जीवत्व की पहचान में उपयोग का स्थान

आत्मानुभूति में आत्मा की सामान्य संवित्ति होती है या विशेष? सतर्क उत्तर दें

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(maybe) छद्मास्तो को बुद्धिगोचर राग-द्वेष बिना तो विशेष अनुभवन होना नहीं चाहिए अतः सामान्य।

रागद्वेष के बिना भी तो ज्ञान में विशेषता होती है। ज्ञान मात्र को भी तो विशेषात्मक ही कहा गया है। दर्शन को सामान्य

यहां पर हम सामान्य और विशेष दोनों कह सकते है।

अनुभूति के काल मे जीव ने सातो नयो को गौण करके परमशुद्ध निश्चित नय को मुख्य किया है,उस जीव ने साक्षात शुध्द निश्चय को भी गौण कर दिया है।इस अपेक्षा से हम विशेष कह सकते है।

जिस समय अनुभूति हो रही है उस समय जीव गुण भेद,( ज्ञान,दर्शन ,चारित्र) द्रव्य भेद , या पर्याय भेद ( मनुष्य,पुरुष,आदि)
भेद रूप अनुभूति नही होती अभेद रूप ही होती है।
इस अपेक्षा से सामान्य भी कह सकते है।

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Sir,

गौण किया नहीं जाता, हो जाता है; जैसे हमारा ध्यान कहीं से हट जाता है और दूसरी तरफ लग जाता है, तो कहा जाता है कि गौण किया; इसका सामान्य-विशेष से विशेष सम्बन्ध नहीं है।

कहने भाव यही था शब्द सही इस्तेमाल नही किया।
सामान्य = अभेद,
विशेष = भेद
क्या आप यही कहना चाहते हो ??
और कोई अपेक्षा हो तो बताये।

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मेरा प्रश्न है कि हमें अपनी आत्मा सामान्य रूप से ग्रहण होती है या विशेष रूप से!

सामान्य

इसमे आप सामान्य और विशेष का अर्थ
सामान्य - एक , अभेद
विशेष - भेद रूप , अनेक

इसी प्रकार लेना चाहते है?या अन्य कोई विवक्षा है?

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सूक्ष्मता की अपेक्षा - विशेष संवित्ति
स्थूलता की अपेक्षा - सामान्य संवित्ति

The underlying theory is: छद्मस्थ (क्षयोपशमिक ज्ञानधरी) को राग/द्वेष निरंतर चलते हैं (except ११वे, १२वे गुणस्थान) अतः आत्मानुभूति के साथ राग/द्वेष की विद्यमानता तो हैं परन्तु बुद्धि गोचर (ज्ञान का विषय) नहीं बनने के कारण आत्मा की सामान्य संवित्ति कहना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञान में पृथकत्व वीचारादि भेदो को घटाया जा सकता हैं (as explained in रहस्य पूर्ण चिट्ठी).

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Quite close.
Now tell me, if we have sthoolroop nirvikalpata then the anubhuti will be pratyaksh or paroksh? (As my question basically lies over what we know than how we know it?)

If you say paroksh because of matigyan’s definition, then this will contract with anubhav pratyaksh
If you say pratyaksh, how can it be sthool?

From the citation,

  1. How can the sukshmroop begin from 7th gunasthan?
  2. Does this mean that we can know our atmanubhuti and shreni people don’t?
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सामान्य और विशेष का निर्धारण मात्र एक द्रव्य के सम्बन्ध में ही नहीं होता… (जोकि आपने सही किया; सामान्य - अभेद, एक, उत्पाद-व्ययनिरपेक्ष, नित्य
विशेष - भेद, अनेक, उत्पाद-व्ययसापेक्ष, अनित्य)

सामान्य के 2 भेद और हैं - तिर्यक और ऊर्ध्वता

इसपर भी विचार करना अपेक्षित है।

Please read the questions again… They are yet to be covered despite an apt representation in Rahasyapurn chitthi.

