दिव्यध्वनि औऱ स्वाध्याय

जैसा के कहा जाता है कि तीर्थकर भगवान से जो दिव्यध्वनि खिरती है उसका एक अंश गंदधर झेल पाते हैं। और फिर आचार्यो द्वारा वह लिपिबद्ध की जाती है वह भी बहुत ही छोटा भाग होता है। ओर जो हम पड़ कर समझते हैं वह हमारे ज्ञान की क्षमता अनुसार होता हैं। तो जब अगर स्वाध्याय करते समय कोई कुछ बात समझाये औऱ यह कहे कि ये हम नही कह रहे अरिहंत भगवान की वाणी है तो क्या यह कथन अपेक्षा सही है। क्योंकि यह तो हमारी समझ मे जिस तरीके से आया है वह हम आगे बढ़ा रहे हैं।

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हाँ बिलकुल सही बात है, यह ही जैन धर्म का एक बहुत बड़े सिद्धांत “अनेकांतवाद” है। इस सिद्धांत को IAS, NEET, SSC etc Exams में भी लिया गया है। आप इस सिद्धांत के बारे में यहाँ पढ़ सकते है।

जो ये बात कह रहा है , हो सकता है वो उसके दृष्टिकोण से वो सही हो , तो वह ऐसा कह रहा है।
लोग एक ही सिद्धांत को अलग अलग रूप में समझते है, जिससे ही तो पंथवाद हो रहा है।

Practical use by Acharya Hemchandra

Anekāntavāda was effectively used by Ācārya Hemacandra to convert king Kumarapala of Gujarat to Jainism. Certain Brahmins who were jealous of Hemacandras rising popularity with King complained that Hemacandra was a very egoistic person and he did not respect Hindu Gods and refuses to bow to lord Shiva. When called upon to visit Siva temple with the King, Hemacandra readily bowed before the idol of Siva, but by saying:

“I am bowing down only to that god, who has destroyed the passions like attachment (raga) and hatred (dvesa) which are the cause of worldly life, whether he is Brahma, Visnu, or Jina.”

At one stroke he ensured that he remained true to tenets of Jainism, namely, a Jain should bow down only to a passionless and detached God (that is, a Jina) and at the same time managed to please the King. Ultimately, the king became a devoted follower of Hemacandra a great champion of Jainism

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भाई, अनेकांत का मतलब ये नहीं लेना की कोई भी अपनी बुद्धि (अभिप्राय) से कुछ भी मतलब निकाले तो वह अनेकांतवाद है । अनेकांतवाद मतलब - एक वस्तु के अनेक धर्म। जैसे कौए को काला कहना, पंछी कहना ये तो अनेकांत है (एक कौए के अनेक धर्म), पर कौए को किसी point of view से कबूतर कह देना, यह अनेकांत वाद नहीं है । यह तो मिथ्या कथन ही है । गलत मतलब निकाल्ने के कारण अन्य मत मिथ्या ही है । विशेष जानने के लिए लक्षण बताने वाले शास्त्र देखे, तो यह पक्का होगा की जिनवाणी मे कोई भी बात यूही नहीं कहि है, बल्कि जिनवाणी सब दोष रहित होती है, इससे श्रद्धान और निर्मल होगा

