श्रावक की 53 क्रियाएं कौन सी कही गई है?
गर्भान्वय की ५३ क्रियाएँ - १. गर्भाधान, २. प्रीति, ३. सुप्रीति, ४. धृति, ५. मोद, ६. प्रियोद्भव, ७. नामकर्म, ८. बहिर्यान, ९. निषद्या, १०. प्राशन, ११. व्युष्टि, १२. केशवाप, १३. लिपि संख्यान संग्रह, १४. उपनीति, १५. व्रतचर्या, १६. व्रतावरण, १७. विवाह, १८. वर्णलाभ, १९. कुलचर्या, २०. गहीशिता, २१. प्रशान्ति, २२. गृहत्याग, २३. दीक्षाद्य, २४. जिन-रूपता, २५. मौनाध्ययन व्रतत्व, २६. तीर्थकृतभावना, २७. गुरुस्थानाभ्युपगमन, २८. गणोपग्रहण, २९. स्वगुरुस्थान संक्रान्ति, ३०. नि:संगत्वात्मभावना, ३१. योगनिर्वाण से प्राप्ति, ३२. योगनिर्वाणसाधन, ३३. इन्द्रोपपाद, ३४. अभिषेक, ३५. विधिदान, ३६. सुखोदय, ३७. इन्द्रत्याग, ३८. अवतार, ३९. हिरण्येत्कृष्टजन्मता, ४०. मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१. गुरुपूजोपलम्भन, ४२. यौवराज्य, ४३. स्वराज, ४४. चक्रलाभ, ४५. दिग्विजय, ४६. चक्राभिषेक, ४७. साम्राज्य, ४८. निष्क्रान्ति, ४९.योगसन्मह, ५०. आर्हन्त्य, ५१. तद्विहार, ५२. योगत्याग, ५३. अग्रनिर्वृत्ति। परमागम में ये गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त ५३ क्रियाएँ मानी गयी हैं
कोनसे ग्रंथ से लिखा आपने??
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष
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श्रावक की 53 क्रियाए
आधार – ज्ञानानंद श्रावकाचार,रत्नकरंड श्रावकाचार
8 मूलगुण
- मद्य
- मांस
- मदिरा
- to 8)पांच उड़म्बर फल
12व्रत
1)अहिंसाणुव्रत
2) सत्यानु व्रत
3) अचौर्य व्रत
4) ब्रमचर्य व्रत
5)परिग्रह परिमाण व्रत
6) दिगव्रत
7) देशव्रत
8) अनर्थदंड त्यागव्रत
9)सामायिक शिक्षा व्रत
10)प्रोषधोपवास शिक्षावृत
11)भोगुप्भोग परिमाण व्रत
12) अतिथि संविभाग व्रत
12 तप
1)अनशन तप
2)अवमोदर्य तप
3) वृतिपरिसंख्यान
4)रस्परित्याग
5)विविक्त शय्यासन
6)कायक्लेश तप
7)पर्यायचित तप
8)विनय तप
9) वैयाव्रत टप
10)स्वाध्याय तप
11)व्यूसत्सर्ग तप
12)ध्यान तप
11 प्रतिमा
4 दान
1 जल गालन
1 रात्रिभोजन त्याग
3 रत्नत्रय
Can you please explain 12 vrat and 12 tap in short. Thanks.
Short explanation में भी typing लंबा हो जाएगा।
You can refer
Page no = 96 to 102 and. 123 to 127 in ratnkarand shravkachar for 12 types of vrat
12 तप
Page- 122 to 124
ज्ञानानंद श्रावकाचार
१२ व्रत:-
पांच अणुव्रत
१. अहिंसाणुव्रत - मन,वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस जीवों की हिंसा नहीं करना ।
२. सत्याणुव्रत - स्थूल असत्य अर्थात् मोटा झूठ का त्याग।
३. अचौर्याणुव्रत - स्थूल चोरी का त्याग।
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत - अपनी विवाहित स्त्री के अलावा अन्य स्त्रियों के साथ कामसेवन नहीं करना, उन्हें बुरी दृष्टि से नहीं देखना, मां-बहिन-पुत्री समान देखना।
५. परिग्रह-परिमाणाणुव्रत - धन,धान्य,हाथी,घोडे़, नौकर, बर्तन, जमीन,मकानादि का अपनी आवश्यकता को समझकर जीवन भर के लिए परिमाण/लिमिट कर लेना और उससे अधिक की इच्छा नहीं करना ।
तीन गुणव्रत
१. दिग्व्रत - दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा/सीमा जीवन भर के लिए निर्धारित/लागू कर लेना।
२. देशव्रत - दिग्व्रत में जो सीमा निर्धारित की है, उसमें भी कुछ दिन , सप्ताह या माह आदि के लिए आवागमन की सीमा कर लेना।
३. अनर्थदण्डव्रत - अनर्थ से आशय “बिना प्रयोजन” है। जो बिना प्रयोजन जीव की हिंसा आदि में कारण हों, उनसे विरति करना।
इनके पाँच भेद हैं-
