कभी कभी जीव निरंतर आत्मा की बात सुनते सुनते और आत्मा का अभ्यास ग्रंथ में पढते हुऐ निरतंर यही बात चित्त में चलती है और अन्तानु बंधी कषाय के मंद उदय में जीव को भ्रम भी हो सकता है मुजे आत्मा का अनुभव हुआ है।
निश्चय से छद्मस्त जीव पहचान सकता है की मुजे सम्यक्त्व हुआ है?
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जी 100%. जब आत्मानुभूति होती है तो जीव को देह और खुदकी भिन्नता अनुभव में आ जाती है। और वह निशंक हो जाता है।
जब सोभागभाई को श्रीमदजी के निमित्तसे स्वानुभूति हुई तब उन्होंने कहा कि "हमे खुदका स्वरूप फट्ट (एकदम - बिल्कुल) भिन्न अनुभव में आया।
यही बात बहेनश्री ने गुरुदेवश्री से कही की आपके प्रताप से मुझे स्वानुभूति हुई है। और इससे भी आगे चलके मतिश्रुतज्ञान में केवलज्ञान का स्वरूप भी ख्याल में आ जाता है।
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स्वानुभूति = (निर्विकल्पता + आनंद)
विशुद्धि = (विकल्प + आनंद)
To understand the difference:
- जिस समय आनंद हुआ हो, उस समय यदि कोई विकल्प साथ में है (जैसे - यह सुख, मैं आत्मा, मैं ज्ञान etc) - तो वह विशुद्धि है, स्वानुभूति नहीं
- जिस समय स्वानुभव होता है उस समय यदि आखें खुली हो तो भी देखना बंद हो जाता है, सुनना बंद हो जाता है, क्योंकि उपयोग अन्य सर्व का लक्ष्य छोड़कर अपने को ही जानने लगता है
और यह सब अपूर्व आनंद के साथ होता है,
फिर अगले छड़ (जब स्वानुभव छूटता है) तब यह विकल्प आते है की "मुझे देह और खुदकी भिन्नता दिखी, या मुझे सुख हुआ etc)
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विशुद्धि मंद कषाय एवं इंद्रियजनित आनंद है, आनंद का भास है।
स्वानुभूति निर्विकल्प अतीन्द्रिय आनंद है
दोनो में जाति भिन्नता है
विशुद्धि में अनुभूति का भ्रम हो सकता है
लेकिन स्वानुभूति होते ही जीव निशंक हो जाता है।
पर मेरे अनुसार विशुद्धि मे भी अतीन्द्रिय आनंद आ सकता है, ऐसा जरूरी नहीं की विशुद्धि मे सर्वथा इन्द्रिय सुख ही हो ।
एक ऐसी भी state होती है, जहाँ अतीन्द्रिय आनंद भी होता है और विकल्प भी eg: 7 गुणस्थान मे मुनि को धर्मध्यान है (कुछ विकल्प है) परन्तु साथ मे अतीन्द्रिय आनंद भी है (यह मेरा अनुमान है)
आपकी बात सही है परंतु जिनको भ्रम हुआ हो उनकी बात सम्यकदृष्टि के अनुभव की बात समान ही हो तो कैसे नक्की करेंगे।
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विशुद्धि बुद्धि पूर्वक होती है, वो बुद्धि पूर्वक विकल्प ही है
जब मन का अवलंबन छूटता है तभी निर्विकल्पता होती है
अतिन्द्रिय आनंद निर्विकल्प होता है
इसलिए विकल्प सहित अतिन्द्रिय आनंद नही हो सकता।
विशुद्धि मंद कषाय है
स्वानुभूति अकषाय अवस्था है
दोनो जाती भिन्न है
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तो फिर 7 गुणस्थान मे धर्म ध्यान करते मुनि को इन्द्रिय आनंद है या अतीन्द्रिय, क्योंकि धर्म ध्यान मे विकल्प तो है ही
7वा गुणस्थान निर्विकल्प शुद्धोपयोग दशा है।
अबुद्धिपूर्वक विकल्प हो सकते है।
जीव के सम्यक्त्वमें तीन अनुयोगों को ध्यान में लेते हुए
चरणानुयोग - रत्नकरंश्रावकाचार, ज्ञानारणव आदि ग्रंथमे जो परिभाषा बताई हुई है।(अष्टमूलगुन का पालन,रात्रिभोजन त्याग,अभक्ष्य भक्षण का त्याग आदि) पालन करने वाला को सम्यक्तवी कहा।
