हम सभी टोडरमलजी के ज्ञान तथा शब्दों की पकड़ से वाक़िफ हैं, और हमें यह भी पता है कि पण्डित जी साहब शब्दों का प्रयोग बहुत विचार करके करते हैं।
प्रश्न है, कि इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पना को टोडरमलजी ने मिथ्याचारित्र के अंतर्गत लिया…ठीक है!, लेकिन मैं यह कहना चाह रहा हूँ, की चतुर्थ गुणस्थान वाले ज्ञानी को इष्ट-अनिष्ट जैसा कुछ नही है, वहां राग-द्वेष तो हैं, लेकिन इष्ट-अनिष्ट पना नही है।, यह बात ख्याल में है, की इसमें कुछ नया नही है।
मूल में जानना चाहता हूँ, कि क्या इष्ट-अनिष्ट का सम्बन्ध यदि मात्र दर्शनमोह से ही लें, तो क्या कोई आपत्ति है, मेरा कहना है कि चारित्र मोह में राग-द्वेष आतें हैं, इष्ट-अनिष्ट पना मात्र मान्यता में है, और इसका अभाव चतुर्थ गुणस्थान में है ही। इष्ट/अनिष्ट का चारित्र मोह से सम्बन्ध नही है, कृपया इसकी समीक्षा करें। @jain9rajat@panna@jinesh ji आदि सभी इसका समाधान करें।
सुखदायक-उपकारी मानकर इष्ट जानता है, और दुःखदायक-अनुपकारी जानकर अनिष्ट मानता है।
यहाँ पर मानना और जानना का क्रम उल्टा क्यूँ किया?
दूसरा:
वहाँ कषाय भाव होते है, वे पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानने पर होते है।
लेकिन चतुर्थ गुणस्थान में भी कषाय होती है, लेकिन वहाँ इष्ट/अनिष्ट की बुद्धि नहीं होती है।
यहाँ पर प्रश्न है की इष्ट/अनिष्ट जानना और मानना में कुछ difference है? जैसे कि ऐसा विकल्प आया (चाहे समयग-दृष्टि को भी) की फ़लाना पदार्थ मेरे लिए इष्ट है - ऐसा विकल्प आया, लेकिन इस विकल्प में जो इष्ट/अनिष्ट का भाव आया उसे माना नहीं। क्या ऐसा अर्थ निकालना सही है?
सही बात है कि यहाँ यह विषय मिथ्या चारित्र के अंतर्गत लिया है, अर्थात अनंतानुबंधी कषाय के स्वरूप रूप मे यह कथन है…। परन्तु अनंतानुबंधी कषाय को द्वि-मुखी प्रकृति कहा है जो श्रद्धा और चारित्र दोनों का घात करती है। अतः पदार्थों मे इष्ट अनिष्ट पना / बुद्धि / मान्यता का समन्वय उसमे हो जाता है।
एक और अर्थ साथ मे किया जा सकता है कि समान्य रूप से भी इष्ट अनिष्ट बुद्धि को दोनों ही level पर use कर सकते हैं- श्रद्धा और चारित्र दोनों के ही। हालांकि बुद्धि/पना आदि को श्रद्धा आदि मे रूढ़ी अर्थ प्राप्त हो चुका है। (मेरा क्रिया, परिणाम और अभिप्राय मे से अभिप्राय के सम्बंध मे भी यही विचार चल रहा है - अभी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा हूं…)
चारित्र के level पर भी इष्ट अनिष्ट पना माना जा सकता है।
एक अंतिम बात - श्रद्धा गुण का कार्य क्या है? अहं करना - स्व-पना स्थापित करना। पर द्रव्य मे अहं स्थापित करना ही उसका मिथ्या परिणमन है। परन्तु चारित्र की मुख्यता से श्रद्धा का कथन करने पर यह कहा कि पर द्रव्यों मे इष्ट अनिष्ट मान्यता मिथ्यात्व है।
यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार सम्यकदर्शन का कथन है-
देव शास्त्र गुरु की श्रद्धा (चारित्र की अपेक्षा सम्यकदर्शन का कथन)
सात तत्व की श्रद्धा (ज्ञान की अपेक्षा सम्यकदर्शन का कथन)
आपा पर की श्रद्धा (ज्ञान की अपेक्षा सम्यकदर्शन का कथन)
आत्म श्रद्धान (श्रद्धा गुण की अपेक्षा सम्यकदर्शन का कथन)
कषाय भाव पदार्थों को इष्ट/अनिष्ट मानने पर होते है, परंतु उन्हें इष्ट/अनिष्ट मानना भी मिथ्या है।
यह बात समझ नहीं आयी।उपरोक्त post जहां पर चारित्र मोह का स्वरूप बताया है, वहाँ पर स्पष्ट है की इष्ट/अनिष्ट पाना चारित्र मोह के उदय से होता है और यही कषाय भाव है, लेकिन हर कषाय भाव में जीव मिथ्यात्व नहीं होता है। मेरे हिसाब से ऐसा होना चाहिए था
कषाय भाव पदार्थों को इष्ट/अनिष्ट जानने पर होता है परंतु उन्हें इष्ट/अनिष्ट मानना ही मिथ्या है।
सुंदर चर्चा हुई है। प्रश्न उपस्थित करने हेतु धन्यवाद!
इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए “प्रयोजनभूत” और “अप्रयोजनभूत” - इन दो शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। चाहे इष्ट-अनिष्ट हो अथवा राग-द्वेष हो, यदि वे मिथ्यात्व के साथ होनेवाले कषायों को सूचित कर रहे है तो इसका सबसे बड़ा कारण है - अप्रयोजनभूत विषयों में राग-द्वेष।
प्रयोजनभूत में कदाचित् राग-द्वेष करें तो समझ में भी आए; जैसे - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति इष्ट की कल्पना (=निरपेक्ष भक्ति / प्रशस्त राग) एवं कुदेवादिक के प्रति अनिष्ट की कल्पना - ये मिथ्याचारित्र नाम नहीं पाएंगे। क्योंकि इनसे जीव का बिगाड़-सुधार है। अर्थात् ये ऐसा राग-द्वेष है जिससे एक बड़ा पाप छूट रहा है - गृहीत मिथ्यात्व। इस अपेक्षा ये प्रयोजनभूत विषयों में राग-द्वेष हुआ, और इसीलिए मिथ्याचारित्र नाम नहीं पाएगा।
ऐसा तो नियम नहीं है कि मिथ्यादृष्टि के सारे राग-द्वेष नियम से अनंतानुबंधी ही हो; उदय तो चारों (अनंतानुबंधी आदि) में से किसी का भी हो सकता। उस पर अलग से ध्यान इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि अनंतानुबंधी रागादि के होते हुए शेष अप्रत्याख्यानादिक राग की क्या चर्चा करना? इसी आधार पर जैसे ज्ञानियों के जीवन में शुद्ध परिणति रहती है, वैसे ही अज्ञानियों के जीवन में अशुद्ध परिणति भी सिद्ध होती है। कोई भद्र मिथ्यादृष्टि भी हो, लेकिन सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अनुराग को अनंतानुबंधी की जाति का कैसे कह सकते है?
लेकिन पण्डितजी उन कल्पनाओं को मिथ्याचारित्र कह रहे है जिनसे जीव का कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं था फिर भी इष्ट-अनिष्ट मानता जा रहा है; जिसे संक्षेप में कहें तो अप्रयोजनभूत विषय।
इस विषय को समझने का मूल आधार तो ‘इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पना’ एवं ‘राग-द्वेष का विधान और विस्तार’ पूरा प्रकरण ही है, फिर भी एक अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:
तथा कितने ही बाह्य पदार्थ शरीरकी अवस्थाको कारण नही हैं उनमें भी राग-द्वेष करता है। जैसे — गाय आदिको बच्चोंसे कुछ शरीरका इष्ट नहीं होता तथापि वहाँ राग करते हैं और कुत्ते आदिको बिल्ली आदिसे कुछ शरीरका अनिष्ट नहीं होता तथापि वहाँ द्वेष करते हैं।
यहाँ प्रश्न है कि — अन्य पदार्थोंमें तो राग-द्वेष करनेका प्रयोजन जाना, परन्तु प्रथम ही मूलभूत शरीरकी अवस्थामें तथा जो शरीरकी अवस्थाको कारण नहीं हैं, उन पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्ट मानने का प्रयोजन क्या है?
