जितना ऊपर का गुणस्थान उतने राग द्वेष की कमी तथा वीतरागता की वृद्धि।
परन्तु पुण्य बन्ध का अनुभाग / स्थिति बढ़ते जाता है।
वीतरागता बन्ध का कारण होगा नहीं तथा ऊपर ऊपर के गुणस्थानों में रागांश की कमी होने से अनुभाग / स्थिति भी हीन होने चाहिए सो तीव्र पुण्य बन्ध का मुख्य कारण क्या?
अनुभाग aur स्थिति Bandh to kashaya ke kaaran hota hai aur shubh aur ashubh prakartio ka alag rule hai. Agar kashaya jyada to ashubh prakartio ka teevra anubhaag aur स्थिति and vice-versa for shubh prakarti. But jo shubh bandh hai vo jo kashaya ki kami se veetragta aayi usse nahi hua lekin jitni mand kashaya abhi baaki hai usse ho rha hai. Don’t get it wrong.
To jitna ooncha gunsthan utni kam kashaya aur utna jyada shubh bandh.
According to me todarmal ji kehna cha rhe hain ki jo upar ke gunsthano mein paap prakartio ka shubh prakartio mein sankraman ho rha hai vo us gunsthan mein jeev ki kitni vishuddhta hai uspar depend krta hai . And jo paap ka shubh roop sankraman hai vo tbhi possible hai jab shubh ke saath shuddh bhav bhi ho kyonki shubh bhav to mithyadristi ko bhi hote hai prantu vahan itna shubh sankraman ni hota may be apkarshan ho jaye shubh ki sthiti ka . Isliye vahan likha ki Vishuddhta hi ke anusaar aisa niyam(sankaman) sambhav hai.
Feel free to correct me.
यहाँ पर निर्जरा का अर्थ संक्रमण लिया गया है।
प्रश्न में पूछ रहे हैं कि शुद्धभाव से पुण्य और पाप दोनों की निर्जरा क्यों नही होती?
शुद्धभाव का अर्थ शुद्धोपयोग भी है और शुद्ध परिणति भी है।
बीच का विषय सरल है। नीचे लिखा हुआ है कि पूर्वोक्त नियम संभव नही है। मतलब की शुद्धभाव से दोनों की निर्जरा संभव नही है। विशुद्धता के अनुसार ही नियम संभव है। विशुद्धता का अर्थ शुभ भाव है।
ऊपर के गुणस्थानों में या किसी मे भी शुद्धोपयोग अथवा शुद्ध परिणति से निर्जरा नही होती ,अपितु उसके साथ होने वाले शुभ भाव से होती है। शुद्धोपयोग के समय भी शुभ भाव होते हैं और वे ही निर्जरा के कारण होते हैं।
जब आगे की कषाय का उदय मंद होता है तब तो शुद्धोपयोग होता है,और जब कषाय का उदय तीव्र होता है तब शुद्ध परिणति होती है।
और सम्यक्त्व सहित आगे वाले गुणस्थान में शुद्धोपयोग/शुद्ध परिणति सहित शुभोपयोग के द्वारा पाप प्रकृति की निर्जरा(संक्रमित होकर पुण्य रूप )होती है।
अतः निर्जरा का मूल कारण शुभोपयोग ही है शुद्धोपयोग नही।
यह नियम अघाति प्रकृतियों में तो लग सकता है परन्तु घाति कर्म प्रकृतियों में तो सभी अशुभ रूप होने से संक्रमण का कुछ नियम नहीं तो वह तो शुद्ध भाव ही निर्जरा का कारण होना चाहिए।
So can we conclude that…
अशुभ प्रकृतियों का निर्जरा का कारण तो शुद्ध भाव हैं।
अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण का कारण शुभ भाव हैं।
शुभ प्रकृतियों में निर्जरा नहीं होतीं तथा संक्रमण नीचे के गुणस्थानों में होता है।
शुद्ध भाव निर्जरा का कारण नही है, शुभ भाव ही निर्जरा का कारण है।
संक्रमण तो आगे के गुणस्थान में भी हो सकता है। जैसे कि किसी के अशुभ प्रकृतियों का बंध हुआ हो तो जैसे जैसे विशुद्धता बढ़ती जाएगी उस अनुसार वे संक्रमित होकर शुभ रूप हो जाएगी। और फिर उदय में आकर अनुभाग शक्ति सहित निर्जरित हो जायेगीं।
आगे में गुणस्थान में निर्जरा का कारण शुद्ध परिणति/शुद्धोपयोग सहित होने वाला शुभ भाव है।
Bandh ka kaaran Raag Dwesh nhi hai but Voh Mithya manyata hai ki Voh khud raag Dwesh karta hai.
