डॉ. वीरसागर जी के लेख

20. सदानन्द नगर की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट :arrow_up:

मैं एक पत्रकार हूँ। मुझे एक अद्भुत समाचार मिला है कि इसी पृथ्वी पर कही अत्यंत दूर सदानंद नाम का एक ऐसा नगर है जो ‘यथा नाम तथा गुण’ है । वहां सदा सभी को सभी प्रकार का आनंद उपलब्ध रहता है। कभी किसी को कोई कष्ट नहीं होता । वहां कभी कोई रोग, महामारी, दुर्भिक्ष आदि तो दूर, सर्दी, गर्मी, वर्षा की हीनाधिकता के भी कोई कष्ट नहीं होते; सदा ही सुरम्य वातावरण बना रहता है । समाज में भी छुआछूत, दहेज़, चोरी, बलात्कार, बेरोजगारी आदि किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं पाई जाती । परिवारों में भी कहीं कोई कलह नहीं होता, सब लोग सदा सबके अनुकूल ही रहते है । धन दौलत की दृष्टि से तो सर्व प्रकार की सम्पन्नता है ही ।
अतः मै कैसे भी बहुत कोशिश करके अपना माइक, कैमरा आदि लेकर इस नगर की एक एक्सक्लूसिव रिपोर्ट तैयार करने के लिए वहां पहुँच गया । वहां जाकर मैंने देखा कि वास्तव में ही वहां सर्व प्रकार का आनन्द है, कहीं किसी को कोई कष्ट नहीं है । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ | मैंने ऐसा नगर आजतक देखना तो दूर, सुना भी नहीं था। मुझे यहां बहुत अच्छा लग रहा था।
किन्तु यह क्या, यहाँ के लोग तो मुझे जैसे शांत और प्रसन्न होने चाहिए थे, वैसे नहीं दिखाये दे रहे हैं, अपितु बहुत ही अशांत और परेशान-से दिखाए दे रहे हैं । वे सब न जाने किस समस्या में उलझे हुए भागदौड़ में ही लगे हुए थे, उन्हें मुझसे बात करने तक की फुर्सत नहीं थी।
पर मैं तो पत्रकार था, किसी तरह कुछ लोगों को बात करने को तैयार कर लिया। एक व्यक्ति से मैंने पूछा- ‘‘महाशय, आप क्या करते हैं ? जरा कुछ अपने बारे में बताइये न ! ‘’
वे मुझे अपने एक भव्य कार्यालय में ले गए और अनेक साथियों के साथ सभागार में एकत्रित हो गए । फिर एक जन बोले- ‘’ देखिये पत्रकारजी, हम सभी काक-वर्ण-निवारण-समिति के सदस्य हैं, मैं अध्यक्ष हूँ और मेरे साथ ये सभी उपाध्यक्ष आदि अन्य पदाधिकारी एवं सदस्यगण हैं, हम कुल मिलाकर 80 लोग हैं और हमने आज से 50 वर्ष पहले अपनी इस काक-वर्ण-निवारण-समिति का गठन किया था। हमारी समिति का उद्देश्य है - कौए का रंग परिवर्तन करना । हम सभी चाहते हैं कि कौए का रंग अत्यंत उज्ज्वल धवल सफ़ेद होना चाहिए, काला होना ठीक नहीं है। हम सभी सदस्य पिछले 50 वर्षो से अनेक अनेक प्रयोगों के द्वारा अपने उद्देश्य की प्राप्ति में जुटे हुए हैं । हमने लाखों लीटर दूध से एक-एक कौए को रात-दिन दूध में रख-रख कर धोया है, अच्छी क्वालिटी के सफ़ेद पेंट से भी पोता है, तथा इसी प्रकार के और भी अनेक प्रयोग किये हैं । इस कार्य में अब तक 8000 करोड़ रूपये का बजट खर्च हो चुका है जिसे अगले वित्तीय वर्ष से और भी बढ़ाया जा रहा है । यद्यपि हमको अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है , परन्तु हमारे सभी साथी प्राण पण से जुटे हुए हैं , उन्हें अपने खाने-पीने, सोने तक की कोई चिंता नहीं है, वे रात-दिन निष्ठापूर्वक अथक परिश्रम कर रहे हैं । हमें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम एक दिन अपने उद्देश्य की प्राप्ति करने में अवश्य सफल होंगे ।’’
मैं इनकी बातें सुनकर स्तब्ध रह गया। सोचने लगा - ये कैसे लोग हैं, सदानंद नगर का सब सुख पास में होते हुए भी व्यर्थ ही इतने दुखी, अशांत, परेशान हो रहे हैं । मैंने उन्हें समझाना भी चाहा कि आप लोग क्यों व्यर्थ ही परेशान हो रहे हो, मस्त रहा करो, कौआ तो ऐसा ही होता है, होता था और होता रहेगा,यह उसका स्वभाव है ,इसे बदला नहीं जा सकता, आदि; पर वे मेरी कुछ भी सुनने तैयार नहीं थे, अतः मैं वहां से निकलकर एक दूसरे जनसमूह से बात करके स्थिति समझने की कोशिश करने लगा - ‘‘बंधुओ ! मैं पत्रकार हूँ और भारतवर्ष की राजधानी नई दिल्ली से आया हूँ, आप लोग किस भाग-दौड़ में लगे हैं , जरा कुछ अपने बारे में बताइये न!’’