समाधान :— जो प्रथम मूलभूत शरीरकी अवस्था आदिक हैं, उनमें भी प्रयोजन विचारकर राग-द्वेष करे तो मिथ्याचारित्र नाम क्यों पाये? उनमें बिना ही प्रयोजन राग-द्वेष करता है और उन्हींके अर्थ अन्यसे राग-द्वेष करता है, इसलिये सर्व राग-द्वेष परिणतिका नाम मिथ्याचारित्र कहा है।
- वहीं, पृ. 91-92
इष्ट अनिष्ट की कल्पना एवं मिथ्या कल्पना में प्रयोजनभूत एवं अप्रयोजनभूत पदार्थों की अपेक्षा भेद है। इष्ट अनिष्ट की कल्पना तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को भी होगी, लेकिन मिथ्या कल्पना तो मात्र मिथ्यादृष्टि को ही होती है - ऐसा मुझे भासित होता है।
इष्ट अनिष्ट बुद्धि- मिथ्या ज्ञान, इष्ट अनिष्ट मान्यता- मिथ्यात्व और इष्ट अनिष्ट कल्पना (विकल्प)- मिथ्याचारित्र है।
पृष्ठ 90 पर लिखा है “यह जीव कल्पना द्वारा उन्हें इष्ट अनिष्ट मानता है सो यह कल्पना झूठी है।” इससे आपको मानना और कल्पना का अंतर समझेगा।
सम्यक दृस्टि को इष्ट अनिष्ट की कल्पना (विकल्प) हो सकते है परंतु उनकी मान्यता व निर्णय मिथ्या नहीं, इसलिये इष्ट अनिष्ट की कल्पना मिथ्याचारित्र नहीं। वह मात्र कषाय भाव है।
(अभी अन्य प्रतिक्रिया नहीं पढ़ी। उसपर यदि हमे कुछ लिखना होगा तो कल प्रतिक्रिया करेंगे।)
आपका प्रश्न करना स्वाभाविक है। हमारे मन मे भी यही प्रश्न आया था जब हमने पहली बार आ. युगल जी बाबुजी द्वारा रचित चैतन्य की चहल पहल पुस्तक का स्वाध्याय किया था। वहाँ इसका पूर्ण रीति से समाधान भी प्राप्त हुआ था।
वहाँ श्रद्धा गुण के सम्बंध मे एक बहुत महत्वपूर्ण बात ख्याल मे आयी थी कि श्रद्धा गुण को एक ही दिखता है। दो, तीन, सात और नौ - यह सब नहीं, ये भेद सब तो ज्ञान में ही दिखते हैं(ज्ञान मे भेद के साथ एक अभेद भी दिखता है)।
श्रद्धा का कार्य अहं करना है, अपनापन स्थापित करके सोहं रूप परिणमना है। (सम्यक और मिथ्या - दोनों मे उसकी यही कार्य शैली है। )
मूलतः पूरी ही पठनीय है। Index का screenshot संलग्न किया है जिससे आपको विषय वस्तु ख्याल मे आ जाएगी।
हम दो- तीन दिन बाद उत्तर दे पाएंगें। इस बीच यदि आप शास्त्रीय आधार दे सकें तो जरूर दें। पूर्व भी अन्य उत्तर में हमने कहा था कि वर्तमान कालीन विद्वान के लेख आधारभूत देकर आप हमें दुविधा में रख देते हैं।
हमें पूर्वकालीन आचार्य व विद्वान के आधार से की गई वात का स्वीकार सहज होता है। वे पुराने शास्त्र प्रयोजनभूत बात को स्पस्ट करने में पर्याप्त ही हैं।
श्रद्धान देव शास्त्र गुरु रूप है ऐसा नही कह कर सम्यक रूप है यह कहना उचित है।
क्योंकि देव शास्त्र गुरु ,सात तत्व, नो पदार्थ आदि सब ज्ञानावरण के क्षयोपशम के ऊपर आधारित है।
देव शास्त्र गुरु,सात तत्व आदि द्रव्यश्रुत के विषय है अर्थात ज्ञानावरण का विषय है।
और आत्मानुभूति भाव श्रुत का विषय है। यह श्रद्धागुण का विषय है।
जैसे तिर्यंच आदि को भावश्रुत तो होता है परंतु द्रव्यश्रुत रूप शब्द ख्याल में नही होता।और चक्षु इंद्रिया कार्यरत हो तो और क्षयोपशम हो तो उस ज्ञान समबंधित सम्यक श्रद्धान है।
Page no = 85 and 86 पढ़ने के बाद लग रहा है कि
वास्तव में श्रद्धा का कार्य तो मात्र सम्यक और मिथ्या यहां तक ही है ।
उत्तर में देरी के लिए क्षमा चाहते है। अनुकूलता न होने से देरी हुई परंतु उत्तर के लिए स्वाध्याय अच्छा हुआ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक के 212-213 पेज पर प्रश्न किया है कि “शास्र में ऐसा कैसे कहा है कि आत्मा का श्रद्धान-ज्ञान-आचरण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है?”
