टोडरमलजी की 300वीं जन्मजयंती के अवसर पर उन्हीने जैनसमाज के साथ-साथ भारत के लिये अपना क्या योगदान दिया , इस विषय पर अपने भाव व्यक्त कर रहा हूँ ।
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हिंदी के आधुनिक रचनाकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का नाम सर्वोपरि है । इसमें कोई संदेह नही है ,कि वे निश्चित ही एक महान रचनाकार थे । परन्तु इतिहासज्ञों के इस भ्रम को मिटाने के लिए मैं कुछ अपनी बात प्रस्तुत करना चाहूंगा ।
आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व जब हिंदी एक नई ऊंचाई को छूने के मंजर पर खड़ी थी , तब ही जन्म हुआ
" आचार्यकल्प पण्डित श्री टोडरमलजी " का , इनका समय 1776-77 से 1823-24 माना जाता है ।उनसे पूर्व गद्य का हाल
टोडरमल जी के पूर्व रचित साहित्य का अनुशीलन
1.
आदिकाल - 1050 से 1375 तक
दसवीं शताब्दी में ‘रोड़ा’ नामक कवि ने ‘राउलवेल’ नाम की रचना में गद्य का प्रयोग किया ।
" एहु गौड़ तुहु एकु को पनु अउर वर…को…तईं सहूं या बालइ । जुणुणु मालवीय देसुहि आवन्तु आम्बदेउ जाउं ( जानु ) आपणा हथिआरहु भूलइ । इहां अम्हारइ दुभगी खौंप हरीउ भइ । ’
*12वीं शताब्दी में पण्डित दामोदर शर्मा ने
’ उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण ’ नामक रचना में गद्य का प्रयोग किया -
" वेद पढ़ब , स्मृति अभ्यासिब , पुराण देखब , धर्म करब "
*14वीं शताब्दी में ’ वर्णरत्नाकर ’ नाम की रचना प्राप्त होती है , जिसकी पंक्तियाँ एक शब्दकोश सी प्रतीत होती हैं -
" उज्ज्वल कोमल लोहित सम सन्तुल सालंकार पंचगुण सम्पूर्ण चरण अकठिन सुकुमार गज हस्त प्राय जानु युगल पीन मांसले कूर्म्म पृष्ठाकर श्रोणी गंभीर दक्षिणावर्त मंडिलाकृति नाभिक्षीण सुकुमार ललित तिनि गुण…"
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भक्तिकाल - 1375 - 1700
इस काल में भी हमे परिष्कृत गद्य के दर्शन प्राप्त नही होते है । रीतिकाल एक तुकमय , असाहित्यिक गद्य अधिक लिखा गया । वह भी स्वतंत्र रूप में कम , टीका, टिप्पणी और अनुवाद के रूप में अधिक है ।
भक्तिकाल में गद्य कथा , वार्ता , वर्णन , चरित्र ये ललित गद्यरूप और अललित गद्य के रूप में गुर्वावली , पट्टावली , वंशावली प्रश्नोत्तर , वचनामृत , पत्र , गोसट आदि प्राप्त होते हैं , तथा टिप्पण , टीका , बालावबोध के रूप में ही अधिकतम गद्य मिलता है ।
ब्रजभाषा के रूप में बनारसीदास जी की परमार्थवचनिका , मिथ्यात्वनिषेधन तथा उपादान चिट्टी प्राप्त होती है । साथ ही अन्य में ’ चौरासी वैष्णव की वार्ता ’ , ’ दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता ’ और ’ चौरासी वार्ता ’ ( 1640 ) उल्लेखनीय है । -
रीतिकाल - 1700 से 1900 तक
इस काल में भी पूर्वकाल के अनुसार ही गद्य रचनायें रची गयीं । टीका , अनुवाद स्वरूप जो गद्य प्राप्त होता है , वह तो अपने मूल संस्कृत आदि से भी कठिन हो गया है ।
इस तरह इतने वर्षों का जो भी गद्य प्राप्त होता है उसका कोई खास प्रभाव हमें दृष्टिगोचर नही होता है ।
अब हम पण्डित टोडरमल जी की बात करें , तो हिंदी गद्य के इतिहासकारों ने गद्य की समस्त विधाओं से युक्त प्राचीन से प्राचीन गद्य ग्रन्थ सन् 1800 ई. के बाद का होना बताया है , जबकि पंडित जी का रचनाकाल 1754 से 1767 ई. सन् है। अतः हिंदी गद्य के निर्माण एवं स्थिरीकरण में पंडित जी का प्रमुख योगदान स्पष्ट उभरकर सामने आता है ।
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तत्कालीन गद्य की तुलना में पंडित जी का गद्य कहीं अधिक परिमार्जित , सशक्त , प्रवाहपूर्ण और सुव्यवस्थित है।
यथा -
" ज्ञानी के भी मोह उदयतै रागादिक हौ है । यहु सत्य , परन्तु बुद्धिपूर्वक रागादिक होते नाही । सो विशेष वर्णन आगै करेंगे ।
( पृ - 304 मो. मा. प्र. ) -
