युगल जी द्वारा लिखी चैतन्य कि उपासना में आया है (और काफी जगह भी आया है) कि जिन-प्रतिमा का बारम्बार प्रक्षाल करना अविवेकपूर्ण क्रिया के बराबर है। प्रक्षाल दिन में एक ही बार करने का शास्त्र प्रमाण है?
दूसरा प्रश्न है कि आजकल शांति-धार बहुत प्रचलित है। इसके बारे में लोगों क्या विचार है? मुझे सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है कि शांति-धार भी बारम्बार प्रक्षाल करने के बराबर ही है क्यूंकी प्रतिमा पर निरंतर जल-धार बहाना प्रतिमा को साफ रखने के प्रयोजन के लिए नहीं है। अगर काफी लोग शांति-धार कर रहे हो, तो वैसे ही बार बार अभिषेक करने का दोष आएगा ही।
शास्त्र प्रमाण तो ज्ञात नही, लेकिन यदि प्रक्षाल का औचित्य यदि ख्याल में आ जाये, तो ये भी ध्यान आ जाता है, कि एक ही बार करना उचित है, वह भी एक नियत समय पर।
इस संदर्भ में डॉ सुदीप जी दिल्ली, वालो ने भी एक शोधात्मक पुस्तक लिखी है, जो अवश्य पढ़ने योग्य है।
• शांतिधारा मूल में रोज-रोज करने का विधान नही है, महायज्ञ (पूजन/विधान) के पश्चात कुंड में धारा दी जाती है, अखण्ड रूप से, उसका नाम शांतिधारा है।
• शांतिधारा अपने यहाँ आयी है, लेकिन स्थान भिन्न है, जैनाचार्यों की बात को एकदम से ठुकराया नही जा सकता, एवं यंत्र पर भी शांतिधारा का विधान है।
• निषेध उस परम्परा का नही, निषेध उस परम्परा में होने वाली विकृति का है, कि इसके नाम पर जो लाखों रुपया इकट्ठा करने का जो व्यापार सा ही बन गया है, निषेध इस बात का है, कि इससे जीवन मे शांति आजायेगी, निषेध इस बात का है, कि इसको ही धर्म मानना, निषेध इससे अपने मिथ्यात्व के पोषण करने का है, निषेध विकृति के प्रचार-प्रसार का है।
• नही तो, अपने यहाँ पंच कल्याणकों में भी शांतिधारा होती है, ऐसा कुछ ही समय पहले मैंने जाना है, सो कह रहा हूँ।
विद्वज्जनों से चर्चा के पश्चात एक निष्कर्ष पर मैंने खुद को स्थापित किया हुआ है, आशा है आप उसकी समीक्षा करेंगें।
ऊपर अमन जी के कथन से थोड़ा बहुत तो स्पष्ट हुआ ही होगा, कि गंधोदक क्या वस्तु है।
• हम भगवान को स्पर्श नही कर पाए, इसलिए जिस जल से भगवान का स्पर्श हुआ, वह भी परम पवित्र हो गया है, ये भावना मुझे गलत प्रतीत नही होती, क्योंकि इसमें भगवान के प्रक्षालन की विशुद्ध भावना स्थित है।
• निषेध विकृति का है, अब वह चाहे किसी मे भी हो, - अनावश्यक बहुत जल से अभिषेक करना गलत है, क्योंकि उसमें फिर जिन संस्पर्शित नीर की भी अविनय है तथा अनर्थदण्ड का भी समावेश है।
• पूजा में इसका कोई प्रयोजन नही है, इसका प्रयोजन अभिषेक के पश्चात भी इसलिए है, क्योंकि पहले (समय) से ही अभिषेक कम जल से / एक ही व्यक्ति कर दिया करते थे, अब बाकी जो भगवान का अभिषेक देखने आए, तो उनकी भावना की पूर्ति हेतु उन्हें उस जल का स्पर्श तभी करा दिया जाता था।
• इसका ध्यान भी अवश्य रहे कि हमसे स्पर्श करते ही वह गंधोदक, गंधोदक नही रहा, क्योंकि भगवान से स्पर्शित नीर ही गंधोदक है, अन्य किसी से स्पर्श करने वाला नीर गंधोदक संज्ञा प्राप्त नही करता (इसकी समीक्षा अपेक्षित है) ।
• प्रयोजन तो उसका ही है, जिसका हृदय में बहुमान होगा, गंधोदक लेने के पश्चात यदि हर्ष ना हो, और ये समझकर गंधोदक लगाये कि मंदिर आये हैं, तो लगाना ही है, तो उसका कोई अर्थ/महत्त्व नही रह जाता।
यदि आगम की बात करें, तो प्रथमानुयोग के शास्त्रों में आता ही है,कि जन्माभिषेक के पश्चात देवगण उस गंधोदक को मस्तक पर धारण करते हैं। उसकी अविनय नही होने देते।