उत्तर में लिखा है कि ‘अनादि से परद्रव्यमें आपरूप श्रध्दा आदि है; उसे छुड़ाने के लिए यह उपदेश है।’
और फिर आगे स्पष्ट किया है कि
“आप को आपरूप और पर को पररूप यथार्थ जानता रहे, वैसे ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्तन करे; तभी सम्यग्दर्शनादि होते हैं।”
यहां श्रद्धान के प्रवर्तन का उल्लेख है, और आगे बोल्ड किया है कि
“जिसप्रकार से रागादि मिटाने का श्रद्धान हो वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।” और सम्यक् ज्ञान चरित्र का भी अलग से लिखा है।
ज्ञान का जिस विषय संबंधी जो निर्णय हो उस अनुसार श्रद्धा उस विषय के अभिप्राय/प्रतीतिरूप परिणमन करता है यह कहना ज्यादा उचित है।
यदि अभिप्राय यथार्थ है तो सम्यक है, वरना मिथ्या है।
इसका आधार पेज 315 पर है। “विपरिताभिनिवेशरहित जीवादिक तत्वार्थ श्रद्धान वह सम्यग्दर्शन का लक्षण है।” जीव आदि सात तत्वार्थ हैं (यह तो ज्ञान हुआ)।
अब आगे कहा
“इनका जो श्रद्धान - ‘ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है’ - ऐसा प्रतीति भाव (यह श्रध्दा का भाव-परिणमन हुआ), सो तत्वार्थश्रद्धान; तथा विपरिताभिनिवेश रहित… सो सम्यग्दर्शन है।”
पेज 77 पर ज्ञानावरण संबंधी बात भी आप पढ़ सकते हैैं।
सुलभजी, हम यहाँ कुछ शास्त्र वचन प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके आधार से “श्रद्धा गुण को एक ही दिखता है।” इस कथन पर
फिर विचार करना।
चारित्तपाहुड़/ मू./18 यह आत्मा सम्यग्दर्शन (दर्शन गुण की बात है) से सत्तामात्र वस्तु को देखता है और सम्यग्ज्ञान से द्रव्य व पर्याय को जानता है। सम्यक्त्व के द्वारा द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तु का श्रद्धान करता हुआ चारित्रजनित दोषों को दूर करता है।
(यहां श्रद्धा केवल द्रव्य ध्रुव स्वरूप आत्मा का नहीं लिखा परंतु द्रव्य-पर्याय स्वरूप वस्तु का कहा है। ऐसी श्रद्धान से चारित्र शुद्ध होता है।)
परमात्मप्रकाश टीका 2/13/127/6 में प्रश्नकार ने यह तो स्वीकार ही लिया कि
‘तत्त्वार्थ श्रद्धा या तत्त्वार्थरुचिरूप सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग होता है’ ऐसा कहने में दोष नहीं।
रुचि तो श्रद्धागुण का परिणमन है ना?