और द्रवयानुयोग से - प्रशम, संवेग ,अनुकंपा निंदा , ग्रहा, निशंकित आदि अंग के द्वारा और विषयभोग से अरुचि होकर आत्मा का अनुभव होना।इसको स्मयक्तद्रष्टि कहा।
ऐसा शॉलकवार्तिक और द्रव्यसंगह कि 45 गाथा की टीका में आया।
ये दोनों अनुयोग से सम्यक्त्व पता चल सकता है परंतु करणानुयोग से पता नही चल सकता ।
परमार्थ तो करणानुयोग का ही कहा जायेगा।![]()
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परंतु जीव को पुरुषार्थ करने की अपेक्षा से ये दोनों अनुयोगों को मुख्य किया जाता है।उसमें भी विशेष द्रवयानुयोग के उपर ज्यादा जोर दिया जाता है।क्योंकि श्रद्धान सम्यक होने से कोई भी परिस्थिति जीव को दुखी नही कर सकती।
ऐसा पंचाध्यायी और श्लोककवर्तिक आदि ग्रंथ में आया है।
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यदि अबुद्धि पूर्वक विकल्प भी है तो निर्विकल्प नहीं है,
जैसे विकल्प दशा में अतीन्द्रिय ज्ञान संभव है ऐसे ही विकल्प दशा में अतीन्द्रिय सुख भी संभव है
जीव को अबुद्धि पूर्वक विकल्प तो 9 वे गुणस्थान तक रह सकते है। परंतु वह अतिसूक्ष्म हो ने से मुनिराज को पक्कड़ में नही आते वह तो केवलज्ञान गोचर है।इससे मु निराज को शुद्धोपयोग में कोई बाधा नही आती।
निर्विकल्पता = राग द्वेष वश किसी ज्ञेयको जानने में उपयोग लगाना और किसी ज्ञेयके जाने से छुडाना- इस प्रकार बारम्बार उपयोग को भ्रमाना उसका नाम विकल्प है।तथा जहाँ वितरागरूप होकर जिसे जानते है उसे यथार्थ जानाते है।अन्य अन्य ज्ञेयको अर्थ उपयोग को भ्रमाते नही है वहाँ निर्विकल्प जानना।निर्विकल्प दशा में परद्रव्य जानने में तो आते ही है। इसमे स्व को स्वरूप और पर को पर रूप ही जनता है।जितने काल तक आत्मा जानने रूप रहे वहां तक निर्विकल्प नाम पाता है।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक page - 211)
यदि सर्व चिंता छूट जाए तो जड़ बन जायेगा।(सर्वार्थसिद्धि)
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विकल्प दशामें अतिन्द्रिय सुख का वेदन संभव है इसका कोई शाश्त्र प्रमाण मिल सके तो बतानेके लिए विनती…
ऐसा केवलज्ञान में ही लगेगा छद्मस्त को स्वानुभव में पर जानने में नही आते …यदि अपनी खुद की पर्याय को भी पर मानले तो स्वानुभव छूट जायेगा
अभी ऊपर किशन भाई ने ही ने तो बताया की अप्रमत्त गुणस्थान में भी विकल्प आते है और आनंद तो वहाँ अतीन्द्रिय ही है परन्तु निर्विकल्प पना नहीं होने से यह स्वानुभूति नहीं है
To Avoid further confusion, lets firsts clear की हम निर्विकल्प/ सविकल्प भाव और इन्द्रिय/अतीन्द्रिय सुख किसे कह रहे है
निर्विकल्प दशा - जहाँ बुद्धि अबुद्धि पूर्वक कोई विकल्प न रहे
सविकल्प - जहाँ कोई ऐसा विकल्प रहे जो हमारे ख्याल में है ( करणानुयोग से क्योंकि ८,९,१० वे गुणस्थान में भी मोह है तो वहाँ भी विकल्प माना है पर क्योंकि वह हमारे ख्याल में नहीं है - इसलिए यहाँ ऐसे विकल्पों की बात नहीं कर रहे)
इन्द्रिय सुख - जो राग के कारन हो (पर आश्रित)
अतीन्द्रिय सुख - जो वीतराग होने पर हो (स्व आश्रित)
अब कोई जीव तत्त्वविचार करने बैठा वहाँ पहले तो विकल्प हुए और विकल्पो के साथ perhaps goosebumps हुए, ऐसे विशुद्धि बढ़ती गयी और अंतर्मन निर्मल होता गया, अब यहाँ किसी अन्य का राग नहीं है (इस काल में), उपयोग बस तत्त्व चिंतन में है, ऐसे में आनंद की तरंगे उठ सकती है - तो वह आनंद अतीन्द्रिय ही है क्योंकि वह अंतर से प्रगट हुआ और किसी पर पदार्थ के आश्रय/ राग से नहीं बल्कि वस्तु स्वरूप की महिमा के कारन हुआ - पर क्योंकि यह सविकल्प दशा है इसलिए यह स्वानुभव नहीं (यहाँ सुख तो अतीन्द्रिय हुआ पर विकल्प दशा है ) |
