इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पना

@panna ji

क्या आप श्रद्धा को सविकल्प मानते हो या निर्वकल्प

  1. यदि सविकल्प तो उसमे 2,3,4 ,विषय रूप उपयोग बनेंगे या नही यदि बनते है तो ज्ञान और श्रद्धान में क्या अंतर है।

2)यही निर्विकल्प है तो उसमें ज्ञान जो जो वस्तु जानेगा उस रूप मिथ्या या सम्यक रूप कथन करना होगा।उसमे तो ज्ञान मिश्रित ही कथन होगा।

मेरे अनुसार 2 point सही है आप का इस पर क्या कहना है?

बहुत उत्तम चर्चा चल रही है लेकिन confusion भी बढ़ गया है। (confusion नहीं बढ़ा है लेकिन सोचने पर मजबूर होने से नए प्रश्न खड़े हुए है)।

श्रद्धा का स्वरूप वास्तव में क्या है?

  • किसी चीज़ में एकत्व (ममपना करना)? या फिर
  • ज्ञान में आ रहीं वस्तु में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि मानना?

या फिर प्रसंगानुसार दोनो?

दूसरा प्रश्न है की श्रद्धा का ज्ञान के साथ क्या/कैसा सम्बंध (निमित्त सम्बन्धी) होता है?

उत्तर में देरी के लिए माफी चाहते है। व्यस्तता के कारण देरी हो गई।

श्रद्धा ज्ञेय को विषय नहीं करती यह ठीक है। अब हम यह कह रहे है कि ज्ञान ने जो भी ज्ञेय विषय का निर्णय बनाया श्रद्धा में वहीं श्रधेय बनके उसके यथार्थ /अयथार्थश्रद्धा रूप परिणमन हुआ। इसतरह देव गुरु शास्त्र, ज्ञान में विषयरूप व श्रद्धा का श्रधेयरूप होते है परंतु श्रद्धा उसे ही श्रधेय बनाती है जो विषय ज्ञान में है। ज्ञेय को विषय करने का काम ज्ञान का है।

विकल्प ज्ञान में ही होता है, विकल्प ज्ञान का ही परिणमन है, स्वरूप है। विकल्प श्रद्धा का परिणमन नहीं, परंतु जिस विषय के निर्णय का विकल्परूप ज्ञान परिणमा है उसी के श्रद्धानरूप श्रद्धा परिणमी है। यह हम कह रहे है। शून्यश्रधेयरूप केवल सम्यक/मिथ्या श्रद्धा परिणमन नहीं सम्भव।

जितने और जो विषय का निर्णय ज्ञान में विकल्परूप है, उतने और उसी श्रधेय की श्रद्धा, श्रद्धा में श्रद्धानरूप है।

चर्चा लंबी नहीं, स्पष्ट हो रही है इसका आनंद है। ऐसी चर्चा में भाग लेने के लिए हम आपके आभारी है। उत्तर लिखते लिखते हमारा विषय भी और अधिक प्रगट स्पष्ट हो रहा है।:pray:

इस उत्तर में आपके अन्य प्रश्नो का उत्तर गर्भित है इसलिए अलग से उतर नहीं लिखा।

इसका अर्थ श्रद्धा गुण का कथन करने के लिए ज्ञान मिश्रित ही कथन करना पड़ेगा?

आप जिस नजर से यह कह रहे है उस नजर से तो केवल श्रद्धा नहीं सारे गुण ज्ञान के अनुसार ही होते है। और

मूल focus है कि

श्रध्दा के परिणमन में ‘श्रधेय की श्रद्धान’ होती है। यह वचन मिश्रित नहीं।

श्रध्देय अर्थात ज्ञेय ही लेना है अर्थात विकल्प रूप विविध विषय लेने है?

