सम्यक्त्व संबंधित

यह बात मूलग्रंथ के आधार से बात सकते हो?

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छह ढाला में 6th ढाल का अभ्यास कीजिए
वहां स्वरूपाचरण में निर्विकल्पता का वर्णन है

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अतिइंन्द्र य सुख तो 13 गुण स्थान से होगा और
4 गुण स्थान से जो सुख का भास हो रहा है विकल्प सहित ही है 4 से 6 तक बुद्धि पूर्बक है और 7 से 12 तक अबुद्धि पूर्बक

Just wanna clarify…

जब चोथे गुंस्थान में जीव होता है तो उसकी दो अवस्था हो सकती है- एक शुद्धोपायोग और दूसरा शुद्ध परिणति।
जब उस जीव को अनुभव हो रहा होता है,तब उसकी निर्विकल्प दशा होती है and atindrya सुख होता है।
पर जब वह ४ गुनस्थन वाला जीव शुभ उपयोग में है( शुद्ध परिणति) है,तब उसकी दशा सविकलप है पर जो आनंद है वह अतिंद्र्य ही है।
क्या ऐसा होता है?

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कृपया इसका आधार बताएं

Dont know .
Shayad kisi ke pravachan me suna tha.I may be wrong,just wanted to confirm.

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@Aatmarthy_Swasty जी
निर्विकल्प दशा में ही अतिन्द्रिय आनंद होता है
विकल्प सहित मंद कषाय का आनंद होता है
दोनो आनंद की जाती भिन्न है
अतीन्द्रिय आनंद वास्तविक सुख स्वरूप है।
आप पूरी चर्चा पढ़े तो ये प्रश्न का समाधान हो जाएगा।

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इस दशा को आप सविकल्प दशा कहते हो या निर्विकल्प?

बुद्धिपूर्वक निर्विकल्प
अबुद्धि पूर्वक सविकल्प।

बुद्धिपूर्वक के अभाव से निर्विकल्प और अबुद्धिपूर्वक के सद्भाव से सविकल्प- यह मान्य है।

परंतु

यह स्पष्ट समझा नहीं इसलिए प्रश्न हुआ। यहां निर्विकल्प में अबुद्धिपूर्वक का अभाव कहा है। और सविकल्प में बुद्धिपूर्वक का सद्भाव लिखा है। हमें समझा नहीं। बुद्धि पूर्वक का अर्थ ख्याल में है वह विकल्प ना?

इसके अनुसार बुद्धिपूर्वक न रहे, अबुद्धिपूर्वक रहे उस दशा को क्या कहेंगे? यह स्पष्ट नहीं हो रहा।

Jai Jinendra,

I was going through all the discussion points above.
Have a doubt regarding the statement below:
जब चिंतन चल रहा है वह मन का अवलंबन होने से सविकल्प दशा है, मंद कषाय का आनंद है। अतिन्द्रिय नही।
When jeev is feeling sukh/anand without any thoughts in general (gruhastha), how can we say its either Vishuddi janith sukh or Ateendriya sukh?
Because thoughts can be there as buddhi-purvak or abuddhi-purvak.
If we can’t determine this truly, then either we will falsely believe as samyagdrishti or not sure if samyagdarshan is attained also.
Any clarifications are welcome.

द्रव्यसंग्रह की टीका में इसकी चर्चा बहुत सुंदर आई है।

वास्तव में ज्ञान ,स्वभाव से सविकल्प है अर्थात सिद्ध भगवान भी सविकल्प ही है।अगर जीव स्वभाव से निर्वकल्प हो जाये तो जीव जड़ बन जाये।

निर्विकप इसी लिए कहा क्योंकि सभी और से विकल्प हटाकर एक जगह केंद्रित किया इस अपेक्षा से कहा।

रही बात बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक कि उसमें कषाय की अपेक्षा किया है।जैसे चौथे गुणस्थान वर्ती को भी शुद्धोपयोग के काल मे निर्विकल्प कहा जाता है।यह निर्वकल्प ता भी उपचार का कथन है,परमार्थ से निर्वकल्पता 11 वे और उसके आगे से कह सकेंगे।

इसमे निर्विकल्प दशा का अर्थ 11 वे से आगे लेना।
सविकल्प का अर्थ ज्ञान स्वभाव को लेना है।