और
परमात्मप्रकाश टीका/2/34/154/15 अधिक स्पष्ट किया है कि
मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम जनित तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण वाले सम्यग्दर्शन का अभाव होने के कारण, ‘शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है’ ऐसे श्रद्धान का अभाव है।
इससे 2-3 बात ध्यान देने जैसी है।
1 दर्शनमोह के उपशमादि की बात है जिसका नैमित्तिक तो श्रद्धा गुण है।
2 ‘शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है’ यह तत्वार्थश्रद्धान के बिना नहीं। क्योंकि शुद्धात्मतत्व भी तत्वार्थश्रद्धान का भाग ही है।
3 ‘शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है’ इससे यह भी जाना कि तत्व की श्रद्धा में हेय उपादेय रूपता भी है।
(कही भी “ज्ञान अपेक्षा से लिखा है” ऐसा नहीं मिलता। स्पष्ट श्रद्धा की बात चल रही है।)
और तो अधिक बहुत आधार हैं। जैनकोश में सम्यग्दर्शन search कर खास निश्चयसम्यग्दर्शन का भाग पढ़ लेना।
अंत में मोक्षमार्ग प्रकाशक का पेज 324-325 के कुछ वाक्य यहां लिखे हैं, पूरा आप शास्त्र से पढ़ लेना।
“श्रद्धान करो या न करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है”
“आस्रवादिक के श्रद्धानसहित आपापर का जानना व आप का जानना कार्यकारी है” (श्रद्धान से ज्ञान को कार्यकारी की बात जरूर आई है परंतु ज्ञान/चारित्र अपेक्षा सम्यग्दर्शन ऐसा नहीं मिल रहा। आपने आधार तो दिया नही है परंतु यदि मोक्षमार्ग प्रकाशक पेज 331 के मध्य पेरेग्राफ से आपने यह अर्थ किया हो तो वह भी योग्य नहीं।)
पेज 44 पर तो "प्रयोजनभूत जीवादितत्वों का यथार्थ निर्णय करने में नहीं लगना ज्ञान का दोष और यथार्थ श्रद्धान नहीं होता वह श्रद्धान में दोष कहा है। उसे मिथ्यादर्शन कहा है। यहां स्पस्ट है कि जीवादितत्वों का यथार्थ श्रद्धान रूप परिणमन हमें करना होगा वरना तब तक हममें दोष है।
इन आधारों से श्रद्धा एक को ही स्वीकारती है ऐसा भासित नहीं होता।
महावीर स्वामी के जीव को सिंह के भव में मुनिराज ने जो उपदेश दिया वह द्रव्यश्रुत रूप है।
बिल्कुल सही कहा।कथन करने में तो ज्ञान मिश्रित कहा जायेगा परंतु श्रद्धा गुण का कार्य तो सम्यक और मिथ्या दो रूप ही समजा जाए।
वास्तव में तो आत्मा के प्रत्येक गुण एक दूसरे की पुष्टि करते है।
दर्शन गुण प्रतीति का कार्य कैसे कर सकता है?
[quote=“panna, post:14, topic:4214”]
इन आधारों से श्रद्धा एक को ही स्वीकारती है ऐसा भासित नहीं होता।
[/quot
ज्ञान मिश्रित होने से श्रद्धा को उस रूप कहा जाता है मात्र श्रद्धा को लेंगे तो उसका कार्य तो प्रतीति का ही होगा और वो तो सम्यक या मिथ्या उतना ही होगा ।गुणस्थान की अपेक्षा से भी आप समझ सकते है।
समोशरण वाणी भी द्रव्यश्रुत रूप समझते है परंतु मे शिवभूति मुनिराज की अपेक्षा से कह रहा था ।भले ही ज्ञानावरण का तीव्र उदय है भावश्रुत से मोक्षमार्ग में आगे बढ़ सकता है।
“कहा जाता है” इस बात का शास्त्र आधार दीजिये। यदि शास्र आधार ना मिले तो हमारा फर्ज है कि “केवल कहा जाता है” यह बात को हम बार बार ना दोहराए। क्योंकि श्रद्धा का सम्यक परिणमन का अर्थ ही यह है कि विषय की यथार्थरूपता का स्वीकाररूप/प्रतितिरुप परिणमन।
केवल सम्यक परिणमन, बिना उसका विषय कैसे संभव है? केवल प्रतीति - अब पूछो किसकी? तो उनके लिए ज्ञान को देखो- ऐसा नहीं है। दोनों गुण अलग है तो उनका कथन मिश्रित नहीं होना चाहिए। मिश्रित करना उचित नहीं है।
ज्ञान और श्रद्धान दोनों साथ होने से मिश्रित कथन है ऐसा नहीं है।
केवल श्रद्धा गुण के परिणमन को देखने पर भी उसमें विषय की यथार्थ प्रतीति दिखती है। केवल प्रतीति नहीं। केवल प्रतीति यह कैसा परिणमन होगा?
