It is such a pleasant feeling to be part of this discussion, specially bcoz this discussion is forcing each one of us to open and do मूल शास्र अभ्यास।
Let me restate the search we are into…
We want a direct support from mool shastra about
1 “केवल अहमपना”- “श्रद्धा केवल अहमपना करती है।”
2 “ज्ञान की अपेक्षा कहा गया है।”
Coz if we do not find these directly in मूल शास्त्र than we all agree that its an inference (निष्कर्ष) made and thus we need to validate the inference first before we accept it. Till than we must be careful that we do not start reading मूल गाथा from its lenses and missout of real essence of the गाथा.
Surprising, मोक्षमार्ग प्रकाशक- a grath which makes an attempt at stating all the possible inferences of मूल शास्त्र doesnt have above 2 inferences in it.
And if at all we are trying to infer it from the inferences given in मोक्षमार्ग प्रकाशक, than please be extra careful that it doesnt lead to स्व-वचन विरोध दोष for पंडितजी. He has been extremely alert in presenting his points. पूरा मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ ‘श्रद्धान’ ‘प्रतीति’ शब्दों से भरा पड़ा है और एक बार भी नहीं लिखा कि इस श्रद्धान शब्द को ज्ञान अपेक्षा जानना।
अब आप “ज्ञान अपेक्षा कहा है” ऐसा कहते है तो आप उनके हर कथन पर वह अपेक्षा लगा के देखिए कहीं उनका स्व-वचन विरोध ना हो जाए।
For example
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 324 पर लिखा है कि
“इसलिए आश्रवादिक के श्रद्धानसहित आपापरका जानना व आपका जानना कार्यकारी है।”
“तत्वार्थ श्रद्धान किये बिना सर्व जानना कार्यकारी नहीं है, क्योंकि प्रयोजन तो रागादि मिटाने का है; सो आश्रवादिक के श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासित नहीं होता”
इन दोनों कथन में ज्ञान अपेक्षा श्रद्धान लगा के देखे।
Lets now move to understand what is व्यवहार-निश्चय सम्यक्त्व।
मोक्षमार्ग प्रकाशक पेज 330।
It says… सम्यग्दृष्टि जीव के देव-गुरु-धर्मादिकका सच्चा “श्रद्धान” है। उसी निमित्तसे… (देखो यहां निमित बताने के समय में भी नहीं कहा " सच्चा ज्ञान" है। “सच्चा श्रद्धान है” लिखा है।
यहाँ देव-गुरु की “श्रध्दा” को विपरिताभिनिवेश रहित श्रध्दान का कारण दिखाया है। श्रद्धा का ही पूर्व परिणमन (देव गुरु की श्रद्धा) पश्च्यात परिणमन (विपरिताभिनिवेश रहितपना) में निमित बनता दिखाया है। और क्योंकि वह निमित कारण है इसलिए व्यवहार नाम दिया है। परंतु वह भी श्रद्धा गुण का ही परिणमन है।)
पेज 331 में विचार की मुख्यता/अपेक्षा तत्वश्रद्धानी कहना तो व्यवहारसम्यक्त्व कहा है। मतलब, देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा तो श्रद्धान गुण का परिणमन है और उनके विचार, प्रवृति भी कारण बनते है इसलिए उसे भी व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। यानिकी ज्ञान को भी कारण उपचार से व्यवहारसम्यक्त्व कहा।
ज्ञान अपेक्षा से श्रद्धान तो नहीं, परंतु श्रद्धान का कारण बनने वाले ज्ञान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है।
शास्त्रो में नौ तत्व की श्रध्दा को कहीं व्यवहार सम्यक्त्व कहा है तो उन्हें ही निश्चय सम्यक्त्व का लक्षण भी कहा है।
अब यह किस तरह यह एकबार आपके पूर्व निष्कर्ष की ग्रंथि छोड कर जरूर विचार करे।
जाने हुए की श्रद्धा होती है, जब तक आत्मा जाना नहीं तब तक विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धान हुआ नहीं, जब जाना तब विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धान हुआ और तब निश्चय नाम पाया। उसकी मुख्यता तो पूरे समयसार में है, परंतु उसका अर्थ यह नहीं कि श्रद्धा में केवल आत्मा की ही श्रद्धा है। ऐसी विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धान में देव गुरु के श्रद्धान रूप परिणमन को कारणपना दिखाया है इसलिए उसे व्यवहार कहा है। है तो वह परिणमन श्रद्धा का ही।
आपने कलश 6 का मुख्य आधार दिया है। उसमें अपने आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना लिखा है उसमें स्व-पर की स्व-पर रूप श्रद्धा समाहित है। और कलश में ही लिखा है कि जिस आत्मा की श्रद्धा की है, वह कैसा है आत्मा? वह आत्मा अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त है। उसमें आठ तत्व समाहित हो गए। आपने ध्यान आकर्षित किया कि ‘नवतत्व की परिपाटी को छोड़ कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।’ शायद आपका ध्यान न गया हो तो, तो आप जरूर देखना कि - यह वाक्य छठवें गुणस्थान में आचार्य की प्रार्थनारूप है। आचार्य को तो सम्यग्दर्शन है ही, परन्तु नौ तत्व के जो विकल्प हैं उन्हें छोड़ना चाहते हैं।
उत्तर लंबा हो गया है, आशा है यह आपके लिए फलदायी बने। आभार।