Let me try to simplify it a bit more…

“मुख” शब्द का उपयोग कर हम उत्तर लिखने की कोशिश कर रहे हैैं।

स्व-पर दोनों ‘ज्ञेय’ ज्ञान में ज्ञात होते हैैं। ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। इसलिए ज्ञान परमुख व स्वमुख कहा जाता है।

ज्ञान की तरह श्रद्धा ‘स्वमुख-परमुख’ नहीं होती। श्रध्दा को मुख शब्द से समझें तो उसका मुख ‘ज्ञान के निर्णय’ की ओर होता है।

अब धारणा ऐसी बन गई है कि श्रद्धा स्वमुख ही होती है, देव गुरु विगेरे पर/भेद मुख नहीं होती, यह सब ज्ञान में होता है।

परंतु

अब इसे फिर से समझाते हैं।

ज्ञान का परिणमन ज्ञेय आधीन या ज्ञेय के अवलंबन से नहीं।

जैसे चिड़िया का बच्चा घोसले में से मुख बाहर कर देखता है, फिर घोसले में छुप जाता है। वैसे पर्याय द्रव्य से बाहर आकर पर के सामने देखती है- ये कल्पना सही नहीं।

ज्ञानपर्याय, ज्ञानगुण का परिणमन/अवस्था का बदलाव है। जो नवीन अवस्था/पर्याय उत्त्पन्न हुई वह पर को जानते हुए ही उत्पन्न हुई है। उत्पन्न होकर फिर पर विषय को विषय करती है, ऐसा नहीं। परंतु वह उस विषय के जानपनेरूप ही उत्पन्न हुई है।

“उसने किसी की और मुख किया” “पर मुख किया” ये वाक्य रचना अलंकारिक है।

द्रव्य में से ज्ञानपर्याय बाहर आती है, देव गुरु शास्त्र की ओर मुख करती है और इस तरह वह परज्ञेय को जानती है- ऐसा नहीं है।

उसी तरह श्रद्धा ‘ज्ञान के निर्णय’ की ओर मुख करती है- ऐसा नहीं है।

ज्ञान के उस निर्णय को स्वयं श्रद्धेयरूप बनाती हुई उत्पन्न होती है। इसतरह वह ज्ञान से निरपेक्ष है। ज्ञान अपेक्षित नहीं।

अब ज्ञान का निर्णय था कि “अरिहंत परमात्मा सुदेव हैं।” तो श्रद्धा ने भी ज्ञान के निर्णय अनुसार श्रद्धान(मान्यता/प्रतीति) की है कि “अरिहंत परमात्मा ही सुदेव हैं।”

श्रध्दा ज्ञान के निर्णय को स्वीकारती है का अर्थ यह है कि वह ज्ञान के निर्णय से भिन्न कुछ और निर्णय या कोई अन्य ज्ञेय को विषय (श्रद्धेय) नहीं बनाती । जो ज्ञान ने निर्णय किया उसे स्वीकारते हुए उस श्रद्धेय को उसरूप (ज्ञाननिर्णय अनुसार अरिहंत परमात्मा को सुदेवरूप) मानती है।

जानना/निर्णय करना विकल्प कहलाता है, मानना/प्रतीति करना नहीं।

इसतरह केवल श्रद्धा परिणमन को ही यदि देखे तो (छद्मस्थ नहीं देख सकते। केवली देख सकते हैं।) तो उसमें भी उसका श्रद्धेय “देव” का श्रद्धान दिखता है।

हर गुण का परिणमन अपना निरपेक्ष ही होता है यदि निरपेक्ष ना हो तो गुण भेद सिद्ध नहीं होगा।

1 Like

एक बात हमारी समझ मे आयी है जो हम share कर रहे हैं। शुद्धनय एक अखंड अभेद को ही स्वीकारता है। शुद्धनय 2-3-9 ऐसे भेद को नहीं स्वीकारता।

अब शुद्धनय के विषय को दृस्टि का विषय कहा जारहा है और फिर श्रध्दा के पर्यायवाची शब्द के रूप में भी दृस्टि शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।

अब समान शब्द से ये गड़बड़ हो गई है कि ‘श्रद्धा एक अखंड अभेद आत्मा का ही श्रद्धान करती है। भेद सब ज्ञान में है।’ जब कि शुद्धनय तो ज्ञान का परिणमन है, और वह तो भेद को लक्ष नहीं करता। मतिज्ञान जरूर प्रमाण ही है और वह भेद-अभेद दोनों को जानता है।

श्रद्धान में ऊपर चल रही चर्चा अनुसार स्व-पर, हेय-उपादेय सब है।

1 Like

हमारी जैसी समझ थी उस अनुसार श्रद्धा केवल किसी ज्ञेय में “अहंपना” स्थापित कर्ता है। तो श्रद्धा का इस ज्ञान के निर्णय (की अरिहंत भगवान सुदेव है) से कुछ सम्बंध कैसे होगा? श्रद्धा तो केवल इस चीज़ को decide करेगा की “मैं क्या हूँ?” क्या ऐसा नहीं है? और अगर ऐसा है तो “अरिहंत सुदेव है” श्रद्धा का ऐसे ज्ञान के निर्णय से क्या सम्बंध?

