द्रव्यसंग्रह पद्यानुवाद

द्रव्यसंग्रह पद्यानुवाद

षड्द्रव्य-पंचास्तिकाय अधिकार

( हरिगीत )
कहे जीव अजीव जिन जिनवरवृषभ ने लोक में
वे वंद्य सुरपति वृन्द से बंदन करूं कर जोर मैं ।।१।।
जीव कर्ता भोक्ता अर अमूर्तिक उपयोगमय ।
अर सिद्ध भवगत देहमित निजभाव से ही ऊर्ध्वगत ।।२।।
जो सदा धारें श्वास इन्द्रिय आयु बल व्यवहार से ।
वे जीव निश्चय जीव वे जिनके रहे नित चेतना ।।३।।
उपयोग दो हैं ज्ञान-दर्शन चार दर्शन जानिये।
चक्षु चक्षु अवधि केवल नाम से पहिचानिये ।।४।।
ज्ञान आठ मतिश्रुतावधि ज्ञान भी कुज्ञान भी।
मन:पर्यय और केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष भी ।।५।।
सामान्यतः चऊ-आठ दर्शन-ज्ञान जिय लक्षण कहे।
व्यवहार से पर शुद्धनय से शुद्धदर्शन-ज्ञान हैं ।।६।।
स्पर्श रस गंध वर्ण जिय में नहीं हैं परमार्थ से।
अत: जीव अमूर्त मूर्तिक बंध से व्यवहार से ।।७।।
चिद्कर्म कर्ता नियत से द्रव कर्म का व्यवहार से ।
शुधभाव का कर्ता कहा है आत्मा परमार्थ से ।।८।।
कर्मफल सुख-दुक्ख भोगे जीव नय व्यवहार से
किन्तु चेतनभाव को भोगे सदा परमार्थ से ।।९।।
समुद्घात विन तनमापमय संकोच से विस्तार से ।
व्यवहार से यह जीव असंख्य प्रदेशमय परमार्थ से ।।१०।।
भूजलानलवनस्पति अर वायु थावर जीव हैं।
दो इन्द्रियों से पाँच तक शंखादि सब त्रस जीव हैं ।।११।।
पंचेन्द्रियी संज्ञी-असंज्ञी शेष सब असंज्ञि ही हैं।
एकेन्द्रियी हैं सूक्ष्म-बादर पर्याप्तकेतर सभी हैं ।।१२।।
भवलीन जिय विध चतुर्दश गुणस्थान मार्गणथान से।
अशुद्धनय से कहे है पर शुद्धनय से शुद्ध हैं ।।१३।।
उत्पादव्ययसंयुक्त अन्तिम देह से कुछ न्यून हैं।
लोकाग्रथित निष्कर्म शाश्वत अष्टगुणमय सिद्ध हैं ।।१४।।
मूर्त पुद्गल किन्तु धर्माधर्म नभ अर काल भी।
मूर्तिक नहीं है तथापि ये सभी द्रव्य अजीव हैं ।।१५।।
थूल सूक्षम बंध तम संस्थान आतप भेद अर ।
उद्योत छाया शब्द पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ।।१६।।
स्वयं चलती मीन को जल निमित्त होता जिसतरह।
चलते हुए जिय-पुद्गलों को धरमदरव उसीतरह ।।१७।।
छाया निमित्त ज्यों गमनपूर्वक स्वयं ठहरे पथिक को।
अधरम त्यों ठहरने में निमित्त पुद्गल-जीव को ।।१८।।
आकाश वह जीवादि को अवकाश देने योग्य जो।
आकाश के दो भेद हैं जो लोक और अलोक हैं ।।१९।।
काल धर्माधर्म जीव पुद्गल रहें जिस क्षेत्र में।
वह क्षेत्र ही बस लोक है अवशेष क्षेत्र अलोक है ।।२०।।
परिवर्तन रूप परिणामादि लक्षित काल जो।
व्यवहार वह परमार्थ तो बस वर्तनामय जानिये ।।२१।।
जानलो इस लोक को जो एक-एक प्रदेश पर ।
रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरब ।।२२।।
इसतरह ये छह दरब जो जीव और अजीवमय ।
कालबिन बाकी दरब ही पंच अस्तिकाय हैं ।।२३।।
कायवत बहुप्रदेशी हैं इसलिए तो काय है।
अस्तित्वमय हैं इसलिए अस्ति कहा जिनदेव ने ।।२४ ।।
हैं अनंत प्रदेश नभ जिय धर्म अधर्म असंख्य हैं।
सब पुद्गलों के त्रिविध एवं काल का बस एक है ।।२५।।
यद्यपि पुद्गल अणु है मात्र एक प्रदेशमय।
पर बहुप्रदेशी कहें जिन स्कन्ध के उपचार से ।।२६।।
एक अणु जितनी जगह घेरे प्रदेश कहें उसे।
किन्तु एक प्रदेश में ही अनेक परमाणु रहें ।।२७।।
बंध आस्रव पुण्य-पापरु मोक्ष संवर निर्जरा।
विशेष जीव अजीव के संक्षेप में उनको कहें ।।२८।।
कर्म आना द्रव्य आस्रव जीव के जिस भाव से।
हो कर्म आस्रव भाव वे ही भाव आस्रव जानिये ।।२९।।
मिथ्यात्व-अविरति पाँच-पाँचरू पंचदश परमाद हैं।
त्रय योग चार कषाय ये सब आस्रवों के भेद हैं ।।३०।।