उन्होंने बताया - ‘‘हम सभी नीम-रस-परिवर्तन-समिति के सदस्य हैं । हमारी संस्था बहुत पुरानी है, इसकी स्थापना आज से 99 वर्ष पहले हुई थी ।अगले वर्ष हम बड़े ही व्यापक स्तर पर इस संस्था का शताब्दी समारोह मनाने जा रहे हैं । हमारी संस्था का उद्देश्य है- नीम का रस परिवर्तन करना । नीम एक अत्यंत उपयोगी वृक्ष है, परन्तु कड़ुआ होने के कारण सभी लोग उसका लाभ नहीं उठा पाते हैं, अतः हमारी संस्था समस्त जनता के कल्याण के लिए उसे कड़ुए के स्थान पर मीठा बनाने के लिए कृत-संकल्प है और एतदर्थ अनेक योजनाएँ चला रही है । हमारी संस्था ने एक विशाल भूखंड पर नीम का बाग लगाया है और उसमें सैकड़ों वैज्ञानिकों को नियुक्त किया है । हम सब लोग खाना पीना सोना सब भूलकर, तन-मन-धन से इस कार्य में रात-दिन जुटे हुए हैं । हमने अनेक महान प्रयोग भी किये हैं । जैसे - हमने नीम को शुरू से ही पानी के बजाय चीनी से सींचने का प्रयोग भी किया है। यद्यपि अभी तक इस कार्य में हमें कोई सफलता नहीं मिली है, पर हमारे कार्यकर्त्ता हिम्मत हारने वाले नहीं है। हमने आम जनता के कल्याण का महान कार्य अपने हाथ में लिया है और उसे करके रहेंगे ।’’
‘‘अरे, ये तो यहाँ भी वैसा ही हाल है, ये लोग भी बड़े मूर्ख लग रहे हैं, व्यर्थ ही दुखी हो रहे हैं, इनको कौन कैसे समझा सकता है ?’’ - मैं सोचने लगा और आगे चल दिया।
आगे जाकर मैं एक अन्य दल से बात करने की कोशिश करने लगा - ‘‘मित्रो ! मैं पत्रकार हूँ, मुझे जरा अपने बारे में कुछ बताइए न !’’
वे बोले - ''हम सब सूर्य-दिशा-परिवर्तन-समिति के सम्मानित सदस्य हैं । हम सब निःस्वार्थ भाव से पूरे तन-मन-धन से रात-दिन जुटकर अपनी संस्था की सेवा करते हैं । हमारी संस्था एक बड़े ही महान उद्देश्य से स्थापित की गई है। इसका उद्देश्य है - सूर्योदय की दिशा परिवर्तन करना । दरअसल बात यह है कि सूर्य प्रतिदिन एक पूर्व ही दिशा से उदित होता है और यह बात न्यायोचित नहीं है। इससे अन्य दिशाओं का अनादर भी होता है और उन दिशाओं में रहने वालों को भी सूर्य का समुचित लाभ नहीं मिल पाता है । हम चाहते हैं कि सूर्य क्रम-क्रम से एक-एक हफ्ते के लिए सभी दिशाओं में उदित हुआ करे, ताकि सबका समान रूप से भला हो । हमारी संस्था ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अब तक हजारों विमान बनाकर आकाश की ओर भी भेजे हैं, जिनमें हमारी धनहानि ही नहीं, जनहानि भी बहुत हुई है, परन्तु फिर भी हमारे एक भी कार्यकर्त्ता का उत्साह शिथिल नहीं हुआ है, सब लोग अपना सर्वस्व समर्पित करके भी, जान देकर भी इस उद्देश्य की प्राप्ति करने हेतु कृत-संकल्प हैं। हमें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि एक-न-एक दिन इस कार्य में सफलता अवश्य मिलेगी । ‘’
मेरे मुँह से निकल पड़ा- हे भगवान ! और जैसे-तैसे अपने को संभालकर मैं आगे बढा। कुछ देर बाद सोचा - एक और दल से बात करके देखा जाए - ‘‘मान्यवर, आप लोग करते हैं, जरा कुछ अपने विषय में बताइये न ?’’
पर उनकी कहानी भी ऐसी ही निकली - ‘‘हम सब लोह-जल-तारण-समिति के सदस्य हैं । हमने अपना पूरा जीवन 24 x 7 अपनी समिति के लिए समर्पित कर रखा है। हमारी समिति का पावन उद्देश्य है - लोहे को भी लकड़ी की तरह पानी में तिराना । हमारा सोचना है कि जब लकड़ी पानी में तैर सकती है तो लोहा क्यों नहीं ? उसे भी तैरना चाहिए । पक्षपात क्यों ? हम यह पक्षपात सहन नहीं करेंगे । और इसीलिए हमारी इस समिति की स्थापना हमारे पूर्वजों ने की है। हमारी समिति अत्यंत प्राचीन है और अब तक अनेक कीर्तिमान स्थापित कर चुकी है, बड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त कर चुकी है, वर्ल्ड रिकॉर्ड बना चुकी है । ये देखिये, ये जो ऊपर लगे हैं, ये सब हमारे पूर्व पदाधिकारियों के चित्र हैं ।
इन्होंने समिति के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपने प्राणों तक को न्योछावर कर दिया था । भारत सरकार ने इन्हें मरणोपरांत स्वर्णपदक आदि प्रदान करके सम्मानित किया है । हमारे नए युवा कार्यकर्ता भी अपने पूर्वजों के पद-चिह्नों पर चलते हुए समिति के उद्देश्य को पूर्ण करने में जी जान से जुटे हुए हैं । उन्हें अपने तन-मन, घर-परिवार आदि की कोई
परवाह नही है। वे लोहे को पानी में तिराने के लिए गहरे पानी में भी कूदने का जोखिम उठा रहे हैं । यद्यपि इसमें हमारे अनेक कार्यकर्ता शहीद हो चुके हैं और हमें अपने उद्देश्य में भी अभी तक कोई ख़ास सफलता भी नहीं मिली है, लेकिन हम निराश नहीं हुए हैं | हम जब तक अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर लेंगे, तब तक चैन की साँस नहीं लेंगे। इंकलाब ज़िंदाबाद !’’
मैं सोचने लगा- हे भगवान, इतनी बड़ी-बड़ी बातें और वे भी बिलकुल व्यर्थ ! सब सुख होते हुए भी महादुखी! दुःख का कारण हो और व्यक्ति दुखी हो तब तो कोई बात भी है, पर सर्व प्रकार का आनंद होते हुए भी, सदानंद नगर में रहते हुए भी जो इतना अशांत हो, उसका क्या किया जाये ? कदाचित् कोई समझाने वाला मिले तो भी जो न सुने-समझे, उसका क्या जाये ? उसे सुखी कौन करे?
और मैं भारी मन से दिल्ली लौट आया।