पण्डित जी का गद्य प्राचीन साहित्य पर आधारित धार्मिक साहित्य है , इसलिए उसमे 75% तक संस्कृत , प्राकृत और उनकी परम्परा से विकसित शब्द हैं , साथ ही देशज , उर्दू और अरबी के कुछ शब्द उनके साहित्य में दृष्टव्य हैं ।
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पंडित टोडरमलजी द्वारा रचित ’ मोक्षमार्ग प्रकाशक ’ को हिंदी साहित्य के इतिहास में 19वीं शताब्दी से पूर्व की व्रजभाषा , फारसी , पंजाबी आदि से प्रभावित खड़ी बोली गद्य की महत्वपूर्ण मौलिक रचनाओं में स्थान दिया गया है तथा खड़ी बोली के विशिष्ट गद्यकारों में प● टोडरमलजी , प● दौलतराम जी , प● दीपचंद जी तथा प● टेकचन्द जी को भी स्मरण किया गया है ।
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पंडित टोडरमल जी की गद्य की विशेषताओं पर यदि हम दृष्टिपात करें , तो हम पाते हैं कि पंडित जी ने एक सामान्यजन दूसरे सामान्यजन से जिस शैली से बात में बात करता है , ऐसी आत्मीय शैली अपने गद्य में स्वीकार की है ।
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जैन साहित्य जगत में तो टोडरमल जी ने योगदान दिया ही है , परन्तु राष्ट्र के साहित्य अभिवर्धन हेतु भी टोडरमल जी का योगदान अविस्मरणीय ही रहेगा ।
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उनकी शैली में दृष्टान्तों का प्रयोग मणि-कांचन प्रयोग है ।
एक ही दृष्टान्त दूर तक चलाते चलते हैं और वह सांगरूपक की भी सीमाएं लांघ जाता है । -
विषय का विस्तार से वर्णन करने के बाद समाहार कर देते हैं।
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स्वयं शंका उठाकर समाधान प्रस्तुत कर देते हैं ।
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प्रत्येक बात तर्क की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करते हैं ।
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शंकाकार को बुद्धिमान , जिज्ञासु और बहुशास्त्राविज्ञ बनाते हैं ।
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जहां वे किसी के सामने होतें हैं , वहाँ शंकाकार के सामने प्रश्नों की बौछार कर देते हैं ।
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वे उतना ही लिखते है , जितना पाठक ग्रहण कर सके व समझ सके ।
ये कुछ तथ्य टोडरमल जी को जयपुर के ही नही , अपितु भारत के साहित्यिक विकास व निर्माणक्षेत्र में उनकी अहम् भूमिका को और अधिक बढ़ा देतें हैं ।
अगर हम टोडरमल जी की रचनाओं की ओर ध्यान दे , तो मालूम पड़ता है कि उन्होंने कितने काम समय में कितनी अधिक रचनाओ का कार्य कर समाज को अद्भुत बिधि उपलब्ध कराई है । -
1.समाज जागृति के प्रति बहुत बड़ा योगदान दिया है ।
सरस्वती विद्यालय - महिलाओं का विद्यालय , टोडरमल जी के मंदिर से ही वह संचालित होता था । इसका उल्लेख अंग्रेज़ी राजाओं ने भी किया ।
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आज जैन समाज बहुत हर्ष - उल्लास से श्रुत पंचमी का पर्व मनाता है ओरन्तु इसके इतिहास में जाएं तो ज्ञात होता है कि श्रुत पंचमी को मनाने की परंपरा भी टोडरमल जी के मंदिर से प्रारंभ हुई ।
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300 साल से प्रवचन की परम्परा , विश्व का एक मात्र मंदिर , श्रोता - वक्ता - विषय बदले , परम्परा बनी रही ।
नैतिकता-सदाचार-तत्त्वज्ञान को जीवंत रूप टोडरमल जी ने दिया
4.वचनिकाओं को लिखने की परंपरा - देशभाषा में लिखने के प्रति जागरूकता उत्पन्न की । उनका युग वचनिकाओं का युग था ,उन्ही के कारण पण्डित जयचंद जी छाबड़ा जैसे विद्वान उभर कर आये।
- टोडरमल जी ने समाज के क्षेत्र में बड़ी क्रांति की ।
6.भूत कालको वर्तमान से जोड़ा ।
संस्कृत - प्राकृत के ग्रंथों को अध्यनन में लाना ।
इस प्रकार मैं कह सकता हूँ कि यदि टोडरमल जी ने होते तो आज जैनसमाज परीक्षा-प्रधानी के सिद्धांतों पर कभी अमल नही कर पाता। धन्य हैं ऐसे विद्वान ! , धन्य है ऐसा धर्म !
लेखक - @Sanyam_Shastri Delhi