Jab koi jeev aisa maanta hai ki Voh koi accha kaam karta hai toh voh uska punya usko milega. Same goes for paap bandh.
Samyak Drashti aur Mithya Drashti me yehi sab se bada antar hota hai ki Samyak Drashti swayam ko Akarta manta hai whereas Mithya Drashti swayam ko kisi ka karta manta hai.
Can u pls explain in detail.
Jaha tak mujhe pata hai, Nirjara ka kaaran toh Samta bhaav hi hota hai… Jo uska sakaam Nirjara… Paap aur punya dono ki Nirjara hogi… Aur ye moksh marg me sahay banta hi
Jabki Mithya Drashti Nirjara karta hai toh uska sakaam Nirjara… Punya aur paap ki Nirjara toh hoti hai par Mithya manyata toh videhmaan hone se moksha marg me sahay nhi hota.
Kindly correct me.
जितना मुझे समझ आया उस अनुसार -
मोक्ष मार्ग प्रकाशक के २३२ पेज से जो बात ली है वह तो यह है की-
१. मोक्षमार्गी जीव के नवीन बंध मे स्थिति सभी की कम होती है - पुण्य पाप घाति अघाति
२. पुण्य प्रकृति के बंध मे अनुभाग का घटना शुद्धोपयोग से नहीं होता क्यूंकि अभी मंद कषय विद्धमान है जो उसके अनुभाग को बढाने मे कारण है - यहाँ अभी निर्जरा की बात नहीं की है
३. ऊपर ऊपर पुण्य प्रकृति के अनुभाग का बंध और उदय दोनों मे ज्यादा ही होता है - इसमें भी अभी निर्जरा की बात नहीं की है
४. पाप के परमाणु पलटकर शुभ प्रकृति रूप होते है , ऐसा संक्रमण शुभ तथा शुद्ध दोनों भाव होने पर होता है
५. इसीलिए पूर्वोक्त नियम संभव नहीं है - शुद्ध भाव से दोनों की निर्जरा होती है ऐसा नियम इसीलिए नहीं क्यूंकि शुद्ध भाव होने पर भी पुण्य प्रकृति का अनुभाग कम नहीं होता और पाप की भी निर्जरा न होकर संक्रमण हो रहा है (ये सारी बात शुद्ध भाव या शुद्धोपयोग से लगाना)
६. विशुद्धता ही के अनुसार नियम संभव है - यहाँ जो ऊपर वाले पैराग्राफ मे बात कही की 'शुद्धता होने पर शुद्धोपयोग रूप परिणति होती है , वहां तो निर्जरा ही है , बंध नहीं होता; अल्प शुद्धता होने पर शुभोपयोग का भी अंश रहता है ; इसीलिए जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है और जितना शुभ भाव है उससे बंध है I ऐसा मिश्र भाव युगपत होता है , वहां बंध और निर्जरा दोनों होते है ’ -वही सिद्धांत/नियम बताना हो सकता है I (यहाँ विशुद्धता का अर्थ शुद्ध परिणति ले सकते है और वह ही निर्जरा का कारण है; यहा निर्जरा का अर्थ सभी कर्मो के सम्बन्ध मे स्थिति का कम होना और पाप कर्म मे के सम्बन्ध मे अनुभाग का कम होना भी और साथ ही पाप का पुण्य मे संक्रमण होने को भी ले सकते है )
मूल प्रश्न ‘ऊपर ऊपर के गुणस्थान मे पुण्य बंध का मूल कारण’ का उत्तर -
शुभ भाव रूप मंद कषाय जो १० वे गुणस्थान तक पायी जाती है वह ही अनुभाग मे बड़ते हुए और स्थिति में घटते हुए पुण्य बंध का कारण है , शुद्ध भाव और शुद्ध परिणति पुण्य बंध का कारण नहीं होते I