3 Likes

21. उत्तम विद्यार्थी के षट् आवश्यक :arrow_up:

अध्ययनं श्रवणं भक्त्या, स्मरणं पृच्छनं पुनः |
लेखनं पाठनञ्चापि, षट्कर्माणि दिने दिने ||

यह श्लोक मैंने स्वयं अपने प्रिय विद्यार्थियों के लिए लिखा है | इसका आशय संक्षेप में इस प्रकार है कि प्रत्येक विद्यार्थी को उच्च कोटि का विद्वान् बनने के लिए निम्नलिखित षट् आवश्यकों का नित्य पालन करना चाहिए – अध्ययन, श्रवण, स्मरण, पृच्छन, लेखन और पाठन |
प्रायः देखा जाता है कि कुछ विद्यार्थी सुनते तो बहुत हैं, पर हमेशा केवल सुनते ही सुनते रहते हैं बस, कभी मूल ग्रन्थों को उठाकर आद्योपांत पढ़ते नहीं हैं, जबकि पढ़ने से ही मूल विषयवस्तु सांगोपांग भलीभांति समझ में आती है | अत: उत्तम विद्यार्थी का प्रथम आवश्यक कर्म है कि वह नित्य कुछ क्रमबद्ध रीति से अध्ययन करे | शास्त्रों का निर्दोष वांचन करे | इससे विद्यार्थी में अनेक गुण विकसित होते हैं |
इसी प्रकार कुछ विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो पढ़ते तो हैं, पर हमेशा पढ़ते ही पढ़ते रहते हैं, कभी किसी विद्वान् को सुनते नहीं हैं, जबकि ज्ञानी जनों को सुनने से बहुत गहरा ज्ञान प्राप्त होता है | अत: उत्तम विद्यार्थी का यह भी एक आवश्यक कर्म है कि वह नित्य गुरुजनों के व्याख्यान आदि का कुछ श्रवण भी अवश्य करे | इससे भी विद्यार्थी में अनेक गुण विकसित होते हैं |
कुछ विद्यार्थी पढ़ते भी हैं, सुनते भी हैं, पर कभी कुछ लक्षण, परिभाषा, गाथा, श्लोक आदि कुछ कंठस्थ नहीं करते हैं | यह बहुत बड़ी कमी है | इसके कारण वे विषयवस्तु की ठीक से परीक्षा, तुलना आदि नहीं कर पाते हैं | पिछला पाठ याद रहे तभी अगला ठीक से समझ में आता है | अत: स्मरण भी उत्तम विद्यार्थी का एक आवश्यक कर्म है |
कुछ विद्यार्थी पढ़ते भी हैं, सुनते भी हैं, कुछ-कुछ स्मरण भी करते हैं, पर कभी कुछ पूछते ही नहीं हैं | या तो वे बहुत संकोची होते हैं या विषय पर गहरा चिन्तन ही नहीं करते हैं | ऐसे ही शांत, उदास भाव से सब कुछ पढ़ते-सुनते रहते हैं, उन्हें कभी कोई जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं होती | परन्तु इससे उनके अंतर्मन की शल्य दूर नहीं होती | अत: संकोच छोडकर सक्रिय होकर बारम्बार अनेक प्रश्न पूछना चाहिए | इससे विषय स्पष्ट होता है|
कुछ विद्यार्थी पढ़ते भी हैं, सुनते भी हैं, स्मरण भी करते हैं, पूछते भी हैं, पर कभी कुछ लिखते नहीं हैं, इसलिए उन्हें अपने ज्ञान का कच्चापन पता नहीं चलता है | किसी भी विषय को जब हम स्वयं लिखने बैठते हैं, तब हमें पता चलता है कि हम कितने गहरे पानी में हैं | अत: प्रतिदिन थोड़ा बहुत लिखना भी अवश्य चाहिए | लिखने से हमारा ज्ञान सुव्यवस्थित होता है | अत: लेखन को भी उत्तम विद्यार्थी का एक आवश्यक कर्म ही समझना चाहिए |
कुछ विद्यार्थी पढ़ते भी हैं, सुनते भी हैं, स्मरण भी करते हैं, पूछते भी हैं, लिखते भी हैं, पर कभी कुछ दूसरों को पढ़ाते नहीं हैं, किन्तु मेरे खयाल से पढ़ाना भी उत्तम विद्यार्थी का एक आवश्यक कर्म है, क्योंकि पढ़ाने से विद्या बहुत वृद्धिंगत होती है | पढ़ाना पढ़ने का ही एक उत्तम प्रकार है- Teaching is the best way of learning.
इस प्रकार मेरा अनुभव है कि जो विद्यार्थी उक्त षट् आवश्यक कर्मों का सेवन करेगा वह निश्चय ही उच्च कोटि का विद्वान् बनेगा और भलीभांति स्व एवं पर दोनों का हित सम्पादन करेगा | ऐसा विद्यार्थी जगत् में मंगल स्वरूप होगा, परमपूज्य बनेगा | ऐसे विद्यार्थी को मेरा भी विनम्र प्रणाम हो |

6 Likes

22. ध्यान का फल :arrow_up:

जैन ग्रंथों में ध्यान के विषय को अधिकार-चतुष्टय के माध्यम से समझाया गया है- १. ध्यान, २. ध्याता, ३. ध्येय और ४. ध्यानफल | इन सभी में, विवक्षावश, असंख्य आयाम स्पष्ट किये गये हैं, अतः सामान्य जन बड़े भ्रम में पड़ते दिखाई देते हैं | उन्हें समझ में नहीं आ पाता कि कौन सी बात सही है- वह या यह; किन्तु यदि हमें भ्रम-रहित सम्यक ज्ञान करना हो, तो समंतभद्रादि आचार्यों द्वारा प्रदत्त यह कुतुबनुमा (दिशा-बोधक-यंत्र) सदैव अपने पास रखना चाहिए कि जिनवाणी में प्रत्येक कथन मुख्य-गौण-विवक्षा से ही होता है और उस (मुख्य-गौण-विवक्षा) को समझे बिना जिनवाणी के एक भी वाक्य को समझना संभव नहीं है |
ध्यान, ध्याता, ध्येय एवं ध्यानफल- इन चारों के विषय में कही गयी भिन्न-भिन्न विरोधी-सी बातें मुख्य-गौण-विवक्षा का ही परिणाम है | जैसे-
ध्यान तो पूर्ण निर्विकल्प शुद्धोपयोग रूप दशा का ही नाम है, इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है; किन्तु मन्त्रजाप, पूजा-पाठ आदि कारण को भी कारण कहने की विवक्षा के समान उपचार से ध्यान कहा है | सो ठीक ही है | उदाहरणार्थ- हमें किसी व्यक्ति को मुंबई भेजना था और वह दूरी के डर से जा नहीं रहा था, अतः हमने उससे कहा- नागपुर जाओ | उसका डर कुछ कम हुआ, पर वह नागपुर भी नहीं जा रहा था, अतः उससे फिर कहा- भोपाल तो जाओ | उसका डर और कम हुआ, पर वह भोपाल भी नहीं जा रहा था, अतः उससे कहा- ग्वालियर जाओ, पर वह ग्वालियर भी नहीं जा रहा था, अतः उससे कहा- आगरा या मथुरा तो जाओ, पर वह घर की आसक्ति के कारण आगरा या मथुरा भी नहीं जा पा रहा था | अतः अंत में उससे इतना ही कहा कि- घर से तो बाहर निकलो | यहाँ यद्यपि घर से निकलना मात्र था, मुंबई तो बहुत दूर की बात है, किन्तु वह घर से तो निकला, अब शायद आगे भी बढ़ जाएगा –यही सोचकर उसकी प्रशंसा की जाती है । इसी प्रकार आगरा, ग्वालियर, भोपाल, नागपुर तक चला जाना भी मुंबई जाना नहीं है, पर उनमें मुंबई जाने का अवसर है, उनसे मुंबई पास होती जाती है; अतः इन सबको मुंबई जाना कह देते हैं | इसी प्रकार ध्यान की विविध तर-तम भाववाली निम्न-उच्च दशाओं को भी जिनवाणी में ध्यान ही कह दिया गया है |
इसी प्रकार उत्कृष्ट ध्याता तो उत्तमसंहननधारी महामुनि ही हैं, पर तर-तम भाव से साधारण श्रावक को भी ध्याता कह देते हैं | जहाँ गृहस्थ के ध्याता होने का निषेध हो, वहाँ उत्कृष्ट ध्याता की विवक्षा है- ऐसा समझ लेना चाहिए |
इसी प्रकार ध्येय तो एक निज आत्म-तत्त्व ही है, परन्तु प्राथमिक दशा की विवक्षा से पञ्च परमेष्ठी, जिन-प्रतिमा, मन्त्र-वाक्य आदि बहुत-सी चीजों को भी ध्येय कह दिया जाता है |
इस प्रकार सर्वत्र मुख्य-गौण-विवक्षा को घटित करते हुए ध्यान, ध्याता, ध्येय आदि सभी विषयों का निर्भ्रान्त ज्ञान करना चाहिए |
प्रस्तुत आलेख में हम ध्यान के फल को भी इसी आगमानुकूल पद्धति से समझने का प्रयास करेंगे |
ध्यान का वास्तविक फल तो मोक्ष है | मोक्ष अर्थात ‘कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः’| दूसरे शब्दों में कहें तो मोक्ष का अर्थ है- कुछ भी नहीं, सबका अभाव, सब कर्मों का अभाव | तात्पर्य यह है कि ध्यान का वास्तविक फल तो ध्यान ही है, अन्य कुछ नहीं; उसी प्रकार जिस प्रकार ज्ञान का पारमार्थिक फल ज्ञान ही माना है-
ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् |
अहो मोहस्य माहात्म्यं यदन्यदपि मृग्यते ||
-आत्मानुशासन,१७५

ध्यान का फल अन्य कुछ भी मानना अज्ञानता है, मोह का माहात्म्य है। यदि ध्याता को ध्यान से अन्य कुछ फल की इच्छा ही बची रह गयी, तो वह ध्यान किस बात का ? सर्व-इच्छाओं के अभाव का नाम ही तो ध्यान है और यही ध्यान का वास्तविक फल है | इच्छा वालों को भी मोक्ष मिलता होता, तो मोक्ष की इच्छा वालों को मोक्ष का अपात्र क्यों माना जाता ? यथा-
“न मोक्षोsपि मुमुक्षुताम् |” - समयसार-कलश, १९९

“मोक्षेsपि यस्य नाकांक्षा स मोक्षमधिगच्छति |” - स्वरूपसंबोधन, २१
ध्यान के फल की ऐसी स्थिति अत्यंत स्पष्ट होने पर भी शास्त्रों में ध्यान के नाना प्रकार के फल बताये गए हैं- शारीरिक, मानसिक आदि, जो सब प्रायः लौकिक ही हैं | प्रश्न है कि ध्यान का वास्तविक फल कौन सा है- पारमार्थिक या लौकिक?
उत्तर – किन्हीं आचार्यों ने इन दोनों का समन्वय बनाकर बात कही है कि ये दोनों ही ध्यान के फल हैं | यथा-

