द्रव्यलिंगी मुनि सारे दिन किसका ध्यान करते होंगे?

मुनि वन में अकेले क्या करते है ? भावलिंगी संत तो आत्म का ध्यान करते है उसमे ही मगन रहते है पर द्रव्यलिंगी मुनि वो किसका ध्यान करते है ? कहा मगन रहते है ? जंगल में अकेले कैसे टाइम निकलते है ? क्योंकि आत्मस्वरूप में स्थिरता तो उनके है नहीं , ७वा गुणस्थान उन्हें है नहीं , यह ग्रैवेयक तक जाते है , सो इनके मन में विषयो की चाह तो है नहीं , और आत्मा की अनुभूति इन्हे है नहीं , सो किसका ध्यान किया जिसका फल ग्रैवेयक हुआ?

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द्रव्यलिंगि मुनि समकीती 4th या 5th गुणस्थान के धारक होते है
या 1st गुणस्थान के धारक मिथ्यात्वी होते है।

अगर समकीती है तो विशेष लीनता का प्रयत्न (भावलिंग का प्रयत्न ) और साथमें द्रव्य चरित्र (पांच महाव्रत, समिति इत्यादि) को अतिचार रहित एवं उपादेय बुद्धि रहित पालन करने का प्रयत्न करते है
और मिथ्यात्वी द्रव्यलिंगि मुनि हो तो या तो वे तत्वश्रद्धान का प्रयत्न और पांच महाव्रत पालन, समिति इत्यादि का एकत्व पूर्वक विकल्प करते है और उनकी क्रियाएं भी उपादेय बुद्धि पूर्वक होती है।
(शाश्त्र रचना/ स्वाध्याय इत्यादि गर्भित है)

देव गतिमे उत्पन्न होना पुण्यफल है
समकीती और मिथ्यात्वी दोनो ग्रैवेयक में उपजते है।
मिथ्यात्व सहित उत्कृष्ट पुण्यफल 9th ग्रेवयक में उपजना है
अत्यंत मंद कषाय (मिथ्यात्व सहित) के परिणाम होने से 9th ग्रैवेयक तक ही उपजते है।

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द्रव्यलिंगी मुनिराज - 1 से 5 गुणस्थान वर्ति मुनिराज
भावलिंगी मुनिराज - 6 से 12 गुणस्थान वर्ति मुनिराज

अगर कोई भावलिंगी मुनिराज 6 ठवे गुणस्थान से अन्तरमुहरत के लिए मिथ्यात्व में आये और वापस 7 वे गुणस्थान में जाये तो मिथ्यात्व के काल में द्रव्यलिंगी बाद में भावलिंगी। ऐसा मुनिराज के जीवन काल मे कई बार चलता रहता है। ऐसा छद्मस्त जीव बाहर से गुणस्थान पहचान नही सकते ।भाव लिंग और द्रव्यलिंग पना मुनिराज के जीवन मे चलता रहता है।

मुनिराज तो निरतंर आत्मसन्मुख होने का निरंतर प्रयास करते होंगे।

हमे ऐसा नही कहना चाहिए कि उनको आत्मानुभव नही हुआ है।
वे सम्यकदृष्टि हो सकते है।बिना आत्मानुभव सम्यक्त्व हो नही सकता।पंचमगुणस्थान वर्ति भी हो सकते है। पंचम गुणस्थान वर्ति को 15 दिन के अंतराल में आत्मानुभव हो जाता है।4 थे गुणस्थान वर्ति को 6 महीने के अंतराल में आत्मानुभव होता है।

ग्रेवक में जाने की बात -
पद्मपुराण में एक घटना आती है अजितनाथ भगवान के समोशरण में उपस्थित प्रथम चरम शरीरी राक्षस वंशी राजा घनवाहन ने पूर्व भव में मिथ्यात्व अवस्था मे मुनि बनकर 28 मूलगुण का अखंड रूप से पालन कर ,कठोर तप, परीषह ,आदि करके वे नोवे ग्रेवक गए थे। इसमे कठोर तप परीषह का वर्णन पद्मपुराण मुलग्रन्थ में आपको मिल सकता है।
इसके साथ कषाय की अत्यन्त मंदता की जीव को भ्रम भी हो जाये कि मुंजे आत्मानुभव हुआ है।इतनी मंद कषाय होती है। इस तरह जीव नोवे ग्रेवक जा सकता है।

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  • अकेले रहने पर कुछ करने को नहीं है, और साथ रहने में बहुत कुछ है - ऐसा नियम तो है नहीं । उपयोग लगाने के लिए साधन बहुत है । जब सीमा पर सैनिक अकेले अकेले दिन भर सावधान रहकर युद्ध आदि कर सकते है, भोगों में आनंद लेने वाले जीव दिन भर प्रवृत्ति करने के बाद भी ऊबते नहीं, अगले दिन फिर लग जाते है, तो मुनिदशा तो मोक्ष प्राप्त करने के लिए ग्रहण की है । जहाँ चाह, वहाँ राह । आज नहीं तो कल, वे भावलिंग शीघ्र प्रगट करेंगे । क्योंकि वे ही उस भावलिंग की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम पात्र है ।

  • द्रव्यलिंगी अर्थात् मिथ्यात्व सहित ही हो, ऐसा तो है नहीं । जैसा कि @Vishal_Doshi और @Kishan_Shah ने स्पष्ट कर ही दिया है । सो सम्यक्त्व सहित मुनिदशा में उतने ज्यादा विकल्प नहीं होते जैसा कि मिथ्यात्व दशा में होते हो ।

  • रही बात मिथ्यात्व सहित द्रव्यलिंग दशा की, सो करणानुयोग में तारतम्य रूप (minimum and maximum limit) कथन होते है । यहाँ तो क्या-क्या संभव है उसकी मुख्यता से सब बातें चलती है । अतः कोई प्रथम गुणस्थान में हो और द्रव्यलिंगी मुनिराज हो यह बहुत दुर्लभ है । ऐसा नहीं कि हो ही नहीं सकता । लेकिन अनुपात हमेशा कम रहेगा । राजमार्ग तो यही है कि पहले सम्यग्दृष्टि हो, पश्चात् व्रतादि । किसी को पहले वैराग्य आये, तो कुछ विशेष हानि नहीं ।

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