कारण कार्य और वस्तु-व्यवस्था

क्या निमित्त व्यवहार है और उपादन निश्चय है? या निमित्त व्यवहार नय का विषय है और उपादान निश्चय नय का विषय है? या निश्चय-व्यवहार कार्य को 2 प्रकार से देखने के नज़रिए हैं, कारण नहीं हैं?

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यह ज्यादा उचित है।

नयों के सम्बंध में एक वाक्य पढ़ा था कि ‘निश्चय और व्यवहार वस्तु (द्रव्य गुण पर्याय) और कार्यों/क्रियायों में नहीं अपितु ज्ञान और कथन मे लगते है।’

‘निमित्त उपादान’ की चर्चा वस्तु में होने वाले नवीन कार्य के सम्बंध मे कारण कार्य व्यवस्था का ज्ञान कराने के लिए है। तथा ‘निश्चय व्यवहार’ अध्यात्म मे प्रयोग किए जाते हैं और उनका प्रयोजन जीव को स्वानुभव कराने के लिए है।

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                    निश्चय व्यवहार के रूप में कार्य-कारण मीमांसा

यद्यपि कोई भी कार्य (पर्याय) अपनी योग्यता प्रमाण अपने समय पर होता हैं, तथापि कार्य होने के कारणो पर विचार करना सभी को इष्ट है।
सामान्यतः, कार्य के कारण (उपचाररूप कारण और अनुपचाररूप कारण ) निमित्त और उपादान के रूप में प्रस्तुत होते है। वहां, निमित्त को उपचाररूप कारण और उपादान को अनुपचाररूप कारण कहते हैं। उपचार में भी तारतम्यता होने से निमित्त कारण के अनेक भेद होते है, और अनुपचार में भी तारतम्यता होने से उपादान कारण के भी अनेक भेद होते है।
यहाँ, कार्य कारण से सदैव भिन्नाभिन्नरूप (भिन्न -अभिन्न) होता हैं । यदि कारण कार्य से सर्वथा भिन्न हो तो कारण-कार्य में कोई संबंध स्थापित नहीं होगा और यदि कारण कार्य से सर्वथा अभिन्न हो तो कारण ही कार्य बन जायेगा।

  1. जब भिन्नता को ध्यान में रखते हुए निमित्त को कार्य का कारण कहा जाता हैं, तब निमित्त को कार्य का कर्त्ता कहना व्यवहारनय का विषय बनता है और तभी व्यवहारनय से आलिंगित होने से वह निमित्त भी व्यवहार है। इस समय, उपादान को अभिन्नरूप देखने से उपादान निश्चयनय का विषय है।

  2. और जब अभिन्नता को ध्यान में रखते हुए निमित्त को कार्य का कारण कहा जाता हैं, तब निमित्त को कार्य का कर्त्ता कहना निश्चयनय का विषय बनता है और तभी निश्चयनय से आलिंगित होने से वह निमित्त भी निश्चय है। इस समय, अन्य पदार्थ को भिन्नरूप देखने से अन्य पदार्थ व्यवहारनय का विषय है।

  3. इसीप्रकार, जब भिन्नता को ध्यान में रखते हुए उपादान को कार्य का कारण कहा जाता हैं, तब उपादान को कार्य का कर्त्ता कहना व्यवहारनय का विषय बनता है और तभी व्यवहारनय से आलिंगित होने से वह उपादान भी व्यवहार है। इस समय, कार्य को ही कार्य से अभिन्नरूप देखने से कार्य स्वयं निश्चयनय का विषय है।

  4. और इसीप्रकार जब अभिन्नता को ध्यान में रखते हुए उपादान को कार्य का कारण कहा जाता हैं, तब उपादान को कार्य का कर्त्ता कहना निश्चयनय का विषय बनता है और तभी निश्चयनय से आलिंगित होने से वह उपादान भी निश्चय है। इस समय, निमित्त को भिन्नरूप देखने से निमित्त व्यवहारनय का विषय है।

यहाँ, कार्य के कारण को भिन्न-भिन्न नजरिये से देखने से वो कारण भिन्न-भिन्न रूप से निश्चय - व्यवहार को प्राप्त होते हैं।

जय जिनेन्द्र

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