सरलार्थ :- जिसके कारण ज्ञान में वस्तु की अन्यथा/विपरीत जानकारी होती है, उसको सत्पुरुषों ने मिथ्यात्व माना है । वह मिथ्यात्व कर्मरूपी बगीचे को उगाने के लिये जल के समान है । भावार्थ:- जीव द्रव्य के अनंत गुणों में एक ज्ञान गुण ही सविकल्प है, अन्य सर्व गुण नियम से निर्विकल्प हैं । अत: एक ज्ञान गुण के आधार से ही अन्य गुणों की एवं अन्य गुणों के पर्यायों की जानकारी दी जाती है, दूसरा कुछ उपाय भी नहीं है । मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा तो श्रद्धा गुण का कार्य है, इस विपरीतता को श्रद्धा गुण द्वारा समझाया नहीं जा सकता । इसलिये ज्ञान गुण का, जो विपरीत जाननेरूप कार्य है, उसके द्वारा श्रद्धा की विपरीतता को बताया गया है । श्रद्धा को यथार्थ बताने के लिये भी एक ज्ञान गुण के परिणमन का ही आधार लेकर जीवों को समझाया जाता है कि, वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करोगे तो ही मिथ्यात्व टलेगा । इसलिये मिथ्या श्रद्धा से परिणत जीवों को वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करने की ही प्रेरणा दी जाती है । स्वाध्याय करो, शास्त्र पढ़ो, उपदेश सुनो, सत्समागम करो - ऐसा ही उपदेश योग्य है, दूसरा कुछ उपाय भी नहीं हैं ।
आपने आधार देने का प्रयास किया उसकी हम अनुमोदना करते है।
With all due respect for the writter, I want to bring to your notice that जो आधार के रूप से आपने दिया है वह मूलगाथा नहीं है, भावार्थ है जो पड़ितश्री का लिखा हुआ है। Just mentioning it here, so that we are all clear about who has written the point you have presented.
12वी गाथा में तो ‘ज्ञान के सम्यक्पने में श्रद्धा का निमित्तपना’ समझाया है। श्रद्धा को ज्ञान का निमित्तपना नहीं वताया।
13वी में श्रद्धा को ज्ञान की विपरीतता का कारण कहा है।
14वी में स्पष्ट दर्शनमोह निमित कहा है।
और सबसे इम्पोर्टेन्ट आधार है 15वी गाथा।
15वी में “तत्व को अतत्व मानता है।” मान्यता (श्रद्धा) की बात स्पष्ट आई है।
इसतरह मूल शास्र में तो “कहा जाता है” का आधार नहीं मिलता।
भावार्थ अंश:
ज्ञान ही से सब गुण के पर्यायों की जानकारी दी जाती है, यह तो स्वीकार ही है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि श्रद्धा में तत्वार्थश्रद्धान नहीं है और केवल सम्यक/ मिथ्यारूप परिणमन ही है।
भावार्थ अंश:
श्रद्धा की विपरीतता कारण है, जो की कार्य (ज्ञान की विपरीतता) के द्वारा बताया जाता है।
इससे कोई ऐसा अर्थ नहीं हो सकता कि श्रद्धा में केवल एक का ही स्वीकार है। श्रद्धा केवल अहंपना ही करती है। यहां स्पष्ट ही है कि श्रद्धा विपरीतपना या यथार्थता करती है। (श्रध्दा बिना विषय विपरीतता करे यह कैसे सम्भव है ? यह ठीक है कि ज्ञान जिसे विषय करे उसी विषय की श्रध्दा प्रतीति करती है। अलग से ज्ञेय को विषय करने का काम नहीं करती) और हमारे पूर्व में दिए गए उत्तर में शास्त्र आधार से भी स्पष्ट ही है कि श्रद्धा हेय उपादेयरूप श्रद्धान भी करती है। वह आधार मूल शास्त्र एवं आचार्यकल्प पंडितश्री टोडरमल जी का है।
