समयसार गाथा २९७ में चेतकत्वरूपी (त्रिकाली द्रव्य) को व्यापक लिया है और व्यवहार भाव को उससे व्याप्य नहीं बताया है अर्थात् राग-द्वेष की पर्याय को व्याप्य नहीं बताया है (ज्ञान की पर्याय को व्याप्य) बताया है।
गाथा २९८-२९९ में टीका की अंतिम पंक्ति में दूसरे दोष में चेतना (पर्याय) को व्यापक बताया है और चेतन (त्रिकाली द्रव्य) को व्याप्य।
क्रम उल्टा कर दिया है। दोनो में कौन सी अपेक्षा लगायी है कृपया प्रकाश डालें।
आपके इस प्रश्न से बारबार टीका पढ़ने पर ध्यान आया कि यहाँ लक्षण-लक्ष की बात होने से चेतकत्व(चेतना) लक्षण अपने आत्मलक्ष में व्यापक है। इसे द्रव्य पर्याय के रूप में चिंतन की आवश्यकता नहीं है। इन गाथायों का सार तो इतना है कि लक्षण अपने लक्ष में व्यापक है, अन्य परद्रव्य में नहीं।