इस विषय के ऊपर चर्चा करने से अच्छा लग रहा है।

अनुभव तो प्रत्यक्ष ही होगा।क्योंकि अनुभव के काल मे मन का अवलम्बन भी छूट जाता है।

करणानुयोग की अपेक्षा से 10 वे गुणस्थान तक कषाय पाई जाती है।इस अपेक्षा से स्थूल कह रहे है।

करणानुयोग की अपेक्षा 9 वे गुणस्थान तक मैथुन संबंधित कषाय पाई जाती है परंतु वह अबुद्धि पूर्वक केवलज्ञान गोचर है,इस अपेक्षा से शुद्धोपयोग नही कहा जा सकता परंतु आध्यत्म की अपेक्षा तो शुद्धोपयोग ही है।करणानुयोग में 11 वे गुणस्थान से शुद्धोपयोग कहा जाता है।

10 वे गुणस्थान तक स्थूल ही है।
Drvayanuyog = स्थूल
करणानुयोग = सूक्ष्म

इसके सम्बबन्ध में टोडरमल जी के विष रहस्यपूर्ण चिट्टी में भिन्न हैं। कृपया 2रा और 3रा पेज पढ़ें। वह प्रत्यक्ष कैसे है और परोक्ष कैसे।

मेरे हिसाब से 10वे तक का कारण टोडरमल जी स्वयं दिया है पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान।

ऐसा करणानुयोग में कहाँ लिखा है? हमने अपने बुद्धिगोचर होने न होने की दृष्टि से मान लिया है।

साथ ही गुणस्थान का विषय स्थूल रूप से द्रव्यानुयोग है, और सूक्ष्म रूप से करणानुयोग।

टोडरमलजी को पहले समझे/समझाए बिना किसी निष्कर्ष तक न पहुँचें।

प्रश्न यह है कि 7वें में तो मन्द कषाय है, 8वें में मन्दतम कषाय है इत्यादि… इसमें सूक्ष्मता से तो राग हुआ और स्थूलतया निर्विकल्पता, कैसे?

देखिए! यहाँ सूक्ष्म और स्थूल निर्विकल्पता की बात नहीं कही है बल्कि यह कहा है कि आत्मानुभूति के काल में निर्विकल्पता स्थूलरूप से ही है, सूक्ष्मता से देखें तो वहाँ भी राग ही है।

शुद्धोपयोग - शुद्ध है ध्येय जिसका उसे कहते हैं, न कि शुद्ध होगया है उपयोग जिस अवस्था में उसे; क्योंकि जहाँ से कषाय रहित/आवरण रहित शुद्धता होती है वह तो शुद्धोपयोग का फल है।

तो, सूक्ष्मता से देखें तो निर्विकल्पता (जोकि हमारे बुद्धिगोचर नहीं) 11-12 गुणस्थान से होती है; किन्तु जो निर्विकल्पता हमें पकड़ में आती है वह 4थे से प्रारम्भ होती है। (शुद्धोपयोग - शुद्ध ध्येय होने से, शुद्धात्म स्वरूप साधक होने से और शुद्ध अवलम्बन होने से उस उपयोग को शुद्धोपयोग कहा जाता है।)

यही निर्विकल्पता मोक्षमार्गियों का चिह्न है, न कि लौकिक सामाजिक निर्विकल्पता।

"अनुभव द्रव्य का या पर्याय का? स्वानुभूती में द्रव्य गुण पर्याय सब एकरस है। द्रव्य से भिन्न पर्याय का अनुभव नहीं, वैसे ही पर्याय से भिन्न द्रव्य का अनुभव नहीं।

जैसे अकेला नित्य तत्व या अकेला अनित्यतत्व कोई कार्यकारी नहीं (अर्थक्रिया कर शकता नहीं); नित्य-अनित्यात्मक तत्व ही अर्थक्रिया को करता है। वैसे स्वानुभूती क्रिया का भी जानना।" -ब्रह्मचारी हरिलाल जैन।

यह बात इस विषय के लिए उचित व तर्कयुक्त लगने से share की है।
अधिक जानकारी के लिए।

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अरिहंत अवस्था प्राप्ति से पहले वाला अन्तःमुहरत (क्षपक श्रेणी वाला)
इस अन्तःमुहरत मे जितने समय दर्शनोपयोग होगा उसमे सामान्य और ज्ञानोपयोग होगा उसमे विशेष।

इसमें आपका क्या कहना है?

