जीव की पर्याय में हुए विभाव को पुद्गल का क्यों कहा?

मुझे लगा कि आपको इसका उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि जहाँ जहाँ णिच्छयेण या णिच्छयणयस्स लिखा है, वहाँ वहाँ यही अर्थ है। जैसे - गाथा 56।

साथ ही क्या आपको भेद-विज्ञान जो कि सम्पूर्ण जिनागम में मुक्ति की नींव है - व्यवहार नय का विषय लगता है?

क्या आत्मा और आस्रवों में भेद मानना व्यवहार नय का विषय है?

मुझे तो अब ऐसा लगने लगा है शक्कर खट्टी है।

मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि का ठप्पा आभिप्रायिक है, वचनिक नहीं - यह अनेक बार लिख चुका हूँ लेकिन आप कहीं अटके हुए हैं।

मेरा यह अन्तिम सन्देशा है - आप प्रारम्भ से ही लड़ने को उतारू थे और मैं समझा कि मुझे आपसे कुछ सीखने को मिलेगा।

साथ ही आपके अनेक प्रश्नों को नज़रंदाज़ इसलिए किया क्योंकि मैं भड़कने-भड़काने में विश्वास नहीं करता।

मैं क्षमावाणी तक का ईंतज़ार नहीं कर सकता, एतदर्थ मैं आपसे कहे शब्दों और रखे अभिप्रायों के लिए हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ।

जयदु जिणिंंदो।

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