शिथिलाचार के खिलाफ आवाज़

क्या मुनियो में आये शिथिलाचार के खिलाफ आवाज़ उठाना चाहिए या फिर चुप रहना चाहिए? यदि चुप रहते हैं तो यह फिर और बढ़ेगा,और यदि बोलते हैं तो समाज की नजर में बुरे बनेगे?

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हर विवाद का हल हो सकता स्याद्वाद के द्वारा

इस पंक्ति का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि स्याद्वाद का मार्ग शांति का मार्ग है । हम अपनी बात किसी पर भी नही थोप सकते , परन्तु ये मार्ग ऐसा है कि, जिसके सहारे व्यक्ति दुनिया जीत सकता है ।

जब-जब शिथिलाचार के खिलाफ आवाज उठाने का प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है , और जब अंतरंग में ये द्वंद चल रहा हो, कि क्या हमें इसे रोकना चाहिए या नही , तो सर्वप्रथम मैं पंडित टोडरमलजी साहब के छठवें अधिकार की उन पंक्तियों का चिंतवन करता हूँ, जिन पंक्तियों में पंडितजी की अपार हृदयगत पीड़ा झलकती है, वहाँ वे कहते हैं कि कालदोष से जिनमत में भी ऐसी विपरीतता आयी है

◆ दूसरी बात यह भी है कि पंडित जी ने ही कहा कि


कि वे दंड के पात्र हैं ।
ये पंक्तियाँ बाहरी द्वंद को तो समाप्त नही कर पाएंगी , परन्तु अपने हृदय में चलने वाले वैकल्पिक-द्वंद को तो समाप्त कर ही देंगी ।

● मैं इसे गलत अर्थ ग्रहण करना नही कहूंगा परन्तु ये पंक्तियाँ समाज के लिए यह भी संदेश प्रेषित कर रही है कि किन्ही मायनों में कर्तव्य तो समाज का भी है । यदि हम ही सज़ग नही होंगे , तो और कौन होगा…?

● मैंने पंडितश्री बैनाड़ा जी के मुख से भी यह सुना है कि यदि हमें किन्ही मुनिराज के आचरण के कोई शिथिलता दिखाई पड़ती है , तो सर्वप्रथम हमे उनसे एकांत में यह बात कहनी चाहिए , तथा यदि तब भी वे उस शिथिलता को ही बरकरार रखतें हैं, तो हमे उनका बहिष्कार करना चाहिए ।

● आज के समय में क्रोधित होकर जो कपड़े पहनाने के पद्धति सी चल पड़ी है, मैं उसके समर्थन में नही हूँ, ये हमारा कर्तव्य नही है, दंड देंनें का काम अपने से बड़ो का होता है, इसलिए दंड देने के लिए आचार्य ही जिम्मेदार है ।

● बिल्कुल…!! हमे आवाज़ उठानी चाहिए, परन्तु अपने स्थान को ध्यान में रखते हुए ।

● समाज की नज़र में बुरा बनने का भय दृढ़-श्रद्धानियों को नही होता , क्योंकि ये पंडित टोडरमलजी के ही शब्द हैं कि पाप का अनुमोदन करने वाले को भी बराबर का फल मिलता है ।

● शिथिलाचार के अंत का समाधान रैलियां या धरने या मंच से खड़े होकर भाषण देना नही हो सकता , इसका एक मात्र समाधान सम्यक-एकांत स्वरूप चरणानुयोग है ।
ये तो प्रसिद्ध कथन है कि ज्ञान सर्व-समाधान कारक है ।

इस शंका के निवारणार्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक का 6th अधिकार मननीय, चिंतनीय है ।

इत्यलम् अधुना ।।

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इसके अनेकों प्रकार हैं -

  1. एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया जाए, जिसमे एक समान मानसिक प्रवृत्ति वाले लोगों को जोड़ा जाए जो मुनि शिथिलाचार के विरुद्ध हैं, और बाद में जगह जगह से फ़ोटो, वीडियो आदि एकत्रित करके वहाँ गौरव के साथ प्रेषित की जाएं। पश्चात सभी मिलकर शुद्र समान वचनों से निंदा करें। सो यह आवाज़ उठाना है।

  2. फेसबुक पर डालकर समाज के दोनों गुटों वाद विवाद में निपुण कमेंटाओं से उस पर भीषण comments करवाये जाएं। सो यह भी आवाज़ ही उठाना है।

  3. कुछ लोगों के साथ बैठकर शिथिलाचारियों की गोष्ठी के समान चर्चा करना। सो यह भी आवाज़ उठाने का ही प्रारूप है।

और न जाने इसके कितने भेद प्रभेद हैं।

अब समाधान -

समाज की सर्वोच्च संस्थाएं जो राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत हैं वे एक आचार संहिता का निर्माण करें, उससे सभी संघ के आचार्यों को अवगत कराएं, उल्लंघन करने पर आगमानुकूल दण्ड निर्धारित करें।

स्थानीय स्तर पर भी समाज को उस आचार संहिता से अवगत कराया जाए। विपरीत आचरण दिखने पर आचार्य एवं उच्च समिति को अवगत कराया जाए।