१.पापोपदेश- जमीन खोदने, खोटे व्यापार करने, वनस्पति छेदने आदि पापवर्द्धक क्रियाओं का उपदेश देना।
२. हिंसा दान- हिंसा के उपकरण शस्त्र(तलवार, बंदूक,भाला,छुरी,हथ-गोला, जहर) आदि मांगने पर देना।
३. प्रमाद चर्या- प्रमाद पूर्वक भूमि पर विचरण/चलना, बिना देखे-भाले बैठना, बिना कारण पानी गिराना, बिना कारण अग्नि जलाना, कुत्ते,बिल्ली आदि को पालना, बिना कारण कच्चे फल,पत्ते, टहनी तोड़ना आदि।
४. अपध्यान- निष्प्रयोजन/बिना प्रयोजन अन्य जीवों का बुरा विचारना।
५. दुःश्रुति- मिथ्या शास्त्रों को पढ़ना, कषाय उत्पन्न करने वाले अश्लील साहित्य को पढ़ना, खोटी कथाओं को सुनना, सिनेमा व दूरदर्शन/टी.वी. पर अश्लील दृश्य देखना।
चार शिक्षाव्रत
१. सामायिक व्रत - प्रतिदिन सुबह, दोपहर और सायं न्यूनतम ४८/48 मिनट पर्यंत सभी पाप कार्यों का त्याग करके साम्यभाव को प्राप्त होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होना, पंच परमेष्ठी का चिंतन करना।
२. प्रोषधोपवास व्रत- एकासन अर्थात् दिन में एक बार भोजन करना प्रोषध है और संपूर्ण दिन में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है।
३. भोगोपभोग परिमाण व्रत - प्रतिदिन भोग,उपभोग में काम आने वाली वस्तु (जैसे भोजन, वस्त्र, पानी ) आदि का परिमाण करके शेष का त्याग करना भोगोपभोग परिणाम व्रत है।
४. अतिथि संविभाग व्रत(या वैयावृत्त्य) - भक्ति सहित व फल की इच्छा के बिना न्यायोपार्जित धन से मुनि, आर्यिका, क्षुल्लिक, क्षुल्लिका आदि श्रेष्ठ पुरुषों को आहार, औषधि, उपकरण आदि देना अतिथि संविभाग व्रत है। मुनियों को शुद्ध आहार देना, नवधाभक्ति करना, उनकी वैयावृत्ति करना ( पैर दबाना , मालिश करना, उपचार करना आदि) उन्हें औषधि, शास्त्र, उपकरण आदि भेंट करना वैयावृत्त्य नामक शिक्षाव्रत है।
१२.तप -
इच्छा निरोधस्पतः - अर्थात् इच्छाओं का निरोध करना तप है। तप का अर्थ है तपाना। जैसे सोने को तपाने से सोने का मैल दूर होता है वैसे ही तप करने से आत्मा का कर्मरूपी मैल दूर होकर शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है।
तप बारह प्रकार के होते हैं -
६ बाह्य ६ अभ्यन्तर/अन्तरंग
६ बाह्य तप -
१.अनशन - आन्तरिक बल की वृद्धि के लिए अन्न,जल आदि सभी चार प्रकार के आहार का त्याग।
२. अवमौदर्य/ऊनोदर - स्वाभाविक भूख अर्थोत् सामान्य भूख से कम मात्रा में भोजन ग्रहण करना।
३. वृत्तिपरिसंख्यान - आहार हेतु जाते समय साधु का दाता, घर आदि के बारे में संकल्प करना।
४. रस परित्याग - भोजन के छ रसों(दूध,दही,घी,तेल,मीठा और नमक) का त्याग करना अथवा इनमें से एक या अधिक रसों का त्याग करना।
५. विविक्त शय्यासन - राग-द्वेष आदि उत्पन्न करने वाले आसन या शय्या का त्याग करके एकांत स्थान पर जो शय्या व आसन का ग्रहण करना।
६. काय-क्लेश - शरीर को सुख मिलने की इच्छा का त्याग करना। 22 परीषह ( सर्दी गर्मी आदि बाधाओं) का सहन करना भी इस तप में आता है।
६.अभ्यन्तर तप
१. प्रायश्चित्त - प्रमादवश मूलगुणों में जो दोष लग जाते हैं , उनके निराकरण हेतु गुरु से जो प्रायश्चित्त लेकर उपवास आदि किए जाते हैं वह प्रायश्चित्त तप है।
२. विनय - रत्नत्रय धारण करने वालों के प्रति नम्रता व विनय भाव रखना।
३. वैयावृत्य - गुणी जनों की जो सेवा-सुश्रुषा की जाती है वह वैयावृत्य के नाम का शब्द है।
४. स्वाध्याय - आत्म हित की भावना से सत् शास्त्रों का वाचन, पठन, मनन करना, उपदेश करना स्वाध्याय है ।
५. व्युत्सर्ग - अहंकार व ममकार का त्याग करना व्युत्सर्ग है।
६. ध्यान - चित्त की एकाग्रता का नाम ध्यान है।
यह तो ५२ ही हुई है, १ कम है ?