  1. यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौ कियद्दूरवर्तिनी | यो नयत्याशु गव्यूतिं, क्रोशार्धे किं स सीदति || - इष्टोपदेश 4
  2. ॐकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥
  3. धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण |
  4. भुक्ति-मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर || -चौबीसीपूजा,द्यानतराय

तथापि प्रश्न तो बना ही रहता है कि एक ध्यान के ऐसे दोनों फल कैसे हो सकते हैं ? लौकिक भी और अलौकिक भी ? तो इसका उत्तर आचार्यों ने मुख्य-गौण-विवक्षा लगाकर इस प्रकार दिया है कि पारमार्थिक फल तो ध्यान का मुख्य फल है और लौकिक फल ध्यान का गौण फल है ।
इस बात को यदि और स्पष्टता से कहना हो तो हम कह सकते हैं कि एक ध्यान का प्रयोजन है और दूसरा ध्यान का फल | ध्यान का प्रयोजन और ध्यान का फ़ल- इन दोनों में बडा अन्तर है और उस अन्तर को समझना बहुत आवश्यक है | बहुत लोग उसे नहीं समझ पाते हैं और भूल करते रहते हैं।
ध्यान का प्रयोजन= उद्देश्य।
ध्यान का फ़ल= परिणाम।
जिसके लिए ध्यान किया जाता है, वह ध्यान का प्रयोजन है और जो कुछ ध्यान के परिणाम-स्वरूप स्वतः ही प्राप्त हो जाता है, वह ध्यान का फ़ल है।
उदाहरणार्थ खेती करने पर किसान को दो चीजें मिलती हैं- धान भी और भूसा भी, परन्तु इनमें से धान तो खेती का प्रयोजन है और भूसा खेती का फ़ल। क्योंकि किसान धान के लिए खेती करता है, भूसे के लिए नहीं; भूसा तो उसके साथ स्वतः ही मिल जाता है।
अब यहाँ जरा सोचिए कि यदि कदाचित कोई किसान मात्र भूसे के लिए ही खेती करे तो क्या होगा? उसे धान तो बिलकुल मिलेगा ही नहीं; भूसा भी उत्तम और वैसा(quality & quantity) नहीं मिलेगा। अतः सभी समझदार किसान धान के लिए ही खेती करते हैं, भूसे के लिए खेती कोई भी किसान नहीं करता ।
उसी प्रकार सभी समझदार (सम्यग्दृष्टि) ध्याता पारमार्थिक फ़ल, जिसे हमने ऊपर ‘प्रयोजन’ की संज्ञा दी है, उसके लिए ही ध्यान करता है । कोई भी ध्याता लौकिक फ़लों के लिए ध्यान नहीं करता । यदि कदाचित करे तो उसे लौकिक फ़ल भी उतना और वैसा नहीं प्राप्त होगा । तथा वह विवेकी ध्याता भी नहीं कहा जा सकेगा, अविवेकी ध्याता ही कहलायेगा ।
अतः आचार्यों ने शास्त्रों में ध्यान के विविध लौकिक फ़लों को बताया तो है, पर उन्हें चाहने या उनके लिए ध्यान करने का सख्त निषेध भी किया है । यथा-
"इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इतः पिण्याकखण्डकम्।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये, क्वाद्रियन्तां विवेकिनः॥"-इष्टोपदेश,२०

अर्थात्- एक ओर दिव्य चिन्तामणि है और दूसरी ओर खली का टुकडा; ध्यान के द्वारा जब ये दोनों ही मिल सकते हैं तो बताओ, विवेकी जीव किसे चाहेंगे?
दरअसल कुछ भी चाहने से सारी बात खराब हो जाती है, उलटी हो जाती है, लोक में भी चाहने को बुरा कहा जाता है-
“बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख ।”
पं. टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक में लौकिक फ़ल को बताकर उसे चाहने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है, जो वहाँ पृष्ठ १०-११ पर मूलतः पठनीय है । तथापि उसकी निष्कर्षभूत दो पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत की जाती हैं-
“बहुरि इस (लौकिक) प्रयोजन के अर्थ अरिहंतादि की भक्ति किए तीव्र कषाय होने तैं पाप-बन्ध ही हो है, तातै आपको इस प्रयोजन का अर्थि होना योग्य नाहीं । अरिहंतादि की भक्ति करने तैं ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव सधै हैं ।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि मुख्य-गौण-विवक्षा का कुतुबनुमा हाथ में लेकर हम आगम-महासागर को आसानी से पार कर सकते हैं ।

2 Likes

रामकथा के विशिष्ट प्रयोग :arrow_up:

-प्रो. वीरसागर जैन

रामकथा एक उच्च कोटि का काव्य है, अत: उसमें अनेक आलंकारिक या साहित्यिक प्रयोग हुए हैं; परन्तु जो लोग अलंकारादि रूप साहित्यशास्त्र को नहीं समझते हैं, वे भारी भ्रम में पड़ जाते हैं; अत: आइए रामायण के कतिपय विशिष्ट प्रयोगों को ठीक से समझने का संक्षिप्त प्रयास करते हैं | हमारा यह प्रयास सर्वथा काल्पनिक नहीं है, अपितु भाषाशास्त्र एवं अन्य अनेक रामायण-विषयक ग्रन्थों पर आधारित है | यथा-