बात सही है लेकिन फिर ऐसा क्यों कहते है कि दृष्टि केवल नित्य/ध्रुव पर रखो? क्या ऐसा होता है की दृष्टि ध्रुव पर होती है तो द्रव्य-गुण-पर्याय तीनो एक साथ अनुभव में आते है? दूसरा प्रश्न है कि सवानूभूति के काल में “ज्ञेय” कौन रहता है? त्रिकाली ध्रुव या द्रव्य-गुण-पर्याय?

“अनुभव” का मतलब क्या है? ज्ञान का ज्ञेय?

इसी में बस एक और addition, इस पर भी चर्चा हो तो विषय और स्पष्ट होगा।
12वे गुणस्थान तक ज्ञप्ति परिवर्तन भी रहता है। स्वानुभूति के समय भी होने वाले ज्ञप्ति परिवर्तन के साथ ध्रुव की दृष्टि किस प्रकार रहती है?

प्रथम तो जिस त्रिकाली ध्रुव पर लक्ष किया है वह नित्य परिणमन स्वभावी है या नहीं? इसपर बड़ी गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। यदि “वह कुटस्थ अपरिणामी है” - ऐसा निर्णय किया गया है तो फिर आपके प्रश्न का समाधान संभव नहीं। क्योंकि जैसे maths के कोई एक स्टेप पर गलत्ति हो और उस स्टेप को सुधारा ना जाए तो समाधानयुक्त उत्तर प्राप्ति संभव नहीं।

परिणाम स्वभावी स्वीकार में आ रहा हो तो ही आगे का लिखा हुआ आपके प्रश्न के समाधान प्राप्ति में उपयोगी होगा।

दृस्टि जिस ध्रुवद्रव्य पर है वह गुण-पर्याय रहित/सहित नहीं, वह गुणपर्याय का समूह नित्य ध्रुव द्रव्य है। इसीलिए उसके अनुभव में सभी गुण पर्याय का एकरस आस्वादन है।

यदि दृस्टि गुण पर्याय रहित कोई द्रव्य की हो और स्वाद में गुणपर्याय सहित द्रव्य का स्वाद आए, तो फिर तो ध्यान विचलित हो जाएगा। क्योंकि जिसे लक्षित किया है वह लक्ष की प्राप्ति नहीं हो रही। पर्याय रहित का नहीं, आनंदपर्याययुक्त का अनुभव हो रहा है। (अनुभव द्रव्य-पर्याय का ऊपर तर्क से समझाया गया है। जिसे आपने “सही है” कह कर स्वीकारा है।)

नजर द्वारा कुछ स्वरूप जानने में लेना चाह रहा है और आस्वादन द्वारा जानने में आ कुछ और ही रहा है। इसतरह तो निर्विकल्प जैन स्वानुभूती संभव नहीं बनती।

“incongruency between what is the aim and the experience.” Think on it… is that logical and a possible event?

Yeah, if the aim is on the one whole thing (गुण पर्याय के अनेकता से अनेकांतमय एक) and the experience is also of whole thing (एक रस)… that makes sense. Thats congruent and thus its an possible event.

If you are with me till now… Than let me make an attempt to take you further on this line of thinking…

उत्पादव्यययुक्त द्रव्य की नित्यता किस तरह ग्रहण की जाए? उत्तर है धाराप्रवाह से। धारा, नित्यता का द्योतक है। और वह धारा उसका स्वभाव कभी नहीं छोड़ती वह उसका ध्रुवपना है। जैसे ज्ञान की एक अखंड धारा उसकी नित्यता है और वह सदा ज्ञान स्वभावी ही है, कभी जड़ स्वभावी नहीं-वह हुई ध्रुवता।

प्रवाह शब्द में परिणाम गर्भित है परंतु मुख्य नहीं। प्रवाह शब्द में मुख्यता नित्य (त्रिकाल) स्वभाव की है और उस प्रवाह का जो ज्ञान स्वभाव लक्षण है उसको लक्षित करना है। आत्मा के परिचय के लिए लक्ष द्रव्य-गुण-पर्याय नहीं ज्ञानस्वभाव है। क्योंकि द्रव्य-गुण-पर्यायरूप सभी वस्तु है। इन सभी वस्तुओं में से हमारा लक्ष अपना आत्मा है जो अपने ज्ञान लक्षण से अन्य द्रव्यों से भिन्न लक्षित होता है। द्रव्य-गुण-पर्याय से नहीं।

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