डॉ. वीरसागर जी के लेख

संगोष्ठी का स्वरूप एवं महत्त्व

-प्रो. वीरसागर जैन

संगोष्ठी ज्ञानाराधना का उत्कृष्ट साधन है | वैसे तो ज्ञानाराधना के लिए अनेक साधन प्रचलित हैं- शिक्षण, प्रशिक्षण, प्रवचन, सभा, शाला, शिविर, सम्मेलन आदि; परन्तु जो बात संगोष्ठी में है वह अलग ही है | खासकर विद्वानों को अपना ज्ञान सुदृढ़ करने का जो अवसर संगोष्ठी में मिलता है, वह अन्य साधनों में नहीं मिलता | यही कारण है कि संगोष्ठी में मुख्यरूप से विद्वान् ही सम्मिलित होते हैं, सामान्य जनता को इसमें सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता | संगोष्ठी शब्द का अर्थ ही ऐसा है कि जिसमें गो अर्थात् विद्वान् ज्ञानाराधना की सम्यक् भावना से स्थित होते हैं, उसे संगोष्ठी कहते हैं | संगोष्ठी को ही सामान्यत: ‘गोष्ठी’ भी कह देते हैं, पर ‘संगोष्ठी’ शब्द में उसकी विशेष पवित्रता व्यक्त होती है |
दरअसल, जब विद्वान् लोग भी अपने पठित विषय पर ही एक बार पुन: अपने अन्य विद्वान् मित्रों के साथ बैठकर नये सिरे से गम्भीरतापूर्वक चिन्तन-मनन-मन्थन करते हैं तो उसे गोष्ठी, संगोष्ठी या विद्वत्संगोष्ठी कहते हैं |
संगोष्ठी में विद्वान् पूरी तरह निष्पक्ष निराग्रही बनकर अपनी बात प्रस्तुत करते हैं और फिर सभी को उस पर खूब ऊहापोह करते हुए बड़ी ही ईमानदारी से वैज्ञानिक की भांति स्वस्थ परिचर्चा करनी होती है | इसमें किसी तरह की कोई लज्जा, प्रतिष्ठा, जय, पराजय आदि का भी कोई स्थान नहीं होता | विषय को ईमानदारी से समझना ही इसका एक मात्र उद्देश्य होता है |
संगोष्ठी में कोई भी विद्वान् अपने मन की किसी भी शंका को निर्भय होकर प्रस्तुत कर सकता है और कोई भी विद्वान् उसका प्रामाणिक समाधान करने का प्रयत्न कर सकता है, पर कोई किसी पर किसी तरह का दबाव भी नहीं डाल सकता है |
संगोष्ठी की और भी अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ होती हैं, जिनसे विद्वानों का परमहित होता है और जो अन्य अनेक बड़े-बड़े साधनों में नहीं होती हैं | जैसे कि प्राचीन काल में एक शास्त्रार्थ होता था, परन्तु उसमें भी जय-पराजय की भावना होती थी, कई बार तो बड़े दंड एवं अपमानादि भी होते थे, परन्तु संगोष्ठी में ऐसा कुछ भी नहीं होता | यहाँ कभी किसी की कोई हार-जीत नहीं होती, अपमान, दंड आदि की बात तो बहुत ही दूर है |
इस प्रकार संगोष्ठी ज्ञानाराधना का एक बहुत ही उत्कृष्ट प्रकार है | इससे हमारे ज्ञान में निर्मलता, दृढ़ता आदि अनेक गुण विकसित होते हैं | हमें इसका अवश्य ही लाभ उठाना चाहिए |
आजकल समाज में संगोष्ठियों का प्रचलन तो बहुत हुआ है, हम उनके विरोधी भी नहीं हैं, पर वास्तव में वे सम्यक् गोष्ठी नहीं हैं, वे तो सामान्य शिक्षण शिविर जैसे ही हैं; क्योंकि उनमें भी वही धर्मप्रचार की भावना दिखाई देती है, वक्तागण स्वयं बात को समझने की बजाय दुनिया को उपदेश देने लगते हैं | जबकि संगोष्ठी में ऐसा बिलकुल नहीं होता, उसमें दुनिया को उपदेश नहीं दिया जाता, कोई धर्मप्रचार नहीं किया जाता, बल्कि पूरा जोर स्वयं के ही समझने पर होता है |
अत: हमें ऐसी सम्यक् गोष्ठियां अवश्य करनी चाहिए और हमने जैनदर्शन के जो अकर्तावाद आदि सिद्धांत सीखे हैं उनका शांतिपूर्वक गहराई से निरीक्षण, परीक्षण, समीक्षण करना चाहिए | इससे हमें बड़ा लाभ होगा | हमने इन सिद्धांतों को पढ़ या रट तो लिया है, पर हृदयंगम नहीं किया है | गोष्ठियां इस महान कार्य में हमारा अद्भुत सहयोग कर सकती हैं |

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