डॉ. वीरसागर जी के लेख

22. ध्यान का फल :arrow_up:

जैन ग्रंथों में ध्यान के विषय को अधिकार-चतुष्टय के माध्यम से समझाया गया है- १. ध्यान, २. ध्याता, ३. ध्येय और ४. ध्यानफल | इन सभी में, विवक्षावश, असंख्य आयाम स्पष्ट किये गये हैं, अतः सामान्य जन बड़े भ्रम में पड़ते दिखाई देते हैं | उन्हें समझ में नहीं आ पाता कि कौन सी बात सही है- वह या यह; किन्तु यदि हमें भ्रम-रहित सम्यक ज्ञान करना हो, तो समंतभद्रादि आचार्यों द्वारा प्रदत्त यह कुतुबनुमा (दिशा-बोधक-यंत्र) सदैव अपने पास रखना चाहिए कि जिनवाणी में प्रत्येक कथन मुख्य-गौण-विवक्षा से ही होता है और उस (मुख्य-गौण-विवक्षा) को समझे बिना जिनवाणी के एक भी वाक्य को समझना संभव नहीं है |
ध्यान, ध्याता, ध्येय एवं ध्यानफल- इन चारों के विषय में कही गयी भिन्न-भिन्न विरोधी-सी बातें मुख्य-गौण-विवक्षा का ही परिणाम है | जैसे-
ध्यान तो पूर्ण निर्विकल्प शुद्धोपयोग रूप दशा का ही नाम है, इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है; किन्तु मन्त्रजाप, पूजा-पाठ आदि कारण को भी कारण कहने की विवक्षा के समान उपचार से ध्यान कहा है | सो ठीक ही है | उदाहरणार्थ- हमें किसी व्यक्ति को मुंबई भेजना था और वह दूरी के डर से जा नहीं रहा था, अतः हमने उससे कहा- नागपुर जाओ | उसका डर कुछ कम हुआ, पर वह नागपुर भी नहीं जा रहा था, अतः उससे फिर कहा- भोपाल तो जाओ | उसका डर और कम हुआ, पर वह भोपाल भी नहीं जा रहा था, अतः उससे कहा- ग्वालियर जाओ, पर वह ग्वालियर भी नहीं जा रहा था, अतः उससे कहा- आगरा या मथुरा तो जाओ, पर वह घर की आसक्ति के कारण आगरा या मथुरा भी नहीं जा पा रहा था | अतः अंत में उससे इतना ही कहा कि- घर से तो बाहर निकलो | यहाँ यद्यपि घर से निकलना मात्र था, मुंबई तो बहुत दूर की बात है, किन्तु वह घर से तो निकला, अब शायद आगे भी बढ़ जाएगा –यही सोचकर उसकी प्रशंसा की जाती है । इसी प्रकार आगरा, ग्वालियर, भोपाल, नागपुर तक चला जाना भी मुंबई जाना नहीं है, पर उनमें मुंबई जाने का अवसर है, उनसे मुंबई पास होती जाती है; अतः इन सबको मुंबई जाना कह देते हैं | इसी प्रकार ध्यान की विविध तर-तम भाववाली निम्न-उच्च दशाओं को भी जिनवाणी में ध्यान ही कह दिया गया है |
इसी प्रकार उत्कृष्ट ध्याता तो उत्तमसंहननधारी महामुनि ही हैं, पर तर-तम भाव से साधारण श्रावक को भी ध्याता कह देते हैं | जहाँ गृहस्थ के ध्याता होने का निषेध हो, वहाँ उत्कृष्ट ध्याता की विवक्षा है- ऐसा समझ लेना चाहिए |
इसी प्रकार ध्येय तो एक निज आत्म-तत्त्व ही है, परन्तु प्राथमिक दशा की विवक्षा से पञ्च परमेष्ठी, जिन-प्रतिमा, मन्त्र-वाक्य आदि बहुत-सी चीजों को भी ध्येय कह दिया जाता है |
इस प्रकार सर्वत्र मुख्य-गौण-विवक्षा को घटित करते हुए ध्यान, ध्याता, ध्येय आदि सभी विषयों का निर्भ्रान्त ज्ञान करना चाहिए |
प्रस्तुत आलेख में हम ध्यान के फल को भी इसी आगमानुकूल पद्धति से समझने का प्रयास करेंगे |
ध्यान का वास्तविक फल तो मोक्ष है | मोक्ष अर्थात ‘कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः’| दूसरे शब्दों में कहें तो मोक्ष का अर्थ है- कुछ भी नहीं, सबका अभाव, सब कर्मों का अभाव | तात्पर्य यह है कि ध्यान का वास्तविक फल तो ध्यान ही है, अन्य कुछ नहीं; उसी प्रकार जिस प्रकार ज्ञान का पारमार्थिक फल ज्ञान ही माना है-
ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् |
अहो मोहस्य माहात्म्यं यदन्यदपि मृग्यते ||
-आत्मानुशासन,१७५

ध्यान का फल अन्य कुछ भी मानना अज्ञानता है, मोह का माहात्म्य है। यदि ध्याता को ध्यान से अन्य कुछ फल की इच्छा ही बची रह गयी, तो वह ध्यान किस बात का ? सर्व-इच्छाओं के अभाव का नाम ही तो ध्यान है और यही ध्यान का वास्तविक फल है | इच्छा वालों को भी मोक्ष मिलता होता, तो मोक्ष की इच्छा वालों को मोक्ष का अपात्र क्यों माना जाता ? यथा-
“न मोक्षोsपि मुमुक्षुताम् |” - समयसार-कलश, १९९

