ज्ञान का विपरीतपना और हीनपना

ज्ञान का परिणमन हमेशा ही हीन कहते है। श्रद्धा और चारित्र का जैसे विपरीत परिणमन होता है वैसे ज्ञान का विपरीत परिणमन नहीं हीन परिणमन कहते है। ज्ञान का मिथ्यापना श्रद्धा की अपेक्षा ही कहा जाता है।

प्रश्न है कि ज्ञान में संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय पाए जाते है (बिना इन तीनो के ज्ञान सम्यक् हो जाता है)।

अब संशय और अनध्यवसाय ज्ञान का हीन पना कह सकते है। लेकिन ज्ञान की विपर्यय अवस्था हीन कैसे हुई? वह विपरीत ही नहीं कही जाएगी?

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@Kishan_Shah Ji, @Sayyam Ji, @panna Ji, @Sanyam_Shastri Ji, if one of you can answer this, it’ll be helpful.


मोक्ष मार्ग प्रकाशक - अधिकार 4, page - 85
page 85-88 मिथ्याज्ञान का स्वरूप - इस विषय में मिथ्याज्ञान से related काफ़ी विषय स्पष्ट किए गये हैं। ज्ञान का भी क्या दोष है यह भी बताया गया है। मूल में पूरा ही पठनीय है। कुछ अंश यहाँ संलग्न हैं।

page - 88

हीन शब्द से तात्पर्य यही होगा की पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा जानने में नही आना। इसमें भी कारण तो मोह ही है।

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धन्यवाद। ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत कठिन है। तो ज्ञान में मुख्यतः दो पहलू है: क्षयोपशम (ज्ञेय) और उन ज्ञेयों के प्रति स्पष्टता (निर्णय)। मिथ्यादृष्टि और समकिती के क्षयोपशम same हो सकता है लेकिन उसके प्रति स्पष्टता (निर्णय) अलग है – क्या यह कहना ठीक होगा?

ज्ञान में अनेक प्रकार के कार्य होते हैं। जानना और निर्णय करना भी ज्ञान का ही कार्य है।

ज्ञेय का ज्ञात होना है यह विपरीतता नहीं है क्योंकि जानना ज्ञान का स्वभाव है, इसलिए जानना होता ही है। जानना नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म से भिन्न होने से शुद्ध ही है।

अपूर्ण जानना होता है, इसलिए ज्ञान परिणमन को हीन कह सकते हैं।

ज्ञान का एक और कार्य निर्णय करना है । निर्णय की विपरीतता होने से विपर्यय ज्ञान कहते हैं, फिर भी मोह राग द्वेष से भिन्न होने से श्रद्धा चारित्र की भांति ज्ञान मलिन /विपरीत नहीं है।

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यहाँ पर एक और तर्क है कि ज्ञान हमेशा ही निर्मल (चाहे हीन/अल्प हो). मिथ्याज्ञान की पर्याय में ही आत्मा को पकड़ा जाता है। अगर ज्ञान उस समय निर्मल नहीं हुआ तो एक मलिन पर्याय से शुद्ध पर्याय को कैसे पकड़ेंगे?

जिसतरह ज्ञानी को चारित्रपर्याय में आंशिक शुद्धता और आंशिक अशुद्धता है, उस तरह ज्ञान की पर्याय में शुद्धाशुद्ध नही है। ज्ञान पर्याय अपने स्वाभाविक जानन कार्य की अपेक्षा से सदा पूर्णतः शुद्ध ही है। श्रद्धान आदि गुणों के कारण बनने की अपेक्षा से उसको अशुद्धता कही है।

और आपने लिखा कि

प्रथम तो जिस क्षण- जिस पर्याय ने आत्मा को पकड़ा/ ज्ञान का ज्ञेय, ध्यान का ध्येय बनाया उस क्षण तो वह आत्मा स्वयं सम्यक् पर्यायरूप परिणमा ही है। वह पर्याय मिथ्या नही।

और उसे प्राप्त करने का जो पूर्व भेदज्ञान का पुरुषार्थ चल रहा था वह कार्य भी ज्ञान ने ही किया है, मिथ्यात्व या रागादि ने नही किया। आत्मार्थी के विकल्पात्मक निर्णय में सत्य ग्राहकता है, इसलिए मिथ्यात्व गलता ही है अर्थात् मिथ्यात्व के स्थिति अनुभाग घटते हैं । पंचलब्धिओं में आत्मिक विशुद्धता बढ़ती जाती है। पुरुषार्थी को पंचलब्धि के परिणामों में उसे कार्यसिद्धि की दिशा दिखती है।

इसलिए आत्मार्थी के पुरुषार्थ को उसकी अपूर्वता से देखिए, विशुद्धता से देखिए, मिथ्यात्व को गलता देखिए। “वह मिथ्यात्व पर्याय है”- उस नजर को गौण कर दीजिए।

“आत्मा को पकड़नेवाली पर्याय” - ऐसा आत्मा और पर्याय का भेद विकल्प भी छोड़कर आत्मा आत्मा को आत्मा द्वारा पकड़कर सम्यक्त्वरूप परिणमता देखिए। यह अभेदद्रष्टि से आत्मप्राप्ति का प्रयोग करना कार्यकारी होगा।

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वाह! आपकी जिनागमानुसारी तीक्ष्ण प्रज्ञा ने क्या गज़ब का प्रश्न रखा है!
मेरा विचार - विपरीतता ही हानि है।

पराश्रय और स्वाश्रय का ही अन्तर है।

मलिनता की मन्दता से। (जैसे कीचड़ को साफ करने के लिए कीचड़ में ही उतरना पड़ता है।)

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