ज्ञानावरण आदिक करम के योग्य पुद्गल आगमन।
है द्रव्य आस्रव विविधविध जो कहा जिनवर देव ने ।।३१।।
जिस भाव से हो कर्मबंधन भावबंध है भाव वह ।
द्रवबंध बंधन प्रदेशों का आत्मा अर कर्म के ।।३२।।
बंध चार प्रकार प्रकृति प्रदेश थिती अनुभाग ये।
योग से प्रकृति प्रदेश अनुभाग थिती कषाय से ।।३३।।
कर्म रुकना द्रव्य संवर और उसके हेतु जो ।
निज आत्मा के भाव वे ही भाव संवर जानिये ।।३४।।
व्रत समिति गुप्ती धर्म परिषहजय तथा अनुप्रेक्षा
चारित्र भेद अनेक वे सब भावसंवररूप है ।।३५।।
द्रव निर्जरा है कर्म झरना और उसके हेतु जो ।
तपरूप निर्मल भाव वे ही भावनिर्जर जानिये ।।३६।।
भावमुक्ती कर्मक्षय के हेतु निर्मलभाव हैं।
अर द्रव्यमुक्ती कर्मरज से मुक्त होना जानिये ।।३७ ।।
शुभाशुभ परिणामयुत जिय पुण-पाप सातावेदनी।
शुभ आयु नामरु गोत्र पुण अवशेष तो सब पाप है ।।३८।।
सम्यग्दरशसद्ज्ञानचारित्र मुक्तिमग व्यवहार से।
इन तीन मय शुद्धातमा है मुक्तिमग परमार्थ से ।।३९।।
आत्मा से भिन्न द्रव्यों में रहें न रत्नत्रय।
बस इसलिए ही रतनत्रयमय आतमा ही मुक्तिमग ।।४०।।
जीवादि का श्रद्धान समकित जो कि आत्मस्वरूप है।
और दुरभिनिवेश विरहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।।४१।।
संशयविमोहविभरमविरहित स्वपर को जो जानता।
साकार सम्यग्ज्ञान है वह है अनेकप्रकार का ।।४२।।
अर्थग्राहक निर्विकल्पक और है अविशेष जो।
सामान्य अवलोकन करे जो उसे दर्शन जानना ।।४३।।
जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक।
पर केवली के साथ हो दोनों सदा यह जानिये ।।४४।।
अशुभ से विनिवृत्त हो व्रत समितीगुप्तिरूप में।
शुभभावमय हो प्रवृत्ती व्यवहारचारित्र जिन कहें ।।४५।।
बाह्य अंतर क्रिया के अवरोध से जो भाव हों।
संसारनाशक भाव वे परमार्थ चारित्र जानिये ।।४६।।
अरे दोनों मुक्तिमग बस ध्यान में ही प्राप्त हो।
इसलिए चित्तप्रसन्न से नित करो ध्यानाभ्यास तुम ।।४७।।
यदि कामना है निर्विकल्पक ध्यान में हो चित्त थिर ।
तो मोह-राग-द्वेष इष्टानिष्ट में तुम ना करो ।।४८।।
परमेष्ठीवाचक एक दो छह चार सोलह पाँच अर।
पैंतीस अक्षर जपो नित अर अन्य गुरु उपदेश से ।।४९।।
नाशकर चऊ घाति दर्शन ज्ञान सुख अर वीर्यमय ।
शुभदेहथित अरिहंत जिन का नित्यप्रति चिन्तन करो ।।५०।।
लोकाग्रथित निर्देह लोकालोक ज्ञायक आत्मा ।
आठ कर्म नाशक सिद्ध प्रभु का ध्यान तुम नित ही करो ।।५१।।
ज्ञान-दर्शन-वीर्य-तप एवं चरित्राचार में।
जो जोड़ते हैं स्वपर को ध्यावो उन्हीं आचार्य को ।।५२।।
रत्नत्रय युत नित निरत जो धर्म के उपदेश में ।
सब साधु जन में श्रेष्ठ श्री उवझाय को वंदन करें ।।५३।।
जो ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र की आराधना ।
कर मोक्षमारग में खड़े उन साधुओं को है नमन ।।५४।।
निजध्येय में एकत्व निष्पृहवृत्ति धारक साधुजन।
चिन्तन करें जिस किसी का भी सभी निश्चय ध्यान है।।५५।।
बोलो नहीं सोचो नहीं अर चेष्टा भी मत करो।
उत्कृष्टतम यह ध्यान है निज आतमा में रत रहो ।।५६।।
व्रती तपसी श्रुताभ्यासी ध्यान में हो धुरंधर ।
निज ध्यान करने के लिए तुम करो इनकी साधना ।।५७।।
अल्प श्रुतधर नेमिचंद मुनि द्रव्यसंग्रह संग्रही।
अब दोषविरहित पूर्णश्रुतधर साधु संशोधन करें ।।५८।।

ईसवी सन् दो सहस दो अर चतुर्दश दिसम्बर ।
को द्रव्यसंग्रह शास्त्र का पूरण हुआ अनुवाद यह ।।

रचयिता : आचार्य नेमीचंद सिद्धान्ति देव
पद्यानुवाद : आ. डाॅ. हुकमचंद भारिल्ल

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