“मोक्षेsपि यस्य नाकांक्षा स मोक्षमधिगच्छति |” - स्वरूपसंबोधन, २१
ध्यान के फल की ऐसी स्थिति अत्यंत स्पष्ट होने पर भी शास्त्रों में ध्यान के नाना प्रकार के फल बताये गए हैं- शारीरिक, मानसिक आदि, जो सब प्रायः लौकिक ही हैं | प्रश्न है कि ध्यान का वास्तविक फल कौन सा है- पारमार्थिक या लौकिक?
उत्तर – किन्हीं आचार्यों ने इन दोनों का समन्वय बनाकर बात कही है कि ये दोनों ही ध्यान के फल हैं | यथा-

  1. यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौ कियद्दूरवर्तिनी | यो नयत्याशु गव्यूतिं, क्रोशार्धे किं स सीदति || - इष्टोपदेश 4
  2. ॐकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥
  3. धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण |
  4. भुक्ति-मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर || -चौबीसीपूजा,द्यानतराय

तथापि प्रश्न तो बना ही रहता है कि एक ध्यान के ऐसे दोनों फल कैसे हो सकते हैं ? लौकिक भी और अलौकिक भी ? तो इसका उत्तर आचार्यों ने मुख्य-गौण-विवक्षा लगाकर इस प्रकार दिया है कि पारमार्थिक फल तो ध्यान का मुख्य फल है और लौकिक फल ध्यान का गौण फल है ।
इस बात को यदि और स्पष्टता से कहना हो तो हम कह सकते हैं कि एक ध्यान का प्रयोजन है और दूसरा ध्यान का फल | ध्यान का प्रयोजन और ध्यान का फ़ल- इन दोनों में बडा अन्तर है और उस अन्तर को समझना बहुत आवश्यक है | बहुत लोग उसे नहीं समझ पाते हैं और भूल करते रहते हैं।
ध्यान का प्रयोजन= उद्देश्य।
ध्यान का फ़ल= परिणाम।
जिसके लिए ध्यान किया जाता है, वह ध्यान का प्रयोजन है और जो कुछ ध्यान के परिणाम-स्वरूप स्वतः ही प्राप्त हो जाता है, वह ध्यान का फ़ल है।
उदाहरणार्थ खेती करने पर किसान को दो चीजें मिलती हैं- धान भी और भूसा भी, परन्तु इनमें से धान तो खेती का प्रयोजन है और भूसा खेती का फ़ल। क्योंकि किसान धान के लिए खेती करता है, भूसे के लिए नहीं; भूसा तो उसके साथ स्वतः ही मिल जाता है।
अब यहाँ जरा सोचिए कि यदि कदाचित कोई किसान मात्र भूसे के लिए ही खेती करे तो क्या होगा? उसे धान तो बिलकुल मिलेगा ही नहीं; भूसा भी उत्तम और वैसा(quality & quantity) नहीं मिलेगा। अतः सभी समझदार किसान धान के लिए ही खेती करते हैं, भूसे के लिए खेती कोई भी किसान नहीं करता ।
उसी प्रकार सभी समझदार (सम्यग्दृष्टि) ध्याता पारमार्थिक फ़ल, जिसे हमने ऊपर ‘प्रयोजन’ की संज्ञा दी है, उसके लिए ही ध्यान करता है । कोई भी ध्याता लौकिक फ़लों के लिए ध्यान नहीं करता । यदि कदाचित करे तो उसे लौकिक फ़ल भी उतना और वैसा नहीं प्राप्त होगा । तथा वह विवेकी ध्याता भी नहीं कहा जा सकेगा, अविवेकी ध्याता ही कहलायेगा ।
अतः आचार्यों ने शास्त्रों में ध्यान के विविध लौकिक फ़लों को बताया तो है, पर उन्हें चाहने या उनके लिए ध्यान करने का सख्त निषेध भी किया है । यथा-
"इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इतः पिण्याकखण्डकम्।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये, क्वाद्रियन्तां विवेकिनः॥"-इष्टोपदेश,२०

अर्थात्- एक ओर दिव्य चिन्तामणि है और दूसरी ओर खली का टुकडा; ध्यान के द्वारा जब ये दोनों ही मिल सकते हैं तो बताओ, विवेकी जीव किसे चाहेंगे?
दरअसल कुछ भी चाहने से सारी बात खराब हो जाती है, उलटी हो जाती है, लोक में भी चाहने को बुरा कहा जाता है-
“बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख ।”
पं. टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक में लौकिक फ़ल को बताकर उसे चाहने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है, जो वहाँ पृष्ठ १०-११ पर मूलतः पठनीय है । तथापि उसकी निष्कर्षभूत दो पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत की जाती हैं-
“बहुरि इस (लौकिक) प्रयोजन के अर्थ अरिहंतादि की भक्ति किए तीव्र कषाय होने तैं पाप-बन्ध ही हो है, तातै आपको इस प्रयोजन का अर्थि होना योग्य नाहीं । अरिहंतादि की भक्ति करने तैं ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव सधै हैं ।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि मुख्य-गौण-विवक्षा का कुतुबनुमा हाथ में लेकर हम आगम-महासागर को आसानी से पार कर सकते हैं ।

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