1. रावण के दस सिर होना- रावण के वास्तव में ही दस सिर नहीं थे, अपितु वह बहुत अभिमानी था, अत: उसे दस सिर वाला कहा गया| अथवा वह बहुत बुद्धिमान था, अत: उसे दस सिर वाला कहा गया| अथवा उसके गले में दस मणियों एक ऐसा हार था जिसमें उसके दस मुख दिखाई देते थे, अत: उसे दस सिर वाला कहा गया |
2. रावण का राक्षस होना- रावण वास्तव में राक्षस नहीं था, मनुष्य ही था, किन्तु उसके वंश का नाम राक्षस था, अत: उसे संकेत में ‘राक्षस’ कहा जाता था |
3. हनुमान आदि का वानर होना- हनुमान आदि भी वास्तव में वानर (बन्दर) नहीं थे, मनुष्य ही थे, हनुमान तो सर्वांग सुन्दर थे, कामदेव थे, किन्तु उनके वंश का नाम वानर था, उनकी ध्वजाओं में वानर का चिह्न था, अत: लोग उन्हें संकेत में ‘वानर’ कहते थे |
4. हनुमान का हवा में उड़ना- हनुमान के पिता नाम पवन या पवनंजय था, अत: उनको पवनसुत या पवनकुमार कहा जाता था और इसी आधार पर उन्हें हवा में उड़ने वाला कहा जाता था | मारुतिनंदन का अर्थ भी पवनसुत या पवनकुमार ही है | उनका अंग (शरीर) वज्र के समान शक्तिशाली था, अत: उन्हें बजरंग बली भी कहते हैं |
5. पहाड़ उठाकर लाना- हनुमान सचमुच ही पहाड़ उठाकर नहीं लाये थे, अपितु समय की कमी और परिस्थिति की गम्भीरता को समझते हुए पहाड़ पर उपलब्ध सभी प्रकार की वनस्पतियों को भारी मात्रा में ले आये थे, अत: लोगों ने कहा कि हनुमानजी तो पूरा पहाड़ ही उठा लाये | उसीप्रकार, जिसप्रकार कि यदि हम कभी बहुत अधिक सब्जियां खरीदकर घर ले आते हैं तो पत्नी कहती है कि आज तो पूरी सब्जी मण्डी ही उठा लाये |
6. सूपनखा की नाक काटना- राम ने सचमुच सूपनखा की नाक नहीं काटी थी | राम तो भारतीय संस्कृति के उच्च प्रतिमान मर्यादा पुरुषोत्तम थे | वे किसी नारी की नाक कैसे काट सकते थे ? असल में हुआ यह था कि सूपनखा को अपने रूप-सौन्दर्य पर बहुत अधिक गर्व था और वह अपनी सहेलियों से यह वादा करके राम-लक्ष्मण के पास गई थी कि मैं उन्हें वशीभूत कर लूंगी, उसने नाना चेष्टाएँ करके कोशिश भी बहुत की, परन्तु सफल नहीं हो सकी | लौटकर आई तो उसकी सहेलियों ने कहा कि कटवा ली ने नाक |
7. पत्थर की शिला को स्त्री बना देना- राम ने सचमुच ही किसी पत्थर की शिला को पैर लगाकर स्त्री नहीं बनाया था, अपितु वे गौतम ऋषि के आश्रम पहुंचे थे, जहाँ उनकी पत्नी अहल्या अपने साथ हुई एक दुर्घटना को लेकर लम्बे समय से घोर अवसाद (depression) में पड़ी थी | पत्थर की शिला के समान ही हो गई थी | किसी भी प्रकार का कोई भी सुख-दुःख उसे किंचित् भी प्रभावित नहीं करता था | सब लोग बहुत प्रयास करके थक चुके थे | किन्तु राम ने उसे कुछ ऐसी कुशलता से समझाया कि वह अवसाद से बाहर आ गई, नोर्मल हो गई | इसी बात को लोगों ने कहा कि राम ने शिला को स्त्री बना दिया |
8. सीता की अग्निपरीक्षा होना- सीता सचमुच ही किसी अग्नि के कुंड में नहीं कूदी थी, न ही राम ने उसे ऐसा कुछ करने की आज्ञा दी थी, न ही उसे ऐसा करते हुए देखने के लिए वहाँ बड़े-बड़े ज्ञानियों की भीड़ जुटी थी | यह सम्भव ही नहीं है | यदि होता तो यह एक घोर अज्ञानतापूर्ण दुष्कृत्य होता | अत: यहाँ अग्निपरीक्षा का अर्थ कठिन परीक्षा ही है, जैसा की आज भी मुहावरे के रूप में प्रयोग होता है |
9. सीता का पृथ्वी में समा जाना- कहते हैं कि अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सीता पृथ्वी में समा गई थी | परन्तु सीता कोई सचमुच में ही पृथ्वी में नहीं समा गई थी, अपितु उन्होंने एक पृथ्वीमति नाम की महान साध्वी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली थी और स्वयं को पूरी तरह उनके पास धर्माराधना में ही समर्पित कर दिया था | अत: लोगों ने कहा कि सीता पृथ्वी में समा गई |

6 Likes

सभी प्रमाणों से एक वस्तु का ज्ञान :arrow_up:
-प्रो. वीरसागर जैन

जैन दर्शन में प्रमाण के अनेक भेद-प्रभेद बताये गये हैं | उन सबको सरलतापूर्वक समझने के लिए आज हम उन सबको एक ही वस्तु पर घटित करके देखते हैं | आशा है इससे कुछ विशेष लाभ होगा | उदाहरणार्थ समझ लीजिए कि हमें मिश्री का ज्ञान करना है | सभी प्रमाणों के द्वारा मिश्री का ज्ञान कुछ ऐसा होगा-