शास्त्रों में जो हेय-उपादेय, हित-अहित, 7 तत्त्व आदि प्रयोजनभूत बाते कहि है उनका तो युक्ति से, तर्क से, अनुमान आदि से बुद्धि पूर्वक निर्णय करने को कहा है, जब तक मन में शंका हो तब तक शास्त्रों का बार बार अध्यन करे, दूसरो से चर्चा करे, गुरु से पूछे । यहाँ सिर्फ शास्त्र में लिखा है तो मान लिया या ये तो सर्वज्ञ ने कहा है तो मान लिया, ऐसे नहीं चलेगा - क्योंकि स्वयं अपनी बुद्धि से निर्णय किये बिना श्रद्धा भलेही हो, पर भाव भासन नहीं होगा । इसलिए प्रयोजनभूत तत्वों का तो स्वयं निर्णय करे लेकिन जो अन्य बाते है जैसे स्वर्ग नरक के दुःख, तीन लोक की रचना, स्थावर जीवो की हिंसा, कर्मकाण्ड आदि जो छदमस्त के ज्ञान में नहीं आते सिर्फ केवलज्ञान से ही जाने जा सकते है, यदि प्रयोजनभूत तत्वों का यथार्थ निर्णय हो गया हो तो इन सब बातो को सर्वज्ञ की आज्ञा जान स्वीकार करने को कहा है । इसलिए ही लोग कहते है की “हम नहीं कह रहे बल्कि अरिहंत ने कहा है” | और राय चंद्र जी ने कहा है की तर्क से तो मै जैन धर्म को भी गलत साबित कर सकता हूँ । इसलिए सिर्फ प्रयोजनभूत तत्वों कि ही बुद्धि से निर्णय हो सकता है, और विशेष जानने के लिए मोक्षमार्गप्रकाशक का 7 अधिकार पुनः देखे |

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तो यदि करणानुयोग और प्रथमानुयोग के विषयों को छोड़ दिया जाय जिनकी प्रमाणिकता तर्क सहित नही हो सकती ,तो इनके अलावा कोई कहे कि अरिहंत भगवान की बात को ही हम बता रहे है तो वह तो गलत है क्या इस तरह से नहीं कहना चाहिए कि हमने इस बात का यह अर्थ निकाला है क्योंकि सभा मे कोई व्यक्ति नया हो या शास्त्रों का जानकार न हो तो वह तो गलत बात को भी जिनवाणी समझ सकता है।

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ये तो वक्ता पर ही depend करता है, क्योंकि शास्त्र में ऐसा लिखा है और शास्त्र पूर्व आचार्यो की परम्परा से उनके मूल करता भगवान ही है, तो ऐसा कहने में कुछ बुरा भी नहीं है, लेकिन इसलिए ही स्वयं स्वाध्याय करने को भी कहते है और इसलिए ही प्रयोजनभूत बातो का स्वयं निर्णय करने को कहा, किसी ने बताया है, या शास्त्र में लिखा है, या सर्वज्ञ ने कहा है - इसलिए मान लिया, ऐसे नहीं । समन्त्रभद्र आचार्य कहते थे की भगवान चूंकि आपने कहा है इसलिए मैं मान जाऊ, मैं ऐसा भक्त नहीं हूँ, मैं तो परीक्षा करूंगा।

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भाई सभी अनेकांतवाद का वो ही अर्थ लेते है जो मैंने लिखा है , श्वेताम्बर भी , 13 पंथी दिगंबर भी, 20 पंथी दिगंबर भी , केवल एक ही पंथ है जो दूसरा अर्थ लेता है।

अब कैसे फैसला करे कोनसा मिथ्या कथन है? बहुमत देखे तो जो मैंने लिखा है वो मतलब है। मै वैसे बहुमत में नहीं मानता, अगर 100 आदमी भी मिलकर मुझे कुछ कहे तो ही मै उसे तबतक नहीं मानता। मुझे तो प्रमाण चाहिए। किन्ही आचार्य का प्रमाण दे दो तो मान लूंगा।

भाई सर्वज्ञ की बात पे भी श्रध्दान नहीं तो , सम्यक दर्शन भी नहीं।

अनेकांतवाद का अर्थ आपका सही हो सकता है। परंतु यहाँ प्रश्न सही गलत की अपेक्षा पूछा गया है। अनेकान्तवाद में कथन सभी अपेक्षा सही रहता है। परंतु यह प्रश्न यह था कि आचार्य का कथन किसी अपेक्षा कहा गया हो परन्तु वक्ता ने किसी अपेक्षा कथन निकाला हो और वह ऐसा कहे कि यह आचार्य का कथन है तो वह गलत है।

