डॉ. वीरसागर जी के लेख

10. वित्तरागी से वीतरागी बनने की अद्भुत कला सिखाने वाला शास्त्र (जैन अर्थशास्त्र - Jain Economics) :arrow_up:

जैन आचार्यों की यह बड़ी विशेषता है कि उन्होंने केवल धर्म, दर्शन या अध्यात्म के विषय में ही अपने विचार व्यक्त नहीं किये हैं, अपितु जीवन के हर पक्ष पर ही अपने महत्त्वपूर्ण विचार प्रकट किये हैं | यहाँ उनके अर्थशास्त्रीय विचारों को समझने के लिए जैन शास्त्रों से कतिपय प्रमुख उद्धरण संकलित करते हैं | आशा है कोई सुधी विद्वान् इनको विस्तृत एवं व्यवस्थित करेगा | इन उद्धरणों को ध्यान से पढ़कर कोई भी व्यक्ति आसानी से यह जान सकता है कि जैन आचार्यों ने, धन किसे कहते हैं, धन के पर्यायवाची शब्द क्या हैं, धन के कितने प्रकार हैं, धन का जीवन में कितना महत्त्व है, धन कितना असार है, धन की प्राप्ति कैसे होती है, धन की रक्षा कैसे होती है, धन का दुरुपयोग क्या है, धन का सदुपयोग क्या है, इत्यादि सभी पक्षों पर अपने अद्भुत विचार प्रकट किये हैं | इनको समझकर व्यक्ति अपना लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों ही प्रकार का जीवन सुखद बना सकता है |

  1. ‘अत्थं अणत्थमूलं’ –भगवती आराधना, 1808
  2. लोभे कए वि अत्थो ण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स |अकए वि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स| –भगवती आराधना, 1436
  3. यदि पापनिरोधोsन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् | अथ पापास्रवोsस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् || -रत्नकरंड
  4. कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् |- रत्नकरंड, 29
  5. धर्मादयो हि हितहेतुतया प्रसिद्धा … –अमृताशीति,3
  6. भ्रात प्रभात समये त्वरित किमर्थमर्थाय चेत… –-अमृताशीति,4
  7. ‘आयव्ययमुखयोर्मुनिकमंडलुरेव निदर्शनम् |’ -नीतिवाक्यामृत,18/6
  8. अलियं कमले कमला कयकमले तुह जिणिंद सा वसदि |…- आचार्य पद्मनंदी, ऋषभस्तोत्र 46
  9. कौआ भी बाँट कर खाता है …- आचार्य पद्मनंदी, दानोपदेशन,46
  10. जदि चित्तं ण हि वित्तं, जदि वित्तं ण हि चित्तं, चित्तं वित्तं च ण हि सुपत्तं |
  11. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् | मूढै: पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ||
  12. मन वचन काय सम्पत्ति
  13. रत्नत्रय से बड़ा कोई धन नहीं -नियमसार
  14. जिनधर्म से बड़ा धन नहीं (स्याच्चेटोsपि दरिद्रोsपि … )
  15. मुमुक्षु को लक्ष्मीवन्तों से सम्पर्क नहीं रखना चाहिए - आचार्य पद्मनंदी, परमार्थविंशति 8
  16. दुरर्ज्येनासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना | स्वस्थंमन्य: जन: कोsपि ज्वरवानिव सर्पिषा || - इष्टोपदेश,13
  17. त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्त: संचिनोति य: | स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलंपति || - इष्टोपदेश,16
  18. आयुर्वृद्धिधनोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमम् | वांछतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनम् || - इष्टोपदेश,15
  19. ‘दारिद्र्यादपरं नास्ति जन्तुनामप्यरुन्तुदम्|अत्यन्तं मरणं प्राणै: प्राणिनां हि दरिद्रता|– क्षत्रचूड़ामणि,3/6
  20. रिक्तस्य हि न जागर्ति कीर्तनीयोsखिलो गुण: |… – क्षत्रचूड़ामणि,3/7
  21. लोभ-निंदा -ज्ञानार्णव, 70-71
  22. धन की अनित्यता, असारता – कार्तिकेयानुप्रेक्षा
  23. न चैतद्विद्यते किंचिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति |यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत ||-मदनपराजय, 2/13
  24. यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः | यस्यार्था: स: पुमान् लोके यस्यार्था: स च जीवति ||-मदनपराजय, 2/14
  25. इह लोकेपि धनिनां परोपि स्वजनायते|स्वजनोपि दरिद्राणां तत्क्षणाद् दुर्जनायते ||-मदनपराजय,2/15
  26. धन पाकर धर्म को नहीं भूलना चाहिए -यशस्तिलकचम्पू 3/220-280
  27. कृपण कृपाण के समान है - यशस्तिलकचम्पू, भाग 1, पृष्ठ 256
  28. वृक्षों में भी परिग्रह संज्ञा है - धवला 5/5/24
  29. पुण्णेण होइ विहवो, विहवेण मओ मएण मइमोहो | मइमोहेण य पावं तम्हा पुण्णं अम्ह मा होऊ || - परमात्मप्रकाश 2/60
  30. लोभ तनाव का प्रमुख कारण है | -चरकसंहिता
  31. जो धन लाभ लिलार लिख्यो …जैन शतक,75
  32. बुधजन सतसई 166 - 172

