श्रीमद आचार्य अमृतचन्द्र पूजन

श्रीमद आचार्य अमृतचन्द्र पूजन

श्री वर्धमान जिनेन्द्र, गुरु- गौतम युगल पद उर धरूँ।
पंच परमागम प्रदाता कुन्द वचनामृत पियूँ ॥
ग्रन्थ त्रय के मर्म उद्घाटक रची टीका अहो ।
आचार्य अमृतचन्द्र के पद -कमल की पूजा करूँ॥

साहित्य भाषा छन्द एवं काव्य रस का पान कर।
सिद्धान्त अरु अध्यात्म भक्ति-त्रिवेणी में स्नान कर ॥
न्याय शैली नींव पर अध्यात्म मन्दिर में यजूँ।
स्वानुभूति सुवर्ण शोभित कलश सुन्दर नित लखूँ॥

अनेकान्त ध्वज में दिये स्याद्वाद का रंग।
लहराया कलिकाल में गुरुवर ने सर्वांग॥
मम परिणति में नित बसें अमृतचन्द्राचार्य।
भाव सहित पूजा करूँ तय हों विषय-विकार ॥

ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत् गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्वानम्।
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः इति स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति सन्निधिकरणम्। (इति पुष्पांजलिं क्षिपामि / क्षिपेत्)

शुद्ध परिणति निर्मल झरना झरता चेतन चन्द्र में।
भक्ति-नीर मैं करूँ समर्पित परिणति हुई विनम्र है ||
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ।
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो जन्म - जरा मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।

चन्दन- सम शीतलता व्यापी अन्तर्मुख परिणाम में।
भव- आताप विनायूँ गुरु मैं विचरूँ शाश्वत धाम में ॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशतगुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।

परिणति हुई अखण्डित गुण की अक्षत नायक भाव में।
हे गुरु! मम श्रद्धान अखण्डित वर्ते ज्ञान स्वभाव में ||
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशतगुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ।

रत्नत्रय सौरभ से सुरभित सदा आपका द्रव्य है।
हे गुरु! शब्द-सुमन विकसाओ, कहो ‘वत्स तू भव्य है’ ॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित- आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यः कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।

ज्ञानानन्द सुधारस पीकर तृप्त रहें निज भाव में।
अब किंचित् रसपान करूँ गुरु ! भव का करूँ अभाव मैं॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशतगुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यः क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वानुभूति में करें प्रकाशित गुरुवर ज्ञायक भाव को।
कब निरखूँ मैं स्वसम्वेदी-श्रुत में ज्ञान स्वभाव को ॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशतगुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

निर्मल ज्ञान-पवन से गुरु का पर्यावरण विशुद्ध है।
गुरु वाणी से निज को निरखू शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध में॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र है।
समय व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्ध हैं॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशतगुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

तव चारित्र - विटप पर शिवफल फले शीघ्र यह कामना ।
भक्ति-भाव फल अर्पित गुरुवर प्रकटे निज आराधना ॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र हैं।
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

निर्मल परिणति में नित करते पद- अनर्घ्य आराधना।
भक्ति अर्घ्य अर्पित हे गुरुवर! करूँ सदा शिव-साधना ॥
आत्मख्याति अरु तत्त्वदीपिका दाता अमृतचन्द्र
समय-व्याख्या से शोभित गुरु त्रिभुवन में अभिवन्द्य हैं ॥
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

कुन्दकुन्द उर बैठकर टीका रची महान।
सुधा-सूरि गुरु का करूँ कैसे मैं गुणगान ।।

आचार्य अमृतचन्द्र की महिमा जगत विख्यात है।
कर रही रचना मुमुक्षु को चिदातम ख्याति है।।
भेद-गर्भित सर्व जिसमें पारिणामिक भाव की
दृष्टि करें आत्मार्थी जन अनुभूति हो आनन्द की।।
समय प्रवचनसार पंचास्ति रचे मुनि कुन्द ने।
इन ग्रन्थ त्रय का हार्द बतलाया जगत को आपने।
आत्मख्याति के कलश से स्वानुभव रस छलकता।
गम्भीर रचना गद्य में शुद्धात्म सागर उछलता।।
प्यासे परम आनन्द के जो भव्यजन उनके लिए।
प्रकटी सुतत्त्व प्रदीपिका जिन - दिव्यध्वनि के सार में ||
षट् द्रव्य और पदार्थ नव का, मुक्ति के सन्मार्ग का।
गुरु मर्म खोला आपने करके समय सु - विवेचना।।
पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय में श्रावक धरम वर्णन किया।
रागादि की उत्पत्ति को हिंसादि मूलक कह दिया ।।
गुरु उमास्वामी रचित जो तत्त्वार्थसूत्र प्रसिद्ध है।
तत्त्वार्थसार सुकाव्य रचना करे शिवपथ सिद्ध है।
लघु-तत्त्व का स्फोट करके किया अति उपकार है।
जिनभक्ति रस में दिव्यध्वनि का कह दिया सब सार है।।
उभयधर्मी वस्तु का वर्णन किया स्याद्वाद से।
आत्मार्थी जन सब धन्य होते स्वानुभव रस स्वाद से।।
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्गुणविभूषित-आचार्य अमृतचन्द्रगुरुवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पठन-मनन चिन्तन करूँ निग्रन्थों के ग्रन्थ |
स्वानुभूति में प्रकट हो पूजा-फल शिव पन्थ ।।

रचयिता- पंडित अभय जी शास्त्री

Youtube Link- श्रीमद आचार्य अमृतचंद्र पूजन : पं. अभयकुमार जी देवलाली

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