डॉ. वीरसागर जी के लेख

सभी प्रमाणों से एक वस्तु का ज्ञान :arrow_up:
-प्रो. वीरसागर जैन

जैन दर्शन में प्रमाण के अनेक भेद-प्रभेद बताये गये हैं | उन सबको सरलतापूर्वक समझने के लिए आज हम उन सबको एक ही वस्तु पर घटित करके देखते हैं | आशा है इससे कुछ विशेष लाभ होगा | उदाहरणार्थ समझ लीजिए कि हमें मिश्री का ज्ञान करना है | सभी प्रमाणों के द्वारा मिश्री का ज्ञान कुछ ऐसा होगा-

  1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से हम मिश्री को अपनी आँखों से देख सकते हैं, हाथों से छू सकते हैं, जीभ से चख सकते हैं, इत्यादि | अथवा मन से उसका चिन्तन-मनन कर सकते हैं |
  2. पारमार्थिक प्रत्यक्ष में, विकल प्रत्यक्ष में, अवधिज्ञान से हमें दूरस्थ मिश्री भी बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के ही साक्षात् के समान दिखाई देगी |
  3. मन:पर्यय ज्ञान से हमें वह मिश्री किसी दूसरे के मन में स्थित होती हुई भी, बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के ही साक्षात् के समान दिखाई देगी |
  4. केवलज्ञान से हमें वह मिश्री अपनी त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायों के साथ, बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के ही प्रत्यक्ष दिखाई देगी, सहज ही हमारे ज्ञान में झलकेगी, हम उससे किंचित् भी प्रभावित नहीं होंगे |
  5. परोक्ष प्रमाण में, स्मृति प्रमाण से हमें पहले देखी/चखी हुई मिश्री याद आएगी |
  6. प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से हम उस पूर्वज्ञात मिश्री की अभी वर्तमान में दिखाई दे रही किसी वस्तु से तुलना करेंगे |
  7. तर्क प्रमाण से हमें ऐसा ज्ञान होगा कि जहाँ जहाँ ऐसी मिठास होगी अथवा जिस-जिस वस्तु में ऐसी मिठास होगी वह निश्चित रूप से मिश्री ही होगी |
  8. अनुमान प्रमाण से यदि हमारी आँखें बंद हों और हमारे मुख में कोई वस्तु आ जाए तो हम उसकी मिठास से यह निर्णय कर लेंगे कि यह मिश्री है या नहीं | अथवा- डिब्बे में बंद मिश्री को भी हम किसी हेतु से पहचान जाएँगे |
  9. आगम प्रमाण से हम यह जान सकेंगे कि मिश्री का उद्भव कब कैसे हुआ, उसमें क्या-क्या आयुर्वेदिक गुण-दोष अथवा रासायनिक तत्त्व पाये जाते हैं, इत्यादि |
    शंका- क्या ऐसा ही आत्मा पर भी घटित करके बता सकते हैं ?
    समाधान- बहुत अच्छा प्रश्न पूछा, हमें हर बात आत्मा पर घटित करके देखने की कोशिश करनी चाहिए | किन्तु ध्यान देने की बात यहाँ यह है कि आत्मा एक अरूपी पदार्थ है, अत: वह सभी प्रमाणों का विषय नहीं बनता | तथापि आइए, घटित करने का प्रयास करते हैं-
  10. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से हम आत्मा को किसी भी इन्द्रिय से नहीं जान सकते हैं, किन्तु मन से उसका चिन्तन और अनुभव कर सकते हैं |
  11. पारमार्थिक प्रत्यक्ष में, विकल प्रत्यक्ष में, अवधिज्ञान से हम आत्मा को बिल्कुल नहीं जान सकते हैं, क्योंकि अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थ को ही जान सकता है |
  12. मन:पर्यय ज्ञान से भी हम आत्मा को बिल्कुल नहीं जान सकते हैं, क्योंकि वह भी केवल रूपी पदार्थ को ही जान सकता है |
  13. केवलज्ञान से हमें आत्मा अपनी त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायों के साथ, बिना किसी इन्द्रिय-मन की सहायता के एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देगा, सहज ही हमारे ज्ञान में झलकेगा |
  14. परोक्ष प्रमाण में, स्मृति प्रमाण से हमें पूर्वानुभूत आत्मा की याद आएगी |
  15. प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से हम उस पूर्वानुभूत आत्मा की वर्तमान में ज्ञात किसी वस्तु से तुलना करेंगे |
  16. तर्क प्रमाण से हमें ऐसा ज्ञान होगा कि जहाँ-जहाँ ज्ञान/चेतना होगी अथवा जिस-जिस वस्तु में ज्ञान/ चेतना होगी वह निश्चित रूप से आत्मा ही होगी |
  17. अनुमान प्रमाण से हम किसी भी वस्तु का उसकी चेतना से यह निर्णय कर लेंगे कि यह आत्मा है या नहीं | अथवा- किसी भी चेतनायुक्त/शरीरधारी वस्तु को हम उसके हेतु से पहचान जाएँगे |
  18. आगम प्रमाण से हम यह जान सकेंगे कि आत्मा के सूक्ष्म गुण-पर्याय आदि क्या हैं, उसके प्रदेश आदि कैसे कितने हैं, इत्यादि |

इस प्रकार यहाँ हमने एक ही वस्तु पर सभी प्रमाणों को घटित करने का प्रयास किया | न्यायशास्त्र के विद्यार्थियों को इसी प्रकार पूरी प्रमाण-व्यवस्था एक ही वस्तु पर घटित करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसमें प्रामाण्य की उत्पत्ति, ज्ञप्ति, प्रमाण का विषय, फल, प्रमाणाभास, नय, नयाभास, निक्षेप, निक्षेपाभास आदि भी सम्मिलित हैं | ऐसे प्रयोग करने से ज्ञान में विशेष निर्मलता आती है |

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