चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग और सम्यक्चारित्र

In the verse 13, the adjectives used are for ‘bliss’ (सुख) and not for शुद्धोपयोग… Thus it is nowhere implied that शुद्धोपयोग is the resulting effect of destruction of असाता वेदनीय. What is implied is that सुख is without any obstructions (बाधा).

आत्मानुभव and शुद्धोपयोग are more or less synonymous.

चारित्र begins at 4th गुणस्थान and finds it culmination in the 12th. There is no fruition of any type of चारित्रमोहनीय कर्म in the 11th also but that is of little significance as it is a stage of उपशम श्रेणी and not of क्षपक श्रेणी.

An oft-cited reference for showing the presence of चारित्र in 4th गुणस्थान -

चारित्र दो प्रकार का है - सम्यक्त्वाचरण और संयमाचारण । सम्यक्त्वाचरण चारित्र सभी सम्यग्दृष्टियों को होता है । वह शंकादि आठ मल के त्याग रूप है ।

-आचार्य कुन्दकुन्द, चारित्रपाहुड़, गाथा 5-8, pp. 62-66.

Another reference for चारित्र in fourth गुणस्थान -

शंका - इस प्रकार तो असंयत सम्यग्दृष्टि को भी संयतपने का प्रसंग आता है, क्योंकि मन के समत्व को ही संयम का स्वरूप माना गया है?

समाधान - तो ऐसा कौन कहता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि को सर्वथा संयम का अभाव होता है? उसको भी अनन्तानुबन्धी कषायात्मक असंयम का अभाव होने से संयतपने की सिद्धि होती है।¹

शंका - फिर उसको असंयतत्व कैसे माना गया है?

समाधान - उसको (चतुर्थ गुणस्थान में) बारह प्रकार का मोह विद्यमान होने से असंयम का सद्भाव होता है।

-आचार्य विद्यानन्द, युक्त्यानुशासनालंकार (Sanskrit), छन्द 52 की टीका, pp. 133-134.


It is possible for a सम्यग्दृष्टि to go back to मिथ्यात्व if the सम्यक्त्व is either औपशमिक or क्षायोपशमिक. A क्षायिक सम्यग्दृष्टि will never go back to मिथ्यात्व.

Yes, true. However, it is not possible to have any one of them in exclusion of the other two. It is either the case that all three are present or else all are absent. These three are different modifications of three distinct attributes (श्रद्धा, ज्ञान and चारित्र). It can be said that they are conceptually distinguishable but existentially inseparable.


¹ ब्र. सुजाता ताई जी, बाहुबली-कुम्भोज had shared this reference during a recently concluded conference at Karanja. The original Sanskrit goes as follows:
क एवमाह सर्वथा संयमस्याभावोऽसंयतसम्यग्दृष्टेरिति तस्यानंतानुबंधिकषायात्मनोऽसंयमस्याभावात् संयतत्वसिद्धेः (p. 134).

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