2 Likes

आपको इसका कोई मूल शास्त्र आधार मिले तो जरूर share करे। हमने पूर्व में जो आधार दिए है उससे तो ‘केवल’ अहमपना करती है ऐसा भासित नहीं हो रहा।

ज्ञान के निर्णय और श्रद्धान में अविनाभावि संबंध तो है, और निमित नैमित्तिक कहने में भी दोष नहीं लग रहा।

आपको विचारने के लिए कुछ प्रश्न रख रहे है।

मिथ्या दृस्टि पर में अहमपना कर रहा है। इसका अर्थ है उसने पर को विषय बनाया। वह पर को विषय बना पा रहा है। अब जब वह जीव सम्यग्दृष्टि हुआ तो उसने स्व में अहमपना किया तो पर में क्या किया? पर पना किया या नहीं? पर रूप माना या नहीं?

जीव के रागादि को अशुद्ध सद्भूतनय द्वारा सम्यग्दृष्टि जब अपने ज्ञान में जानता है तो उस रागादि को क्या मानता है?

इसपर विचारने से आपको श्रद्धा का कार्य स्पष्ट होगा। मोक्षमार्ग प्रकाशक में इसप्रकार के बहुत कथन भी मिलेंगे।

3 Likes

थोड़ा अध्ययन किया है। यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से कही पर ऐसा वर्णन अभी तक नहीं मिला है, लेकिन थोड़ा शास्त्र प्रमाण देकर इस पर आगे विचार करेंगे। २-३ दिन दीजिए, सारे विचार compile करके यहाँ पर प्रस्तुत करेंगे।

1 Like

नियमसार गाथा ३ दर्शन का स्वरूप (निश्चय से)

नियमसार गाथा ५ टीका: व्यवहार समयक्तव:


निष्कर्ष: तत्त्वों का श्रद्धान व्यवहार-समयक्तव है

समयसार कलश ६ में तो एकदम स्पष्ट लिखा है कि आत्मा को अन्य द्रव्यों से प्रथक देखना (श्रद्धान) ही निश्चय से समयग्दर्शन है।!

“श्रद्धान” शब्द पर गौर कीजिए। और अन्य द्रव्यों से प्रथक देखना इस पर गौर कीजिए। क्यूँकि यही निश्चय से समयग्दर्शन है, इसलिए सात तत्वों का श्रद्धान व्यवहार समयग्दर्शन है। इसी कलश की अंतिम पंक्ति से यह स्पष्ट होता है:

इस नवतत्व की परिपाटी को छोड़कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो

आगे समयसार गाथा १३ में भी यही लिखा है:

शुद्धनय से जानना वही समयक्तव है तथा

इसलिए इन तत्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है

गाथा १३ की ही जयसेनाचार्य के टीका

निष्कर्ष: निश्चय समयग्दर्शन केवल शुद्ध आत्मा का अनुभव ही है, नव-तत्व का श्रद्धान व्यवहार समयक्तव है। यहाँ पर यद्यपि निश्चय और व्यवहार की ही बात हुई है, लेकिन श्रद्धा गुण की नहीं, लेकिन समयक्तव के निश्चय/व्यवहार आधार पर हम निश्चय श्रद्धा को आत्मा का एक-पना मान सकते है।

हमने आगे मोक्षमार्ग प्रकाशक के नवें अधिकार का भी काफ़ी देर तक अध्ययन किया। वहाँ पर ही उपरोक्त समयसार कलश का छटवा श्लोक mentioned है। उसके उत्तर में उन्होंने बोला की आपापर के श्रद्धान में ही सात तत्वों का श्रद्धान तथा देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान तथा अरिहंत आदि का श्रद्धान गर्वित है।