जीवों को ज्ञान के आधार से समझाया का अर्थ यह नहीं कि ‘श्रद्धान में वह विषय है ही नहीं’। कार्य के आधार से कारण समझाना कोई गलत नहीं। और वैसे भी एक ज्ञानमात्र भाव में ही तो सारी शक्तियां उछलती हैं। इसलिए उस अपेक्षा से सारे गुणों का वर्णन ज्ञान अपेक्षा से ही हुआ। परंतु केवली को तो सारे स्वतंत्र गुण दिखते हैं, तो क्या उनके वचन में एक एक गुण का बिना अन्यगुण के आधार से व्याख्या नहीं बनेगी?
हमारी मूल बात यह है कि श्रध्दा में स्व-पर, हेय-उपादेय का श्रद्धान है।
‘श्रद्धा का काम केवल अहंपना करना है, एक ही विषय है, 2-3 विगेरे नहीं। एक से अधिक भेद सब ज्ञान में ही हैं श्रद्धान में नहीं।’ यह कथन शास्र आधारित नहीं है।
नौ तत्व की श्रद्धा में नौ शब्द ज्ञान अपेक्षा है, श्रद्धान में नौ नहीं, एक का ही श्रद्धान होता है - ऐसा शास्त्र वचन नहीं मिल रहा। हमें शास्त्र में अन्य आधार बहुत अधिक मात्रा में मिल रहे हैं।
जो हमें नहीं मिल रहा यदि आप को मूल शास्र में मिले तो जरूर बताना। और यदि आप को भी न मिले तो kindly do not ignore mool vachan of shastra which was given in my earlier post, just coz we have heard and read one way.
एक प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव के ज्ञान में तत्त्व का विपरीत निर्णय है और श्रद्धान में विपरिताभिनिवेश/अभिप्राय/प्रतीति है। हमारा कहना है कि उस जीव के ज्ञान परिणाम को गौण कर केवल श्रद्धा गुण के परिणमन को देखें तो उसमें केवल विपरिताभिनिवेश ही नहीं, तत्वार्थ का विपरिताभिनिवेश है।
और आप कहते हैं कि ‘तत्वार्थ शब्द उसे ज्ञान की अपेक्षा/ मुख्यता से मिला है यह मिश्रित वाक्य है। ज्ञान को गौण करेंगें तो श्रद्धा में केवल विपरिताभिनिवेश दिखेगा परंतु किस विषय में वह नहीं दिखेगा।’
आप और हम इस बात में सहमत हैं कि ज्ञान ज्ञेय को विषय करता है। हमारा मानना है कि ‘ज्ञान के विषय के निर्णय अनुरूप उस विषय में श्रद्धा यथार्थ या विपरिताभिनिवेश करती है।’
इसी के साथ हम यह चर्चा यहां समाप्त करते है, untill some solid mool gatha proof comes up. Not bhavarth by recent Panditshris. (with all due respect for them.)
आपके निमित्त से इस विषय में मेरी समझ अब पहले से कहीं बेहतर है।
मैं भी इस बात से सहमत हूँ।
प्रयोजन भूत तत्त्वों के संबंध में सम्यक् प्रतीति रूप कार्य श्रद्धा गुण का सम्यक् परिणमन है, और उन प्रयोजन भूत तत्त्वों के संबंध में सम्यक् प्रतीति नहीं होना उसका मिथ्या परिणमन है।
इतना विशेष है की श्रद्धा गुण ज्ञान गुण की भाँति विकल्पात्मक ना होकर निर्विकल्प रूप होकर कार्य करती है।