कारण कार्य रहस्य | डॉ. उज्जवला शाह

कक्षा न. 16,पत्रांक न.5,चार अभाव
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 17,पत्रांक न.5,चार अभाव
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 18,पत्रांक न.5,चार अभाव
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 19,पत्रांक न.5,चार अभाव- 2
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 20,पत्रांक न.5,चार अभाव- 2
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 21,पत्रांक न.5,चार अभाव- 2
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 22,पत्रांक न.5,चार अभाव- 2
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 23,पत्रांक न.6, निमित्त
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 24,पत्रांक न.6, निमित्त
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 25,पत्रांक न.6, निमित्त
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 26, पत्रांक न.6, निमित्त
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 27,पत्रांक न.6, निमित्त
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 28,पत्रांक न.7, निमित्त-नैमेत्तिक संबंध
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 29,पत्रांक न.7, निमित्त-नैमेत्तिक संबंध
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 30,पत्रांक न.7, निमित्त-नैमेत्तिक संबंध
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 31,पत्रांक न.7, निमित्त-नैमेत्तिक संबंध
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 32,पत्रांक न.7, निमित्त-नैमेत्तिक संबंध
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 33,पत्रांक न.8, उपादान कारण
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 34,पत्रांक न.8, उपादान कारण
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 35,पत्रांक न.8, उपादान कारण
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 36,पत्रांक न.9, षट्कारक
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 37,पत्रांक न.9, षट्कारक
अनुभव भैया, पुणे
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कक्षा न. 38,पत्रांक न.9, षट्कारक
अनुभव भैया, पुणे
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            चार  अभाव 

प्रागभाव आदि चारो भाव अभाव रूप दशाते है ।चार भाव जब दृष्टि में अस्त्ति रूप समाते है तब अनेकान्त में नास्ति रूप में सहज ही चार अभाव प्रकट होते है
अनेकान्त का यह लक्षण है कि वस्तु में वस्तुपने कई परस्पर विरुद्ध दो अस्त्ति नास्ति शक्तियों को एक साथ प्रकाशन करने वाली शक्ति को अनेकान्त कहते है।
अतः अब नास्ति रूप चार अभाव का
वर्णन करते है

1 प्राग भाव आत्मा ने पूर्व में कोई भी कर्म बांधे नही है ।पूर्व की पर्याये का वर्तमान की पर्याये में सदा काल अभाव है
पूर्व के संस्कारो के कारण पर से राग देष होता है यह मिथ्यात्व हुआ क्योंकि जब आत्मा ने पूर्व में कोई कर्म बांधे ही नही तो राग देषका कोई कारण ही नही बनता ।आत्मा तो सदा से कर्म या परद्रव्य से रहित है ।ऐसा मानने से जो अनादि से मिथ्या बुद्धि चली आ रहीं है उसका नाश हो सत्य मार्ग दिखाई देता है ।यह प्राग भाव अनादि के भृम को तोड़कर आत्मा को कर्मो से पृथक जान कर मुक्ति का मार्ग प्रसस्त होता है ।

प्रधुशा भाव आत्मा को तीन काल मे किसी कर्म का उदय नही आता है ।
कर्म का उदय कर्म में है और आत्मा आत्मा में है ।कर्म का कितना भी त्रीव पाप का उदय हो या ऊंचे से ऊंचा पुण्य का उदय हो आत्मा पाप और पुण्य के उदय को भोगता नही क्योंकि आत्मा तो पुण्य पाप से रहित एक मात्र ज्ञायक भाव है ।आत्मा स्त्री , पुरुष ,नपुंसक,धनी ,निर्दन आदि से रहित एक ज्ञायक भाव है ।कोई भी कर्म ने आत्मा को आज तक न छुआ है और न छू सकता है।आज तक कोई भी कर्म का उदय आत्मा को आया ही नही जो कर्म के उदय को मानता है वो मिथ्यात्व का पोषड कर अपनी स्व सत्ता को भूलता है ।
यह भाव को धारण करने से हम तत्काल ही स्वय कक बंध रूप नही मानते हुए सत और स्वत्रन्त्र रूप जानते हुए अनत शांति का वेदन करते है और एक मात्र अपने ज्ञायक भाव का ही अबलोकन करते है ।जिससे समस्त विकारी भावो का विलय स्वतः हो जाता है करना नही पड़ता ।

3 अन्योन्या भाव पुद्गगल द्रव्य के गुणों और उसकी समस्त पर्यायो में अन्योन्या भाव है ।पुद्गगल द्रव्य का एक एक गुण मात्र अपनी स्व पर्याये में ही पसरा रहता है ।इस भाव को अपने जीवन मे उतारने से वितराग भाव प्रकट होता है ।
जैसे किसी ने हमे तलवार से मारा ।तलवार हाथ को छू नही सकती क्योंकि तलवार का द्रव्य ,क्षेत्र,काल ,भाव तलवार में है और हाथ के द्रव्य ,क्षेत्र ,काल ,भाव हाथ में है जब एक दूसरे को स्पर्श ही नही करते तो मारा कैसे ।ऐसे विचार आए हमारे जीवन मे अपार शांति का वेदन होता है।संयोगी भाव से देखने पर मात्र एक दूसरे से मिले हुए दिखते है ,स्वभाब से देखे तो प्रत्येक द्रव्य की पर्याये भिन्न भिन्न है एक दूसरे को स्पर्श कभी करती नही ।
इसी प्रकार चाकू से सब्जी नही बनती ,अग्नि सेपानी गर्म नही होता ,भोजन से भूख नही मिटती ,पानी से प्यास नही बुझती ।संयोग्य दृष्टि से मात्र निगोद का बंध होता है और दुख और आकुलता का कारण है ।एक मात्र स्वभाव दृष्टि ही मुक्ति का कारण है ।अनत् दुख और आकुलता का मिटाने का एक मात्र उपाय स्व के ज्ञायक की दृष्टि करना है ।

4 अत्यन्ता भाव एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का सर्वथा अभाव है । आत्मा अपने स्व चतुष्ट्य में सदा काल विराजमान रहता है ।पुदगल द्रव्य की पर्याये पुद्गगल के ही पसरे रहते है ।स्वभाब दृष्टि से देखे जो प्रत्येक द्रव्य की पर्यय स्व में ही रहती है यह जैन धर्म का एक महा सिदान्त है ।एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ता भाव है ।जैसे आखों से दिखता नही ,कान से सुनाई नही देता ,पैर जमीन को छूते नही ,गाली सुनने से क्रोध नही आता ।यदि यह बात समझ आ जाये तो हमारे जीवन मे एक मात्र समता भाव ही रहेगा ।यह समता भाव एक मात्र स्वभाब दृस्टि से ही संभव है अन्य कोई और उपाय नही ।
पर्यय या संयोग दृष्टि से आज तक न किसी का भला हुआ है और न कभी होगा एक मात्र स्वभाव दृष्टि ही मुक्ति का कारण है ।
समस्त जीव अपने स्वभाव की दृष्टि कर मुक्त दशा को वरन करे एक यही मंगल भावना है।