इसलिए मूल में हमें ऐसा ही भासित होता है की मूल श्रद्धान (श्रद्धा गुण) तो आपापर का भासन है अथवा स्व में एकत्व है। तभी उसे शुद्धनय भी कहा जाता है। बाक़ी जितना भी प्रकरण आता है वह ज्ञान में निर्णय की प्रधानता से उपचार से श्रद्धान कहा जाता है।

उसने बस पर को पर जाना। ‘स्व’ नहीं जाना। मात्र इतना ही है। बाक़ी निर्णय हेय-उपादेय का कार्य / निर्णय या विचार ज्ञान में होगा।

हमें मालूम है उपरोक्त उत्तर अपूर्ण है, लेकिन चूँकि निश्चय समयग्दर्शन का स्वरूप केवल स्व में श्रद्धान बताया है इसलिए हमें श्रद्धा का स्वरूप भी वैसा ही भासित होता है। बाक़ी और शास्त्र में वर्णन कभी मिला तो और बताएँगे।

1 Like

It is such a pleasant feeling to be part of this discussion, specially bcoz this discussion is forcing each one of us to open and do मूल शास्र अभ्यास।

Let me restate the search we are into…
We want a direct support from mool shastra about
1 “केवल अहमपना”- “श्रद्धा केवल अहमपना करती है।”
2 “ज्ञान की अपेक्षा कहा गया है।”

Coz if we do not find these directly in मूल शास्त्र than we all agree that its an inference (निष्कर्ष) made and thus we need to validate the inference first before we accept it. Till than we must be careful that we do not start reading मूल गाथा from its lenses and missout of real essence of the गाथा.

Surprising, मोक्षमार्ग प्रकाशक- a grath which makes an attempt at stating all the possible inferences of मूल शास्त्र doesnt have above 2 inferences in it.

And if at all we are trying to infer it from the inferences given in मोक्षमार्ग प्रकाशक, than please be extra careful that it doesnt lead to स्व-वचन विरोध दोष for पंडितजी. He has been extremely alert in presenting his points. पूरा मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ ‘श्रद्धान’ ‘प्रतीति’ शब्दों से भरा पड़ा है और एक बार भी नहीं लिखा कि इस श्रद्धान शब्द को ज्ञान अपेक्षा जानना।

अब आप “ज्ञान अपेक्षा कहा है” ऐसा कहते है तो आप उनके हर कथन पर वह अपेक्षा लगा के देखिए कहीं उनका स्व-वचन विरोध ना हो जाए।

For example

मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 324 पर लिखा है कि

“इसलिए आश्रवादिक के श्रद्धानसहित आपापरका जानना व आपका जानना कार्यकारी है।”

“तत्वार्थ श्रद्धान किये बिना सर्व जानना कार्यकारी नहीं है, क्योंकि प्रयोजन तो रागादि मिटाने का है; सो आश्रवादिक के श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासित नहीं होता”

इन दोनों कथन में ज्ञान अपेक्षा श्रद्धान लगा के देखे।

Lets now move to understand what is व्यवहार-निश्चय सम्यक्त्व।

मोक्षमार्ग प्रकाशक पेज 330।

It says… सम्यग्दृष्टि जीव के देव-गुरु-धर्मादिकका सच्चा “श्रद्धान” है। उसी निमित्तसे… (देखो यहां निमित बताने के समय में भी नहीं कहा " सच्चा ज्ञान" है। “सच्चा श्रद्धान है” लिखा है।

यहाँ देव-गुरु की “श्रध्दा” को विपरिताभिनिवेश रहित श्रध्दान का कारण दिखाया है। श्रद्धा का ही पूर्व परिणमन (देव गुरु की श्रद्धा) पश्च्यात परिणमन (विपरिताभिनिवेश रहितपना) में निमित बनता दिखाया है। और क्योंकि वह निमित कारण है इसलिए व्यवहार नाम दिया है। परंतु वह भी श्रद्धा गुण का ही परिणमन है।)

पेज 331 में विचार की मुख्यता/अपेक्षा तत्वश्रद्धानी कहना तो व्यवहारसम्यक्त्व कहा है। मतलब, देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा तो श्रद्धान गुण का परिणमन है और उनके विचार, प्रवृति भी कारण बनते है इसलिए उसे भी व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। यानिकी ज्ञान को भी कारण उपचार से व्यवहारसम्यक्त्व कहा।