दोष हो तो प्रायिश्चित का प्रावधान हो, अपराध हो तो दण्ड का।

आगम के अनुसार आचरण में शिथिलता की पराकाष्ठा को समझा जाये, पुस्तक तैयार की जाए और समाज के बीच स्वयं मुनियों द्वारा उस पर प्रवचन करवाएं जाएं।

अनुमानतयः कुछ तो लाभ होगा, अन्यथा कुगुरु भी सुगुरु होते दिख रहे हैं, पुज रहे हैं, समाज को भ्रमित कर रहे हैं।

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क्या जैन चरणानुयोग के पोषक मूलाचार आदि ग्रंथ जैन-आचार संहिता स्वरूप नही है…?

यदि नही है…? , तो हमे एक अलग आचार-संहिता की आवश्यकता है…!!

तथा एक बात यह भी है, कि लोग अंधभक्त इतने होते है कि यह आचार-संहिता गृहस्थों द्वारा बनाई गई है…!,
इत्यदि प्रश्न उपस्थित करके उसे अप्रमाणित सिद्ध करने लग जाएंगे ।

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समाज शास्त्र भी एक विधा है, उससे समाधान सामाजिक स्तर पर काल और परिस्थिति देख कर होता है। अतः वह इसका समाधान है।

सर्वोच्च संस्थान भी आचार्यों के साथ बैठकर इस पर विचार करके निर्णय स्वरूप संहिता का निर्माण करें।

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बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है ।नीरज जी ने
उसके ऊपर @Sanyam_Shastri और @anubhav_jain जी ने इसके ऊपर अच्छा समाधान दिया है।

यहाँ पर समाज के सभी लोगो को (बिसपंथ,तेरापंथ आदि जितनेभी है)उनके वहाँ पर मुनि का,प्रतिमाधारी का आचरण कैसा होता है यह मुलग्रंथो के माध्यम से जागृता लानी चहियेऔर शिविर आदि खूब लगाना चाहिए।

क्योंकि आज की जैन समाज मे हमे अज्ञानता की चरमसीमा देखने को मिलती है,मुनि के कमरेमे अकेले लड़की साथ पकडने का वीडियो viral होने बाद भी लोग उनका बहिष्कार नही करते है, उनका आदर सम्मान करते है इससे हल्का और क्या हो सकता है?

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जी बिल्कुल, यह एक बहुत अच्छा उपाय है, मनुष्य के पास जागरूकता लाना एक बहुत बड़ा साधन है ।
:raised_hands:

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जी , बिल्कुल सही है…!
बस समस्या फिर भी वैसी ही बनी रहेगी, क्योंकि कौन सर्वोच्च है…? , कौन सही…? , कौन गलत…? , इसका निर्णय नही लिया जा सकता । भाईसाहब कोई आपको निर्णय लेने दे…! , तब न…!!! हमे लगता है कि जागृति लाएं, परन्तु जिन्हें मनाना है, वे ही विरोध का जब प्रतिनिधित्व करेंगें, तब हम क्या करेंगें…?

अगर वास्तविकता में शिथिलाचार का अंत चाहिए, तो हमें टोडरमलजी की आम्नाय को स्वीकारना होगा और इसी का प्रचार करना होगा हम कुन्दकुन्द की आम्नाय वाले है, हम शुद्ध आम्नाय के अनुयायी है, जब समस्त पन्थ के लोग बैठेंगें, तब भी निर्णय नही हो पायेगा ।

सबका प्रश्न यही होगा कि तुम कौन होते हो…? ,हमारा निर्णय लेने वाले । और उनका निर्णय जो भी होगा, उससे वास्तविक धर्म की परिभाषा तो नही उभरेगी न…!

भाईसाहब , इसे शिथिलाचार की पराकाष्ठा ही कहना होगा , जब कुछ परिग्रह धारी को ग्रंथों में नरक-गामी कह दिया हो,
तो क्या ऐसे आचरण को अचराने वाले मुनिराज हमारी और आपकी बात मानेंगे, क्या उनके अनुयायी मानेंगे…?

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भगवान का साक्षात समोशरण आ जाये तो भी सभी को सुधार नही सकते तो हम जैसे कि क्या बात?
जहां तक हो सके वहां तक तत्वप्रचार करना।

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वीर वाणी के मार्च 1967 के प. टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु नामक लेख के कुछ अंश संलग्न करता हूँ।
पूरा लेख ही मूल में पठनीय है।

!

यह लेख प. मिलापचंद्र जी कटारिया द्वारा लिखित है तथा उनके शोध खोज पूर्ण मौलिक निबन्धों का संकलन जैन निबन्ध रत्नावली भाग 2 (pdf link) में यह लेख आपको प्राप्त होगा।

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यह लेख वास्तविकता में हमें व्यर्थ की चर्चाओं व विवादों से छुटकारे के लिए उत्तम एवं सही विकल्प है। समयानुसार इस लेख को पढ़ना चाहिए।