अर्थशास्त्रीय सूक्तियां
• अर्थातुराणां भयं न लज्जा |
• अर्थातुराणां गुरुर्न बन्धु: |
• न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य: |
• लक्ष्मीवन्तो न जानन्ति प्रायेण परवेदनाम् |
• विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय | ,… ||
• क्षणै: कणैश्च लभ्यन्ते विद्यामर्थञ्च मानवा: | क्षणत्यागे कुतो विद्या कणत्यागे कुतो धनम् ||
• Wealth is lost nothing is lost, health is lost something is lost, character is lost everything is lost.
• Health is wealth.
अर्थशास्त्रीय दोहे-
• दाम बिना निर्धन दुखी,तृष्णावश धनवान |कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान |
• पानी बाढ़ा नाव में,घर में बाढ़ा दाम |दोनों हाथ उलीचिए, यही सयाना काम ||
• धन की गतियाँ तीन हैं, दान भोग और नाश |दान भोग यदि ना किया, निश्चय होय विनाश ||
• बीज राखि फल भोगवै, ज्यों किसान जग मांहि| त्यों चक्री नृप सुख करे, धर्म विसारे नांहि ||
• भोंदू धन हित अघ करे,अघतें धन नहीं होय | धर्म करत धन पाइए, मन माने कर सोय | -द्यानतविलास, सुबोध-पंचाशिका, 41
• धन देकर तन राखिए,तन दे रखिए लाज |धन दे तन दे लाज दे, एक धर्म के काज ||
• आमद थोड़ी खर्च घनेरा,यह लक्षण मिट जाने का|हिम्मत थोड़ी रोष घनेरा,यह लक्षण पिट जाने का||
• मीत न नीत गलीत है, जो चाहो धन जोरि |खाये खरचे जो जुरे, तो जोरिये करोर ||
• सरस्वति के भंडार की,बड़ी अपूरब बात |ज्यों खर्चे त्यों त्यों बढ़े, बिन खरचे घट जात ||
• धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान | दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ||
• धर्म बढे तो धन बढे, धन बढ़ मन बढ़ जाय | मन बढ़ते सब बढ़त है, बढ़त बढ़त बढ़ जाय ||
• धर्म घटे तो धन घटे, धन घट मन घट जाय| मन घटते सब घटत है,घटत घटत घट जाय ||
• धन समाज गज बाज राज तो काज न आवे | ज्ञान आपको रूप भये फिर अचल रहावे ||

अर्थशास्त्रीय कहानियाँ-
• सुकुमाल सेठ (काबुल का कम्बल)/ पांच दाने की कथा(क्षणश: कणशश्चैव… )
• सुनार की सलाह / सेठ छदामीलाल /मेरे स्पर्श से सब सोना हो जाए /छाया में आना छाया में जाना
• हीरे-मोती का बैल /भाई-पुत्रों को मारने का विचार आया (अहिदेव, महिदेव)
• लोभी पति एक लाल कमाकर लाया, वीणावादिनी पत्नी को मृग ने ढेरों लाल दिए |
जैन अर्थशास्त्र के मुख्य संदेश-
• रुपये-पैसे को ही धन न समझें, उससे बड़े भी अनेक धन हैं | यह धन तो अनर्थों का मूल है |
• धन की प्राप्ति माया, लोभ से नहीं होती | कोई देवी-देवता भी धन नहीं दे सकते |
• धन की प्राप्ति वस्तुतः पुरुषार्थ से भी नहीं होती | धन का कारण धर्म/पुण्य है |
• धन का दानादि में सदुपयोग करना चाहिए |

सहायक ग्रंथ
• कार्तिकेयानुप्रेक्षा
• आत्मानुशासन
• महावीर का अर्थशास्त्र
• अहिंसक अर्थशास्त्र

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