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ये मै भी मानता हूँ।

@Labdhi_Shah ये नहीं मानता।

Some people can ask if a person is killing beings, how can we apply Anekantvada there?
Answer: The person may be right in his perspective, maybe he is a devotee of Kali and he is taught that Kali wants sacrifice. He is right in his own perspective, though he is wrong.

he is right in his point of view only, although, in reality, he is completely wrong,

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मैने शायद शब्द इसलिए ही use करा क्योंकि मुझे इस बात में surity नहीं है। पर जहाँ तक में समझती हूं वाद कथन अपेक्षा होता है, कार्य गलत या सही है वह सिद्ध करने के लिए नहीं। जैसे के आपने एक हाथी वाला example लिया था उसमें सभी के कथन सही है।

यहाँ भी वो ही अर्थ लिया है, किसी वस्तु को द्रव्य, गुण, पर्याय (द्रव्य, छेत्र, काल, भाव, भव) की अपेक्षा देखना सो न्याय है, पर एक ही अपेक्षा को सम्पूर्ण वस्तु मान लेना या एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लेना न्याय नहीं है जैसे इसी कथा में हाथी को सर्प मान लेना मिथ्या ही है

आपने ऊपर अनेकांत का reference देकर फिर ऐसा कहा, परन्तु पंथवाद अनेकांत के कारन नहीं बल्कि मिथ्या एकांत के कारन खड़ा होता है ।

प्रयोजन भूत तत्वों का निर्णय करने के अर्थ सर्वज्ञ की बात की भी परीक्षा करने को सत्तास्वरूप आदि ग्रन्थो में कहा है । इससे श्रद्धान पक्का होता है ।

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ये कहना उचित नहीं होगा की सभी के कथन सही है। ये कह सकते हो सबके कथन आंशिक(partial) सही है।

भाई, कथा में हाथी को सर्प कही नहीं माना।

The one who touched the trunk felt it like a snake.

The word like is used here. It never says the elephant is exactly snake.

मिथ्या एकांत भी कारन है, किन्तु अलग अलग कथन का अलग अलग निकलना भी एक कारन है।

व्यवहार नय से सम्यक दर्शन के 8 अंगो में से नं 2 अंग (निशंकित अंग) के अनुसार जिन वचन में रंच मात्र भी शंका करना मिथ्यात्व है। जो आपने लिखा है , मैंने ऐसा कभी नहीं सुना। सत्तास्वरूप ग्रन्थ का कोई लिंक दे सके तो बहुत मदद होगी।

Also Please check the cases of Anekanatwaad also.
I think better examples are given in this link. https://qr.ae/TWX725

अगर कोई कौए को कबूतर कह दे तो वह भी अनेकांतवाद के अंदर आ सकता है। कौआ, कबूतर आदि संज्ञा है, मान लो किसी और भाषा में चित्र में दिए गए जीव को कबूतर कहते है, तो क्या वो गलत है ?

हिंदी वाला “फूल” और english wala “fool” अलग अलग है,
अगर कोई मुझे कहे की मै फूल हु तो अलग मतलब होगा। कोई कहा मै fool हु तो अलग मतलब होगा। अगर कोई बोलकर कहे तो उसका point of view तो पता ही नहीं चलेगा।

मैं इस बात से agree नही करती। अनेकान्तवाद किसी एक वस्तु के धर्म की अपेक्षा लगाया जाता है। अलग अलग भाषा मे उसे कहना अनेकान्तवाद नहीं हुआ। ऐसे तो बौद्ध धर्म भी अनेकान्तवादी हो जायेगा अगर अलग अलग भाषा मे कहा जाय तो।

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हाँ आपने सही कहा। मेरी कोए वाला उद्धरण गलत था।

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@shubham1993jain you can read it on mokshamargprakashak : http://samyakdarshan.org/shastras/html/Moksha-Marg-Prakashak-Hindi/o/276.html

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