  1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से हम मिश्री को अपनी आँखों से देख सकते हैं, हाथों से छू सकते हैं, जीभ से चख सकते हैं, इत्यादि | अथवा मन से उसका चिन्तन-मनन कर सकते हैं |
  2. पारमार्थिक प्रत्यक्ष में, विकल प्रत्यक्ष में, अवधिज्ञान से हमें दूरस्थ मिश्री भी बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के ही साक्षात् के समान दिखाई देगी |
  3. मन:पर्यय ज्ञान से हमें वह मिश्री किसी दूसरे के मन में स्थित होती हुई भी, बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के ही साक्षात् के समान दिखाई देगी |
  4. केवलज्ञान से हमें वह मिश्री अपनी त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायों के साथ, बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के ही प्रत्यक्ष दिखाई देगी, सहज ही हमारे ज्ञान में झलकेगी, हम उससे किंचित् भी प्रभावित नहीं होंगे |
  5. परोक्ष प्रमाण में, स्मृति प्रमाण से हमें पहले देखी/चखी हुई मिश्री याद आएगी |
  6. प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से हम उस पूर्वज्ञात मिश्री की अभी वर्तमान में दिखाई दे रही किसी वस्तु से तुलना करेंगे |
  7. तर्क प्रमाण से हमें ऐसा ज्ञान होगा कि जहाँ जहाँ ऐसी मिठास होगी अथवा जिस-जिस वस्तु में ऐसी मिठास होगी वह निश्चित रूप से मिश्री ही होगी |
  8. अनुमान प्रमाण से यदि हमारी आँखें बंद हों और हमारे मुख में कोई वस्तु आ जाए तो हम उसकी मिठास से यह निर्णय कर लेंगे कि यह मिश्री है या नहीं | अथवा- डिब्बे में बंद मिश्री को भी हम किसी हेतु से पहचान जाएँगे |
  9. आगम प्रमाण से हम यह जान सकेंगे कि मिश्री का उद्भव कब कैसे हुआ, उसमें क्या-क्या आयुर्वेदिक गुण-दोष अथवा रासायनिक तत्त्व पाये जाते हैं, इत्यादि |
    शंका- क्या ऐसा ही आत्मा पर भी घटित करके बता सकते हैं ?
    समाधान- बहुत अच्छा प्रश्न पूछा, हमें हर बात आत्मा पर घटित करके देखने की कोशिश करनी चाहिए | किन्तु ध्यान देने की बात यहाँ यह है कि आत्मा एक अरूपी पदार्थ है, अत: वह सभी प्रमाणों का विषय नहीं बनता | तथापि आइए, घटित करने का प्रयास करते हैं-
  10. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से हम आत्मा को किसी भी इन्द्रिय से नहीं जान सकते हैं, किन्तु मन से उसका चिन्तन और अनुभव कर सकते हैं |
  11. पारमार्थिक प्रत्यक्ष में, विकल प्रत्यक्ष में, अवधिज्ञान से हम आत्मा को बिल्कुल नहीं जान सकते हैं, क्योंकि अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थ को ही जान सकता है |
  12. मन:पर्यय ज्ञान से भी हम आत्मा को बिल्कुल नहीं जान सकते हैं, क्योंकि वह भी केवल रूपी पदार्थ को ही जान सकता है |
  13. केवलज्ञान से हमें आत्मा अपनी त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायों के साथ, बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देगा, सहज ही हमारे ज्ञान में झलकेगा |
  14. परोक्ष प्रमाण में, स्मृति प्रमाण से हमें पूर्वानुभूत आत्मा की याद आएगी |
  15. प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से हम उस पूर्वानुभूत आत्मा की वर्तमान में ज्ञात किसी वस्तु से तुलना करेंगे |
  16. तर्क प्रमाण से हमें ऐसा ज्ञान होगा कि जहाँ-जहाँ ज्ञान/चेतना होगी अथवा जिस-जिस वस्तु में ज्ञान/ चेतना होगी वह निश्चित रूप से आत्मा ही होगी |
  17. अनुमान प्रमाण से हम किसी भी वस्तु का उसकी चेतना से यह निर्णय कर लेंगे कि यह आत्मा है या नहीं | अथवा- किसी भी चेतनायुक्त/शरीरधारी वस्तु को हम उसके हेतु से पहचान जाएँगे |
  18. आगम प्रमाण से हम यह जान सकेंगे कि आत्मा के सूक्ष्म गुण-पर्याय आदि क्या हैं, उसके प्रदेश आदि कैसे कितने हैं, इत्यादि |

इस प्रकार यहाँ हमने एक ही वस्तु पर सभी प्रमाणों को घटित करने का प्रयास किया | न्यायशास्त्र के विद्यार्थियों को इसी प्रकार पूरी प्रमाण-व्यवस्था एक ही वस्तु पर घटित करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसमें प्रामाण्य की उत्पत्ति, ज्ञप्ति, प्रमाण का विषय, फल, प्रमाणाभास, नय, नयाभास, निक्षेप, निक्षेपाभास आदि भी सम्मिलित हैं | ऐसे प्रयोग करने से ज्ञान में विशेष निर्मलता आती है |

4 Likes

गोष्ठी पर भी हो एक गोष्ठी
-प्रो वीरसागर जैन

मैं समझता हूँ कि हमें पहले गोष्ठी पर ही एक गोष्ठी करनी चाहिए | गोष्ठी किसे कहते हैं, क्यों की जाती है, कैसे की जाती है, इत्यादि सभी विषयों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, ताकि हम सही अर्थों में गोष्ठी/संगोष्ठी कर पाएँ और हमें उनका विशेष लाभ प्राप्त हो |

