मुनियों पर उपसर्ग पापोदय के कारण (?)

मुनि उपसर्ग पापोदय के कारण।

यदि हाँ, तो मुनिपना कैसे?

यदि नहीं, तो किस कारण?

वेदनीय कर्म जीव विपाकी प्रकृति हैं।

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पाप का उदय होता हैं पिछले बांधे हुए कर्मों के कारण जो अब उदय में आयें हैं। मुनिपना तब भंग होगा जब उन्हें इस पाप के उदय में संयम नहीं होगा और राग/द्वेष भाव आयेंगे। मुनि दशा में पुण्य भाव ही आएँगे, पाप भाव का अभाव होता हैं।

पाप कर्म का उदय हो सकता हैं। लेकिन वर्तमान में पाप-भाव का अभाव होता हैं।

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परंतु वेदनीय कर्म जीव विपाकी होने से जब तक पंखा हमें अनुकूल/प्रतिकुल ना लगे, तब तक पुण्य/पाप उदय कैसे माना जाये? उसी प्रकार उपसर्ग जबतक प्रतिकुल ना लगे, तब तक पापोदय (असाता वेदनीय का उदय) कैसे माना जाएं?

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वेदनीय कर्म केवल निमित्त मात्र होता है। अंतर के सुख-दुःख आतंरिक मोह के परिणाम से ही होता है। वेदनीय कर्म बाह्य संयोग-वियोग तथा शरीर की इष्ट-अनिष्ट क्रिया का कारण होता है। इसलिए मुनि के वेदनीय कर्म के उदय पर शरीर पर उपसर्ग/परिषह होते है। और चूंकि वेदनीय कर्म के उदय पर परिणामों के द्वारा ही सुख-दुःख होता है। जैसे अगर मुनि के साता-वेदनीय का उदय हो और कोई व्यक्ति मुनि को सर्दी के मौसम में कम्बल उड़ा दे, तो यद्यपि यह मुनि के लिए है साता-वेदनीय लेकिन मुनि इसे उपसर्ग मानेंगे।

ज़्यादा लिखने की जगह में मोक्ष-मार्ग प्रकाशक में जो वेदनीय कर्म का स्वरुप दिया है, वैसा का वैसा ही यहाँ पर प्रस्तुत कर देते है।


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तो क्या हम यह कह सकते है कि बाहर की जितनी भी वस्तुयें हैं वे वेदनीय कर्म के उदय से मिलती है?

केवल वेदनीय ही नहीं, बाक़ी अघाति कर्म भी। घाति कर्म से निमित्त से जीव के परिणाम घात होते है (ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, पुरुषार्थ)। अघाति कर्म (आयु, नाम, गोत्र, साता-असाता वेदनीय) सब केवल बाह्य संयोगों से सम्बंधित है।

आयु भावविपाकि है।
नाम कर्म शरीर शरीर की संरचना में निमित्त है।
वेदनीय और गोत्र जीवविपाकी हैं। तो बाह्य संयोग कपड़े, घर, गाड़ी इत्यादि किस कर्म का कार्य है?

कृपया यहाँ देखिए।

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