ज्ञान अपेक्षा से श्रद्धान तो नहीं, परंतु श्रद्धान का कारण बनने वाले ज्ञान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है।

शास्त्रो में नौ तत्व की श्रध्दा को कहीं व्यवहार सम्यक्त्व कहा है तो उन्हें ही निश्चय सम्यक्त्व का लक्षण भी कहा है।

अब यह किस तरह यह एकबार आपके पूर्व निष्कर्ष की ग्रंथि छोड कर जरूर विचार करे।

जाने हुए की श्रद्धा होती है, जब तक आत्मा जाना नहीं तब तक विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धान हुआ नहीं, जब जाना तब विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धान हुआ और तब निश्चय नाम पाया। उसकी मुख्यता तो पूरे समयसार में है, परंतु उसका अर्थ यह नहीं कि श्रद्धा में केवल आत्मा की ही श्रद्धा है। ऐसी विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धान में देव गुरु के श्रद्धान रूप परिणमन को कारणपना दिखाया है इसलिए उसे व्यवहार कहा है। है तो वह परिणमन श्रद्धा का ही।

आपने कलश 6 का मुख्य आधार दिया है। उसमें अपने आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना लिखा है उसमें स्व-पर की स्व-पर रूप श्रद्धा समाहित है। और कलश में ही लिखा है कि जिस आत्मा की श्रद्धा की है, वह कैसा है आत्मा? वह आत्मा अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त है। उसमें आठ तत्व समाहित हो गए। आपने ध्यान आकर्षित किया कि ‘नवतत्व की परिपाटी को छोड़ कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।’ शायद आपका ध्यान न गया हो तो, तो आप जरूर देखना कि - यह वाक्य छठवें गुणस्थान में आचार्य की प्रार्थनारूप है। आचार्य को तो सम्यग्दर्शन है ही, परन्तु नौ तत्व के जो विकल्प हैं उन्हें छोड़ना चाहते हैं।

उत्तर लंबा हो गया है, आशा है यह आपके लिए फलदायी बने। आभार।

2 Likes

@pannaजी आप स्वयम विचार कीजिये

सात तत्व = जीव,अजीव,आश्रव ,बंध, सँवर,निर्जरा,मोक्ष आदि का स्वरूप यह सब तो श्रद्धान का विषय कैसे बन सकता है।ज्ञान का ही विषय बनकर वस्तु स्वरूप को समझकर श्रद्धा उसमे अहम पीने का कार्य करती है।

1 Like

पन्ना जी, आपकी बात एकदम सही है। मैंने भी गत कुछ दिनो में मोक्ष मार्ग प्रक्षक अध्याय ९ पढ़ा और उसमें श्रद्धान के रूप में एकत्व के अलावा सही/ग़लत निर्णय की बात भी है (सात तत्व, देव-शास्त्र-गुरु इत्यादि)। इसलिए मुझे असमंजस है क्योंकि बाक़ी जो उदाहरण मैंने ऊपर लिखे थे उससे श्रद्धा का केवल एकत्व स्वरूप ही भासित होता है।

एक कदम पीछे लेकर मूल बात पर आते है। मिथ्यात्व का स्वरूप है

  • एकत्व
  • ममत्व
  • कर्तत्व
  • भोक्तृत्व

की सही या ग़लत मान्यता।

अब उपरोक्त चार भाव में एकत्व में तो कोई संदेह ही नहीं है की वह श्रद्धा का ही कार्य है। कर्तत्व भाव के उदाहरण में मेरे आज के ही स्वाध्याय में समयसार गाथा २५४-२५६ आयी, उसमें जयसेनाचार्य का निम्नलिखित अंश यहाँ पर एकदम प्रासंगिक है:

यहाँ पर आचार्य कहते है की तत्वज्ञानी को भी “मैं सुख-दुःख कर्ता हूँ” ऐसा विकल्प आता है लेकिन आने पर वह विचार कर्ता है कि मैं तो उसमें बस निमित्त मात्र हूँ।

विस्तार:

  • तत्वज्ञानी: श्रद्धा गुण का परिणमन निर्मल है
  • मैं सुख-दुःख कर्ता हूँ ऐसा विकल्प: माने कर्तत्व का विकल्प
  • मैं निमित्त मात्र हूँ ऐसा जानकर: ज्ञान में विचार, श्रद्धा में मैं जीव हूँ ऐसा एकत्व

उपरोक्त कर्तत्व के विकल्प को ही हम ममत्व और भोक्तृत्व पर भी लागू कर सकते है।

अर्थात् ऐसा भासित होता है कि एकत्व है श्रद्धा का कार्य। कर्तत्व, ममत्व, भोक्तृत्व है चारित्र गुण की विकारी पर्याय जो अज्ञानी और ज्ञानी दोनो को हो सकते है - और यही ज्ञान का विषय बन जाता है। लेकिन चूँकि ज्ञानी के एकत्व (श्रद्धा) में आत्मा स्वयं है, तो वह अपने ज्ञान को कि “मैं तो बस निमित्त मात्र हूँ” ऐसा करके निर्णय कर लेता है (जान लेता है), जो कि सम्यक् ज्ञान की पर्याय बन जाती है।

इसी दृष्टांत को यहाँ पर भी दृढ़ता मिलती है क्यूँकि नियमसार ने तत्तवार्थश्रद्धान को व्यवहार समयक्त्व कहा है लेकिन तत्तवार्थसूत्र के दूसरे स्त्रोत में तत्तवार्थश्रद्धान को समयक्त्व (निश्चय या व्यवहार उसमें explicit नहीं लिखा है) कहाँ है जो की व्यवहार का ही कथन है। इसी हिसाब से हम कह सकते है की पंडितजी ने भी श्रद्धान को उपचार से चारों भाव लिया है (एकत्व, ममत्व, कर्तत्व, भोक्तृत्व)।

1 Like

किशनजी आपने हमें कहा

तो हम विचार से ही प्रतिउत्तर दे रहे हैं।
–-----------–----------------------------------
हमने श्रद्धा में ‘निजतत्व में अहंपने’ का अस्वीकार नहीं किया।

परंतु केवल एक अहंपनेरूप ही श्रद्धा का परिणमन है और अन्य सभी तत्व का हेय-उपादेय, स्व-पर रूप श्रद्धान एवं देव-गुरु आदि श्रद्धान, ज्ञान का कार्य है श्रद्धागुण के परिणमन में नहीं - यह कहना उचित नहीं।

आप जो बात कर रहे हैं उसका आधार आपको नहीं मिला। हमें मिल गया। यहां प्रस्तुत भी कर रहे हैं। अब आप खास लक्ष करना कि वह शास्र में किसरूप लिखा है।

पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/
तत्त्वार्थों के विषय में सन्मुख बुद्धि श्रद्धा कहलाती है तथा उनके विषय में तन्मयता रुचि कहलाती है; और ‘यह ऐसे ही है’ इस प्रकार स्वीकार प्रतीति कहलाती है, तथा उसके अनुसार आचरण करना चरण कहलाता है।412। इन चारों में वास्तव में आदि वाले श्रद्धादि तीन ज्ञान की ही पर्यायें होने से ज्ञानरूप हैं तथा वचन, काय व मन से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण कहलाता है।413।

प्रथम तो यह लक्ष दीजिये की “केवल अहंपना” का कोई भी आधार मिला नहीं है। और नाही मिल सकता है क्योंकि ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं।

अब यहां पंचाध्यायी में दिए गए श्लोक में ज्ञान अपेक्षा की बात को शास्र किसरूप कह रहा है यह आप जरूर विचार करें।

इस श्लोक में ज्ञान के कार्य की बात की है, श्रद्धान के कार्य की नहीं, यह भूलना नहीं।

यह बात शुरू करने से पहेले शास्रकार ने गाथा 400-401 में कहा ही है कि “सम्यग्दर्शन वचन गोचर नहीं। आत्मा का ज्ञानगुण ही प्रसिद्ध है जो कि हरएक पदार्थ की सिद्धि करता है।”

इसलिए ज्ञान के कार्य को लक्षण बना के श्रद्धा का कार्य समझाते हैं। श्रद्धान में ये परिणमन है ही नहीं ऐसा नहीं कह रहे। ज्ञान के लक्षण से श्रद्धा के कार्य को समझा रहे है।

