पुनः सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप कहा।
सद्द्रव्यलक्षणम् || उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ||
- तत्त्वार्थ सूत्र, 5/29 और 5/30
क्या अस्तित्व और सत् में कुछ अंतर है? क्या? कैसे?
पुनः सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप कहा।
सद्द्रव्यलक्षणम् || उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ||
- तत्त्वार्थ सूत्र, 5/29 और 5/30
क्या अस्तित्व और सत् में कुछ अंतर है? क्या? कैसे?
वस्तु दिखाई देने वाले परस्पर विरोध धर्म वास्तव में एक दूसरे के सापेक्ष होते है दोनों ही धर्म एक गुण की पुष्टि करते है।
जैसे अस्तित्व नास्तित्व दोनों दोनों ही धर्म , वस्तु का सत को दर्शाते हैं।
जैसे सोने का हार सोने स्वरूप ही है अर्थात वस्तु इस स्वरूप ही है इतना ही दर्शाता है अस्तित्व धर्म मात्र इतना ही समजता है ।
और नास्तित्व धर्म यह हार तांबे स्वरूप नही है अर्थात वस्तु किसी अन्य स्वरूप नही है ।
इससे यह फलित होता है कि दोनो वस्तु की सत्ता मात्र को ही दर्शाते हैं।
इसमे हम सत को प्रमाण और अस्तित्व नास्तित्व को नय स्वरूप ग्रहण किया है।
उसी तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य को वस्तु के अंश स्वरूप को ग्रहण करना है और सत को प्रमाण स्वरूप में ग्रहण करना है।
आपके उत्तर के लिए धन्यवाद!
तो फिर सत्-असत् – ऐसा लक्षण कहने में क्या दोष है?
सत वस्तु का “है” पना दिखाता है अर्थात वस्तु है।
और असत वस्तु के अभाव ,विनाश अर्थात वस्तु है ही नहि,
इसको हम मानेगे तो द्रव्य का विनाश मानना पड़ेगा
यही मान्यता के ऊपर चार्वाक मत चलता है
जबकि वास्तव में द्रव्य का परिणमन होता है कभी भी नाश नही हो सकता।
असत – वस्तु के अभाव को नही, पर चतुष्टय की विवक्षित वस्तु में सत्ता नही है, इसे दर्शाता है ।
एवं असत भी तो वस्तु में सत रूप से विद्यमान है !! इसलिए सत् को लक्षण बनाया गया है ।
Pls correct if I am wrong.
शायद इसलिए कि अस्ति पक्ष की तो सीमा निर्धारित की जा सकती है, परन्तु नास्ति पक्ष की सीमा कैसे दिखाई जाए और फिर प्रश्न यह भी रहेगा की उस नास्ति में किसको ग्रहण किया जाए?
और जब बात लक्षण कि हो तो वह प्रसिद्ध भी होना चाहिए।
जी बिल्कुल, नास्ति के अंतर्गत तो सारा विश्व अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है , इसलिए भी कह सकते हैं कि सत् को ही लक्षण कहा है ।
लक्षण का लक्षण भी इसी प्रकार की बात कह रहा है ।-
" व्यतिकीर्ण-वस्तु-व्यावृत्ति-हेतुर्लक्षणम् । "
स्व-चतुष्टय को तो स्पष्ट कर सकतें हैं, परन्तु पर-चतुष्टय को कहाँ तक स्पष्ट करेंगे ?
पर चतुष्ट्य की अपेक्षा नास्तित्व धर्म मे की जाती है असत में नही,आप एक बार सप्त भंगी अछेसे पढ़ लेगें तो भाव ख्याल में आ जायेगा
अगर आप सप्तभंग की बात कर रहें हैं, तो स्याद् नास्ति* - वस्तु, पर अपेक्षा नही है, इसे ही तो स्पष्ट कर रहा है ।
नास्ति और असत दोनों पृथक है
दोनों की स्वरूप समान नही हो सकता।
हो नही सकता ?
Pls असत और नास्ति के भेद को स्पष्ट कीजिए ।
लेकिन जहाँ तक समझ आया है, असत और नास्ति एक ही स्वरूप वाले हैं ।
असत = अविद्यमान ,अभाव, उसका उत्पाद ही नही होता
नास्तित्व = अन्य द्रव्य रूप नही है अन्य द्रव्य से पृथकत्वता दर्शाता है।
परन्तु जब आप दोनों को define करेंगे , तो यही कहेंगे ना ! कि पर चतुष्टय का अभाव ।
नही
जैसे
जीव द्रव्य का कभी अभाव नही हुआ = असत रूप कथन
जीव ,पुद्गल रूप नही है - नास्ति कथन
असत में स्वयं के विनाश की बात होती है
नास्ति में अन्य द्रव्य की अपेक्षा कथन किया जाता है।
नास्तित्व और असत् में जैसे अंतर किया है, वैसे सत् और अस्तित्व में क्या अंतर करेंगे?
