।
परमागम की ज्ञान धूप से कर्म-कलंक निवारूँ ।।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ - कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
शिवफल साधक गुरु चरणों में भक्ति भाव फल वारूँ।
परमागम के ज्ञान वृक्ष पर स्वानुभूति फल पाऊँ।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ-कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
रत्नत्रय वैभवशाली गुरु भक्ति अर्घ्य से पूजूँ ।
परमागम का ज्ञान अर्ध्य दे पद अनर्घ्य प्रकटाऊँ।।
कुन्दकुन्द आचार्यदेव के चरण चित्त में धारूँ।
निर्ग्रन्थों के पथ पर चल, निर्ग्रन्थ स्वरूप निहारूँ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ- कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
विक्रम शक प्रारम्भ में, जन्मे मुनिवर कुन्द ।
वय एकादश में अहो! हुए गुरु निर्ग्रन्थ ।।
मरहठा माधवी
धन्य धन्य गुरु सन्त शिरोमणि, कुन्दकुन्द आचार्य हैं।
वीर जिनेश्वर गुरु गौतम के सच्चे वारिसदार हैं॥
सीमन्धर सन्देशा लाये, परमागम के पात्र में।
रत्नत्रय से भूषित गुरुवर, रत्नत्रय दातार हैं॥
नव तत्त्वों में व्याप्त चिदातम-ज्योति समय के सार में।
जिसे प्राप्त कर भव्य नहाते, चिदानन्द रसधार में ।।
चित् प्रकाश कैवल्य निरखते, भेदज्ञान के नैन मे।
रत्नत्रय से भूषित गुरुवर, रत्नत्रय दातार हैं।।
दिव्यध्वनि का सार भरा है, प्रवचनसार महान में
क्षायिकज्ञान अतीन्द्रियसुख भी, झलक रहा श्रुतज्ञान में।।
व्यय उत्पाद ध्रौव्यमय वस्तु-स्वरूप प्रकाशनहार हैं।
रत्नत्रय से भूषित गुरुवर, रत्नत्रय दातार हैं।
सप्त तत्त्व पंचास्तिकाय का, वर्णन करके ग्रन्थ में।
दर्श-ज्ञान-चारित्र नियम से, बतलाया शिवपन्थ में।
त्रैकालिक ध्रुवतत्त्व निहारो, कहे नियम का सार है।
रत्नत्रय से भूषित गुरुवर, रत्नत्रय दातार हैं।
शिथिलाचार दिखा गुरुवर को, निर्ग्रन्थों के पन्थ में।
तो मुनिमार्ग स्वरूप दिखाया, अष्टपाहुड सुग्रन्थ में।
सर्वारम्भ परिग्रह विरहित, मार्ग दिखावनहार हैं।
रत्नत्रय से भूषित गुरुवर, रत्नत्रय दातार हैं।
दोहा
सन्मति नन्दन हैं अहो, कुन्दकुन्द आचार्य।
चरणों में अर्पित करू, भक्तिभावमय अर्घ्य ।।
ॐ ह्रीं श्री कलिकालसर्वज्ञ-कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमालाऽयं निर्वपामीति स्वाहा।