और एक-दो छड़ के लिए कोई अद्भुद्ध विशेष आनंद भी हुआ, तो (यदि उस काल में भी विकल्प थे, तो वह स्वानुभव नहीं, परन्तु ऐसा सुख इन्द्रिय जनित नहीं, यह तो आत्मा में से प्रगट हुए अतीन्द्रिय सुख है, जिसकी कुछ बूंदे बरसी है)
यहाँ जीव को पर्याय पर ही मानना और जीव द्रव्य में हु ।
ऐसा श्रद्धान करना है यही स्वानुभव है और यही सम्यक्त्व है।
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पर्याय से भिन्नता की बात विभाव पर्याय से दृस्टि हटाने के लिए कहते है, वस्तु स्वरूप में ऐसा नहीं है, द्रव्य और पर्याय एक ही है
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यह image अर्थ क्या लेंगे?
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अर्थात निर्विकल्प हो जाता है, किसी भी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं रहता (eg - आखें खुली हो या बंद हो - दिखना बंद होता है, कान से सुनना बंध होता है, नाक से सुगंध आना बंध होता है etc)

उपयोग स्वयं, स्वयं को जानता है (कैसा है स्वयं? अतीन्द्रिय सुख से भरा हुआ अर्थात उपयोग अपूर्व अतीन्द्रिय सुख को जानता है)
यहाँ clear है कि अन्य सब को छोड़कर स्वयं को (अतीन्द्रिय सुख) को जानता है, क्योंकि जो ज्ञान है वही सुख है (आप ही तो सुख है, सुख कोई अन्य थोड़े हि है)

छद्मस्त का ज्ञान एक समय में एक ही को जानता है, क्योंकि उसकी शक्ति इतनी हि है | इसलिए जब स्वानुभव होगा तब मात्र स्व को ही जानेगा | यहाँ जो कहा कि पर का जानना नहीं छूटता (वह ज्ञान का स्वरूप हुआ कि बिना आवरण वाला ज्ञान दोनों को जानता है)
हाँ ! छद्मस्त के साथ ऐसा भी होता है कि स्व को जाने और साथ ही पर को भी और अतीन्द्रिय आनंद भी बहता रहे (यह बस हमे लगता है कि ज्ञान स्व पर दोनों को एक साथ जान रहा है, असल में ऐसा होता नहीं है क्योंकि छद्मस्त के ज्ञान में ऐसी शक्ति ही नहीं है, वह 1st समय में स्व को 2nd समय में पर को, ऐसे जानता है, पर क्योंकि समय बहुत छोटा होता है तो कोई उसे एक साथ स्व पर का जानना समझले और उसे ही स्वानुभव समझे तो वह गलत है ।
स्वानुभव में सबसे main है निर्विकल्पता + आनंद , इससे ही स्वानुभूति कि पहचान होती है
छद्मस्त को स्वानुभव के काल में निर्विकल्प केवल स्व का ही जानना है ।
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नही। आपकी बात से सहमत नही हु।
उपयोग बस तत्त्व चिंतन में है, ऐसे में आनंद की तरंगे उठ सकती है - तो वह आनंद अतीन्द्रिय ही है क्योंकि वह अंतर से प्रगट हुआ और किसी पर पदार्थ के आश्रय/ राग से नहीं बल्कि वस्तु स्वरूप की महिमा के कारन हुआ - पर क्योंकि यह सविकल्प दशा है इसलिए यह स्वानुभव नहीं
उपरकी आपकी बात में परस्पर विरोध है।
जब चिंतन चल रहा है वह मन का अवलंबन होने से सविकल्प दशा है, मंद कषाय का आनंद है। अतिन्द्रिय नही।
वस्तु विचारत ध्यावते मन पावै विश्राम
रस स्वादत सुख उपजे अनुभव याको नाम।
मन से उपयोग का प्रवर्तन छूटे वहां अतिन्द्रिय सुख आता है
बाकी सब मात्र विकल्प और मंद कषाय है।
यही जीव को भ्रम होता है।
विचारना।
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