द्रव्य-गुण-पर्याय

द्रव्य क्या होता है ? वे कितने प्रकार के होते हैं ? पर्याय व गुण के द्वारा द्रव्य की व्याख्या कैसे की जा सकती है ?
उसको जानने से क्या लाभ है ?

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समयसारजी की तीसरी गाथा में आचार्य देव ने समय शब्द का अर्थ छह द्रव्य किया है।

समय के अनेक अर्थ हैं जैसे जीव और सभी द्रव्य तो हम पढ़ ही चुके हैं इसके अतिरिक्त भी मत- सिद्धांत-आगम- काल इत्यादि भी अनेक अर्थ होते हैं ।

इस तीसरी गाथा में आचार्य देव कहते हैं लोक में रहने वाले 6 प्रकार के अनंत द्रव्य, अपने अनंत धर्मों का तो स्पर्श करते हैं, अपने गुणों का तो स्पर्श करते हैं परंतु वास्तव में कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य का स्पर्श नहीं करता ।

सभी द्रव्यों के द्रव्य- क्षेत्र -काल -भाव रूप स्वचतुष्टय अथवा द्रव्य- गुण -पर्याय रूप स्वरूप संपदा सभी की भिन्न-भिन्न ही है, कोई किसी को प्रभावित नहीं करता, कोई किसी से प्रभावित नहीं होता ।

यह अनंत द्रव्य एक क्षेत्रावगाह में अत्यंत निकट रह रहे हैं इसलिए ऐसा लगता है मानो यह एक दूसरे के कार्य को करने वाले हैं परंतु कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के द्वारा अपने कार्य को नहीं करता और ना ही किसी अन्य द्रव्य का कार्य स्वयं करता है, सब द्रव्य स्वतंत्र रहकर परिणमन कर रहे हैं ।

अपने स्वरूप को कोई भी द्रव्य नहीं छोड़ता इसीलिए अनादि काल से आज तक अनंत द्रव्यों की स्वतंत्रता बनी हुई है यदि कोई द्रव्य किसी में प्रविष्ट हो जाए, कोई किसी में स्थित हो जाए तो अनंतता ही नहीं रहेगी। शून्यता आ जाएगी, परंतु जीव- पुद्गल -धर्म -अधर्म -आकाश- काल अपने जड़ -चेतन रूप अथवा गति हेतु, स्थिति हेतुत्वरूप आदि अनेक कार्यों को करते हुए अपने भिन्न- भिन्न प्रकार के स्वभाव को धारण करते हुए अपने -अपने में ही स्थित रहते हैं ।

इसलिए आचार्य देव कहते हैं कि जीव, पुद्गल के प्रदेशों में स्थित हुआ और उसे पर समय कहा जाए यह तो विसंवाद को पैदा करने वाली बात है । क्योंकि जब यह जीव किसी अन्य के घर में जाता ही नहीं है तो वहां पर उसने चोरी की ऐसा उसे चोर सिद्ध करना विवाद पैदा करने वाला है ।

सभी द्रव्य अपने स्वरूप से कभी भी च्युत नहीं होते, कभी भी नहीं हटते बस इस स्वरूप को हम स्वीकार नहीं करते इसलिए दुखी हो रहे हैं, संसार परिभ्रमण कर रहे हैं । यदि हम अपने एकत्व विभक्त आत्मा का परिचय प्राप्त करें अपने आप को अन्य समस्त द्रव्यों की भांति स्वतंत्र सत्ता रूप स्वीकार करें, अपने कार्य को करने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा नहीं और मेरे सहयोग की अन्य किसी को अपेक्षा नहीं क्योंकि सभी अपने अपने आप में परिपूर्ण हैं ऐसा स्वीकार करें तो ही आनंदमय जीवन हो सकता है।

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तिर्यक्सामान्य(गुण) और ऊध्वता सामान्य(पर्याय)वान को द्रव्य कहते हैं।
और
समगुणपर्यायं द्रव्यं -प्रवचनसार