Gunas in Dravya - what do you think?

A Dravya has infinite Gunas. I wanted to know what do you guys think?.. Are these guna separately exist in Dravya… or Gunas are defined just to explain the Dravya - it is difficult to describe Dravya without breaking it into Guna etc. Let me know your thoughts.

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"जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और उसके सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाया जाए उसे गुण कहते हैं ~ जैन सिद्धान्त प्रवेशिका

इस परिभाषा को पढ़के ऐसा लगता है जैसे कि द्रव्य एक भिन्न चीज़ होगी और गुण कोई अलग चीज़ होगी। जैसे किसी बैग में समान भरते हैं उसीप्रकार से द्रव्य में गुण भरे होंगे! (…'जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में पाया जाए…) परंतु ऐसा नहीं है।

द्रव्य, अनंत गुणों से भिन्न कुछ है ही नहीं। जिसप्रकार हाँथी, घोड़ा, सैनिक आदि के समूह को ‘सेना’ कहा जाता है परंतु उन individuals के समूह से अलग “सेना” नाम की कोई पृथक वस्तु तो है ही नहीं। उसीप्रकार अनंत गुणों के समूह को द्रव्य कहा जाता है परंतु द्रव्य नामक कोई भिन्न पदार्थ नहीं है, अपितु गुणों के समूह को ही द्रव्य कहते हैं।

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द्रव्य और पर्याय का स्वरूप ०१

द्रव्य एवं पर्याय का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है। द्रव्य एवं पर्याय का क्या रहस्य है - यह समझने जैसा है क्योंकि जीव जबतक द्रव्य-पर्याय में भेदाभेद कैसा है ? यह नही जान लेता तबतक सच्चा श्रद्धान नही होता। यहाँ द्रव्य-पर्याय सम्बन्धी कुछ विशेष बिंदुओं पर प्रकाश डालते है। अगर हम सम्पूर्ण ग्रन्थसमुद्र को देखे तो ज्ञानप्रधान एवं दृष्टिप्रधान ऐसे दो कथन मिलते है। जैसे कि जीव एकमात्र ज्ञायकभाव है , ज्ञान-दर्शन-चारित्र से भी रहित है - यह दृष्टिप्रधान कथन है। जबकि जीव सुख , ज्ञान , दर्शन , वीर्य , चारित्र इत्यादि अनन्त गुणों का एक पिंड है यह ज्ञानप्रधान कथन है। ज्ञानप्रधान एवं दृष्टिप्रधान कथन में भेद समझना आवश्यक है। दृष्टि के समय तो जीव स्वयं को समस्त पर्यायों से रहित ही जानता है लेकिन तब भी जैसे दीपक का जलना एवं प्रकाश का होना साथ में होता , ऐसे ही सम्यग्दर्शन के होते ही सम्यग्ज्ञान प्रगटता है। उस सम्यग्ज्ञान रूप प्रमाणज्ञान के बल से जीव पदार्थ का निश्चय-व्यवहार के संतुलन से निर्णय करता है। अब हमारी यहाँ चर्चा का जो विषय है , वह द्रव्य एवं पर्याय पर केंद्रित है। इनमें भेदाभेदपना विचारने से पहले इनके स्वरूप को ही थोड़ा विस्तार से देखते है। मोक्षशास्त्र जी मे कहतें है कि जो गुण और पर्यायों से संयुक्त हो वह द्रव्य है। अब यहाँ जो कथन है वह ज्ञानप्रधान है क्योंकि दृष्टिप्रधान कथन से तो द्रव्य में पर्याय से भेदपना कहा है। तथा अगर हम द्रव्य को और सूक्ष्मता से देखे तो द्रव्य में अनन्त गुण है और प्रत्येक गुण की त्रिकाल की मिलाकर अनन्त पर्याये होती है। यह गुण ही द्रव्य की अचल संपदा है तथा यह ही द्रव्य का आधार है। यदि द्रव्य में से गुणों का अभाव हो जाये तो द्रव्य में कुछ बचेगा ही नही। अथवा कहें तो द्रव्य ही नही बचेगा। अब कोई कहता है कि गुणों का कार्य किसप्रकार होता है ? तो यहां कहतें है कि गुणों का जो परिणमन अथवा उनका जो कार्य अथवा उनका जो विकार , वह पर्याय है। तथा श्री प्रवचनसार जी की गाथा ८० की टीका एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा जी में भी पर्याय का विशेष वर्णन आया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा जी में आचार्य भगवान कहतें है कि एक अवस्था का बदलकर दूसरी अवस्था का द्रव्य में प्रगटना ही पर्याय है। जैसे स्वर्ण रूप कुंडल को स्वर्णकार कड़े का रूप प्रदान कर देता है। तब यहां कुंडल रूप अवस्था का व्यय एवं कड़े रूप अवस्था का उत्पाद द्रव्य में हुआ है। पर्याय का प्रतिसमय उत्पाद एवं व्यय ही द्रव्य में होता रहता है। हर समय एक नई अवस्था द्रव्य में प्रगटती है तथा इस पर्याय की पलटन से ही गुणों का परिणमन होता है। तथा इस एक पर्याय का काल कितना होता है ? एक समय। यह एक समय ही कितना सूक्ष्म है तथा एक सेकंड मात्र में द्रव्य में प्रतिसमय का काल लिए हुए कितनी पर्याय उत्पन्न एवं नष्ट भी हो जाती है , उसका अंदाज़ा इस वर्णन से लगाया जा सकता है – विज्ञान के अनुसार एक सेकंड में एक अरब नैनोसेकंड होते है तथा एक नैनोसेकंड में एक हजार पीकोसेकंड होते है। तथा एक आवली जिसमें जघन्य युक्तासंख्यात समय होते है , और वह आवली एक पीकोसेकंड से भी कुछ कम है। तब यहाँ एक सेकंड में कितने समय होते है एवं एक सेकंड में ही द्रव्य में कितनी पर्याये पलट जाती है , इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इसलिए विशेष यह है कि द्रव्य में यद्यपि कोई फर्क न पड़ रहा हो जैसे की सोने का कुंडल दस वर्ष तक भी कुंडल रूप अवस्था मे हो लेकिन परिणमन तो उसमें निरंतर चल ही रहा है। गुण भी द्रव्य में तबतक ही अपना स्थायित्व बनाए हुए है , जबतक वह परिणम रहे है। अगर उनका परिणमन रुका तो नाही वह गुण बचेंगे न द्रव्य।

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As far as my thoughts are concerned, Substance, attributes and modifications are independent and dependent.

Independence of substance-attributes-modifications
Substance is a single, constant substratum which is widely spread across it’s fulcrum.
Attribute is a constant property/capability that gives a different color/form to the substance. They are innumerable in number.
Modification is the constantly changing form of the attribute or substance that never stays as is.

Dependence of Substance-Attributes-Modifications
Substance needs attributes to be able to function and attributes need modifications to express their efficiency.

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Neither do they separately exist or co exist. The word exist it self means utpad-vyay-dhrovyatmak. One who understands the word exist will not have the question about separate/independent existence.

Sayyamji has made a good attempt to explain

To further and clearly understand the word exist… read it this way …

A substance has attributes through which it fuctions and it expresses its efficiency through its modification. Oneness of it all is call exist.