सत = सत्ता, सामान्य, द्रव्य , अन्वय, वस्तु, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य तीनो का युगपद प्रवृति सत है,
सत के अंदर वस्तु के सारे धर्म गर्भित हो जाते है जैसे नित्य अनित्य, अस्तित्व-नास्तित्व,भेद अभेद,
अर्थात सत प्रमाण स्वरूप है।
सत में महासत्ता, अवांतर सत्ता सभी आ जाते है।
अस्तित्व एक धर्म रूप है।यह एक नय का विषय है।यह वस्तु का एक अंश है,सामान्य गुण है।अस्तित्व द्रव्य का एक स्वभाव है ,यह निरपेक्ष है।
कई बार सत का प्रयोग अस्तित्व वाचक में भी होता है
जैसे सत घट, सत पट
सत का प्रयोग प्रशंसा वाचक में भी होता है - सतपुरुष
सत का अर्थ सुख भी होता है।
अस्तित्व गुण, अस्तित्व धर्म और अस्तित्व स्वभाव में भी अंतर होना चाहिए। इस पर भी प्रकाश डालिए।
यहाँ जितने शब्द का प्रयोग हो रहा है यह एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग हो सकते सभी में हमे अपेक्षा समझनी है।
जैसे अस्तित्व शब्द का प्रयोग सत की तरह भी और नास्तित्व का प्रयोग असत की तरह भी हो सकता है
सत का प्रयोग प्रमाण की अपेक्षा भी हो सकता है।
जैसे द्रव्य शब्द का प्रयोग 6 तरह कर सकते है।
सभी जगह पर अपेक्षा का फर्क है।
अस्तित्व गुण - काल अपेक्षा कथन करता है।
अस्तित्व स्वभाव या धर्म - वस्तु सवचतुष्टय की अपेक्षा अर्थात स्व द्रव्य,स्व क्षेत्र,स्व काल ,स्वभाव की अपेक्षा से सत है।
धर्म और स्वभाव में परिभाषा का भाव समान आता है।
परंतु
धर्म मे कथन परस्पर विरोध के साथ मे किया जाता है।
(अनेकांत - अनेक + अंत
अनेक - 2 अथवा अनंत
अंत - धर्म अथवा गुण
यहाँ पर धर्म 2 है जो कि परस्पर विरोधी होते है।
और गुण अनंत है।)
धर्म का कथन
वस्तु का कथंचित अस्तित्व भी है कथंचित नास्तित्व भी है।
अस्ति-नास्ति की दोनों का साथ मे कथन अपेक्षा कथन है।
स्वभाव के कथन में कोई अपेक्षा नही है।
आलाप पद्धति में सभी स्वभाव के सूत्र दिए है परंतु इसमे विरोध की अपेक्षा कथन नही है।अस्तित्व स्वभाव में जीव अपने स्वभाव से च्युत नही होता यही अस्तित्व स्वभाव है।
Jisme baate स्पष्ट हो उसके पिष्टपेषण से कृपया बचे ।
@Sanyam_Shastri ने पर्याप्त समाधान दे दिया ।
1 नास्तित्व को मानने पर अतिव्याप्ति होगी ।
2 पर सापेक्ष धर्म कहीं कहीं लक्षण बन सकता है, परंतु यहाँ वह इतरेतरदोषका जनक होगा ,
साथ ही पर का बोध “द्रव्यभिन्न” एसा होने पर पुनः द्रव्य क्या है यह शंका होगी जो आनन्त्य और असम्भव दोषों की जननी होगी ।
3 सत् /असत् अस्ति /नास्ति के पर्यायवाची हैं , अस्तित्व /नास्तित्व के नहीं ।
कुछ अन्य सुझाव
1 संक्षेपतम लिखने का प्रयास करे ।
2 उत्तर देने में या पूछने में त्वरा न करें । अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होने पर बात आगे बढ़ाए।
3 संस्कृत भाषा तथा न्याय सामान्य को प्रतिदिन ग्रहण करे , अपार लाभ का अनुभवी हूँ ।
Came across an interesting paper by Prof. Ana Bajželj which discusses the sūtra ‘saddravyalakṣaṇam’ in detail.