और गाथा 412-413 के पहेले “लक्षण की बात है” ऐसा स्पष्ट लिखा भी है।

और फिर भावार्थ में तो और भी स्पष्ट लिखा है कि ‘तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’ इस सूत्र में जो श्रद्धान का लक्षण है वह इस श्लोक में कही हुई श्रद्धा से सर्वथा भिन्न है।"

इसतरह यह स्पष्ट है कि तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् सूत्र से यह ज्ञान अपेक्षा वाली बात सर्वथा भिन्न है। वह सूत्र तो श्रद्धागुण के परिणमन का ही है।

इस तरह इस श्लोक के होने पर भी हमारी बात का विरोध कहीं नहीं आ रहा। बल्कि और अधिक स्पष्ट हो गया।

और आपने जो समयसार कलश 6 का आधार दिया था तो उसमें तो आत्मश्रद्धान में सात तत्व का श्रद्धान गर्भित ही है।

इसी के साथ, अब बात को और अधिक स्पष्ट करने के विकल्प को हम शांत करना चाह रहे हैं।

हमारे पूर्व के सारे उत्तर में अब आ रहे अन्य प्रश्न के उत्तर गर्भित हैं ही एवं हमारे विचार और शास्त्र आधार भी प्रस्तुत किये गए ही हैं। अधिक कुछ कहने जैसा अब रहा नहीं।

आभार।

2 Likes

इस पर आगे तर्क है। मान लीजिये श्रद्धा सारे कार्य करेगी ( अहम्, और जैसा है वैसा ही है अन्यथा नहीं, तत्व हेय-उपादेय है आदि).

अब इतना तय है कि जैसे ज्ञान एक समय में एक ही ज्ञेय को विषय बनाएगा, वैसे ही श्रद्धा एक समय में एक ही कार्य करेगी। या तो अहम् करना, या फिर हेय-उपादेय का निर्णय करना आदि। अब जिस समय वो हेय-उपादेय का निर्णय करती है, या अहम् के अलावा बाकि श्रद्धान रुपी कार्य करती है तो उस समय वो अहम् तो करेगी नहीं। अगर अहम् ही नहीं कर रही है तो बाकि निर्णय तो व्यर्थ है।

आपने यह तय कर लिया है कि

आपका पूरा तर्क/ प्रश्न उसी के आधार से है।

ज्ञान का विषय एक ज्ञेय होता है वह स्थुल कथन है। जो व्यक्ति शरीर को अपना जानता है, उस शरीर में अनेक पुद्गलद्रव्य हैं। और वह शरीर को ही नहीं, शरीर और आत्मा को एक करके जान रहा है। ज्ञान यदि एक ज्ञेय को ही जानेगा तो स्व-पर भेदज्ञान भी नहीं कर पायेगा। हेय-उपादेय भी एक साथ नहीं हो पायेगा।

श्रद्धा का कार्य आपको “केवल अहमपना” लगता है जो आगम आधार रहित आपके निर्णय में बैठ गया है। परंतु श्रद्धा का कार्य श्रद्धा करना है जिसमें अहंपना आदि कार्य अतरगर्भित हैं। जैसे एक आत्मा में हेय उपादेय सभी तत्व गर्भित हैं। एक आत्मा कि श्रद्धा में सब तत्व की श्रद्धा आ गई।

निर्विकल्परूप से ये कार्य होते है।

और एक बात

आप ज्ञान और श्रद्धा का अंतर इस तरह सोच के देखिए। कि विकल्प, मुख्य गौण, उपयोग लब्ध यह सब कार्य ज्ञान का है, श्रद्धा का नहिं। श्रद्धा में विकल्परूपता नहीं। ना मुख्य गौणता है। ना उपयोग लब्धता।

निर्विकल्पपने श्रद्धा में सब एक समय में हैं।

जैसे केवली के ज्ञान में मुख्य गौण, विकल्प या उपयोग लब्ध के भेद नहीं। परंतु निर्विकल्पता में एक साथ ज्ञान में सब हैं। श्रद्धा का स्वरूप ही निर्विकल्प है।

1 Like

अद्भुत अलौकिक अविश्वसनीय

1 Like

धन्यवाद.. .