दूसरे के प्रति जो हमारी आकांक्षाएं होती हैं… उनसे कैसे बचें?
पर द्रव्य का परिणमन में करा ही नहीं सकता।ऐसा श्रद्धान (विश्वास) है।
छःढाला की तीसरी ढाल का दूसरा छंद:-
परद्रव्यन्ते भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है
आपरूप को जान पनो सो सम्यक्ज्ञान कला है।
यही बात का चिन्तवन करना है। यही सम्यक्त्व है।
आदरणीया कल्पना दीदी जी के अनुसार दूसरों से किसी भी तरह की अपेक्षा करना विष समान है।
(Expectation is the dangerous poison in the world.)
Regards to this,
जब हम परद्रव्य में हस्तक्षेप ही नहीं कर सकते, सभी द्रव्य स्वतंत्र हैं एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ कर ही नहीं सकता तो फिर किसी अन्य से अपेक्षा करने का हमारा क्या अभिप्राय है।
विचार करें कि जब हम खुद से ही कुछ अपेक्षा करते हैं तो उसका भी कुछ भरोसा नहीं है कि वह पूरी होगी या नहीं तो हम अन्य मैं हस्तक्षेप करने का भाव क्यों करें।
आचार्य कल्प पंडित टोडरमल जी के अनुसार यदि कहा जाए तो यह जीव खुद ही कल्पना करता है और खुद ही दुखी होता है इसलिए पर द्रव्य को परिणमन कराने का विचार मिथ्यात्व ही है।
- अपेक्षा का मूल कारण - जिसको जिसमें/जिससे जितनी सुख की कल्पना होती है, उसको उसमें/उससे उतनी अपेक्षाएं जन्म लेती हैं।
(इसे काफी practically विचार करना पड़ेगा, analysis करके इसकी validity स्वयं देखना पड़ेगी) - अपने जीवन में भी और जगत में भी एक बात देखी जाती है कि अपेक्षा उनसे ही होती है जिनसे अपनत्व होता है (वह अपनत्व किसी भी रूप में हो सकता है), अतः अपनत्व के अभाव में ही अपेक्षाओं का अभाव संभव है। स्व की पहचान पूर्वक उसी में संतुष्ट होने पर स्व में अपनत्व भी आएगा और पर से अपनत्व का भी अभाव होगा। फलतः अपेक्षाओं का भी स्वयमेव अभाव होगा।
Some important points regarding this-
- मिथ्यात्व से पर में सुख बुद्धि होती है और भूमिकानुसार विद्यमान कषाय से सुख का विकल्प होता है।
- जब प्रयास सुख बुद्धि तोड़ने का होगा तब धीरे-धीरे पर में सुख के विकल्प ढीले भी स्वयमेव होंगे और विशुद्धता के बढ़ने पर उनका घटना भी होगा।
- अपेक्षा का होना एक कार्य है, उसका कारण जब तक विद्यमान है तब तक वो कार्य भी होगा ही।
- भूमिका के योग्य विकल्प होते ही हैं, अतः भूमिका को ऊंची करने का पुरुषार्थ करना श्रेयस्कर है। भूमिका के योग्य होने वाले विकल्पों से बलजोरी करने का प्रयास निरर्थक है।
- उन विकल्प से भी सदा भेदज्ञान करना योग्य है।
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Bahut Bahut dhanyawaad
हमें दूसरों से ज्यादा अपेक्षा करने पर उपेक्षा का सामना करना पड़ सकता है,अतः अपेक्षा करना श्रेयस्कर नहीं है।
दूसरे के प्रति अपेक्षापन का भाव/विकल्प ही उत्पन्न न होने दें। कोई सुखी कर देगा , कोई दुखी कर देगा. कोई भला करेगा कोई बुरा करेगा , यह सब विकल्प जाल ही तो है। हमें अपने विचारों को सुधारने की जरूरत है। अपेक्षा करने से दुख ही भासित होगा ऐसा जानकर उसमें बुद्धि न लगाते हुए अपने परिणामों को सम्हालना ही इसका एक मात्र उपाय है, और इसी से अपन किसी और पर अपेक्षा का भाव थोपेंगे नहीं। सच्ची समझ से सही कार्य होते हैं। ऐसा भासित होने लगता है।
बहुत अच्छा
विवक्षाओं से।
इसके विस्तार की अपेक्षा है…
यदि वे अपेक्षाएँ स्वोत्थान में निमित्त हों, तो कार्यकारी अन्यथा अनर्थकारी।
आपसे की जाने वाली आकांक्षाएँ, आपको तो आकांक्षाएँ लगेंगी, किन्तु वे दूसरे व्यक्ति का अनुभव होती हैं, जो कि कार्यकारी और निरर्थक दोनों हो सकती हैं। वास्तव में आकांक्षा नाम का कुछ नहीं होता, जो होता है वह ज्ञान है, अनुभव ही है।
और खुलासा किया जाए तो वे मात्र सुझाव होते हैं। दिक्कत तब होती है जब हम तो उन्हें सुझाव समझते हैं और देने वाला ज़बरदस्ती।
आकांक्षाओं से बचने की नहीं, उनमें बसने वाली विवक्षाओं को यदि आप समझ जाते हैं तो बहुत हद तक आप स्व-सन्तुष्ट रह सकेंगे।
उपसंहार - हमारे हाथ में स्वकार्य के अलावा और कुछ नहीं है (उपयोगो लक्षणम्)।
अज्ञानी के पास मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र और ज्ञानी के पास सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, इसके अलावा न तो कोई दूसरा होता है और न ही हो सकता है। जब अन्य कुछ है ही नहीं तो क्या अपेक्षाएँ और क्या आकांक्षाएँ।
स्व में बस पर से खस,
आएगा आत्मा में अतीन्द्रिय रस,
इतना करो तो बस।