गोष्ठी/संगोष्ठी एक अलग ही विधा होती है | यह कोई शिविर आदि नहीं होता है | इसमें दुनिया को उपदेश नहीं दिया जाता है,अपितु इसमें तो कुछ विद्वान् स्वयं ही किसी विषय को अत्यंत निष्पक्ष/नि:शल्य होकर भलीभांति समझने का प्रयास करते हैं | गोष्ठी शब्द का अर्थ ही ऐसा है कि जहाँ गो अर्थात् विद्वान् एक साथ स्थित होकर किसी विषय की जुगाली करें, उसे गोष्ठी कहते हैं | गोष्ठी में एक विद्वान् अन्य विद्वान् मित्रों के समक्ष अपने मन की सभी शंका नि:संकोच रख देता है और उनके उचित समाधान की आशा करता है | इसमें किसी प्रकार का कहीं कोई आग्रह, भय, दबाव आदि किसी पर भी नहीं होता | यह तो एकदम वैज्ञानिक ढंग से सम्पन्न होने वाली ज्ञानप्राप्ति की उत्तम प्रक्रिया है |

इसी प्रकार की और भी अनेक महत्त्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें हम सबको भलीभांति समझना चाहिए | तभी हम इस उत्कृष्ट विधा का समीचीन लाभ प्राप्त कर पाएँगे, अन्यथा …

4 Likes

संगोष्ठी का स्वरूप एवं महत्त्व

-प्रो. वीरसागर जैन

संगोष्ठी ज्ञानाराधना का उत्कृष्ट साधन है | वैसे तो ज्ञानाराधना के लिए अनेक साधन प्रचलित हैं- शिक्षण, प्रशिक्षण, प्रवचन, सभा, शाला, शिविर, सम्मेलन आदि; परन्तु जो बात संगोष्ठी में है वह अलग ही है | खासकर विद्वानों को अपना ज्ञान सुदृढ़ करने का जो अवसर संगोष्ठी में मिलता है, वह अन्य साधनों में नहीं मिलता | यही कारण है कि संगोष्ठी में मुख्यरूप से विद्वान् ही सम्मिलित होते हैं, सामान्य जनता को इसमें सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता | संगोष्ठी शब्द का अर्थ ही ऐसा है कि जिसमें गो अर्थात् विद्वान् ज्ञानाराधना की सम्यक् भावना से स्थित होते हैं, उसे संगोष्ठी कहते हैं | संगोष्ठी को ही सामान्यत: ‘गोष्ठी’ भी कह देते हैं, पर ‘संगोष्ठी’ शब्द में उसकी विशेष पवित्रता व्यक्त होती है |
दरअसल, जब विद्वान् लोग भी अपने पठित विषय पर ही एक बार पुन: अपने अन्य विद्वान् मित्रों के साथ बैठकर नये सिरे से गम्भीरतापूर्वक चिन्तन-मनन-मन्थन करते हैं तो उसे गोष्ठी, संगोष्ठी या विद्वत्संगोष्ठी कहते हैं |
संगोष्ठी में विद्वान् पूरी तरह निष्पक्ष निराग्रही बनकर अपनी बात प्रस्तुत करते हैं और फिर सभी को उस पर खूब ऊहापोह करते हुए बड़ी ही ईमानदारी से वैज्ञानिक की भांति स्वस्थ परिचर्चा करनी होती है | इसमें किसी तरह की कोई लज्जा, प्रतिष्ठा, जय, पराजय आदि का भी कोई स्थान नहीं होता | विषय को ईमानदारी से समझना ही इसका एक मात्र उद्देश्य होता है |
संगोष्ठी में कोई भी विद्वान् अपने मन की किसी भी शंका को निर्भय होकर प्रस्तुत कर सकता है और कोई भी विद्वान् उसका प्रामाणिक समाधान करने का प्रयत्न कर सकता है, पर कोई किसी पर किसी तरह का दबाव भी नहीं डाल सकता है |
संगोष्ठी की और भी अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ होती हैं, जिनसे विद्वानों का परमहित होता है और जो अन्य अनेक बड़े-बड़े साधनों में नहीं होती हैं | जैसे कि प्राचीन काल में एक शास्त्रार्थ होता था, परन्तु उसमें भी जय-पराजय की भावना होती थी, कई बार तो बड़े दंड एवं अपमानादि भी होते थे, परन्तु संगोष्ठी में ऐसा कुछ भी नहीं होता | यहाँ कभी किसी की कोई हार-जीत नहीं होती, अपमान, दंड आदि की बात तो बहुत ही दूर है |
इस प्रकार संगोष्ठी ज्ञानाराधना का एक बहुत ही उत्कृष्ट प्रकार है | इससे हमारे ज्ञान में निर्मलता, दृढ़ता आदि अनेक गुण विकसित होते हैं | हमें इसका अवश्य ही लाभ उठाना चाहिए |
आजकल समाज में संगोष्ठियों का प्रचलन तो बहुत हुआ है, हम उनके विरोधी भी नहीं हैं, पर वास्तव में वे सम्यक् गोष्ठी नहीं हैं, वे तो सामान्य शिक्षण शिविर जैसे ही हैं; क्योंकि उनमें भी वही धर्मप्रचार की भावना दिखाई देती है, वक्तागण स्वयं बात को समझने की बजाय दुनिया को उपदेश देने लगते हैं | जबकि संगोष्ठी में ऐसा बिलकुल नहीं होता, उसमें दुनिया को उपदेश नहीं दिया जाता, कोई धर्मप्रचार नहीं किया जाता, बल्कि पूरा जोर स्वयं के ही समझने पर होता है |
अत: हमें ऐसी सम्यक् गोष्ठियां अवश्य करनी चाहिए और हमने जैनदर्शन के जो अकर्तावाद आदि सिद्धांत सीखे हैं उनका शांतिपूर्वक गहराई से निरीक्षण, परीक्षण, समीक्षण करना चाहिए | इससे हमें बड़ा लाभ होगा | हमने इन सिद्धांतों को पढ़ या रट तो लिया है, पर हृदयंगम नहीं किया है | गोष्ठियां इस महान कार्य में हमारा अद्भुत सहयोग कर सकती हैं |

4 Likes