निगोदिया-जीवों की स्थिति और दु:ख
साधारण नामकर्म के उदय से जीव निगोद शरीरी होता है। ‘नि’ - अर्थात् अनंतपना निश्चित है जिनका, ऐसे जीवों को ‘गो’ अर्थात् एक ही क्षेत्र, ‘द’ अर्थात् देता है, उसको ‘निगोद’ कहते हैं। अर्थात् जो अनंत जीवों को एक निवास दे उसको निगोद कहते हैं। और निगोद ही शरीर है जिनका उनको ‘निगोद शरीरी’ कहते हैं।
निगोद के दो भेद –
नित्य-निगोद और इतर-निगोद।
नित्य-निगोद - यानि वह जीव जिसने अभीतक कभी त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की। लेकिन भविष्य में कर सकता है।
इतर-निगोद - यानि वह जीव जो निगोद से निकलकर त्रस स्थावर पर्याय धारण करने के बाद आत्महित ना करने से पुनः निगोद में जन्म लेता है।
निगोदिया-जीव को अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान होता है।
निगोदिया-जीव की गणना एकेन्द्रिय के अंतर्गत आती है। एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट समुच्चय काल उत्कृष्ट असंख्यात पुदगल परावर्तन है। यह काल इतना लम्बा है कि उसके अनन्तवें भाग में भी अनंत चौबीसी हो सकती है।
निगोद से निकलकर त्रस-पर्याय में रहने का उत्कृष्ट-काल दो हजार सागर है।
त्रस-पर्याय से वापस निगोद में जाये तो इतर निगोद का उत्कृष्ट-काल ढ़ाई पुदगल परावर्तन है।
निगोदिया-जीव में ज्ञान भले ही अत्यल्प है पर कषाय की अति तीव्रता है। विचार करने की शक्ति ही नहीं है।
निगोद अवस्था में जीव को जो दु:ख है उसे कहने में जिनेन्द्र देव भी समर्थ नहीं है।
निगोदिया-जीव एक स्वाँस में अठारह बार जन्म-मरण करता है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि मनुष्य गति का जीव एक बार जन्म और एक बार मरण में जो दु:ख प्राप्त करता है, हम उन दु:खों को भी कहने में समर्थ नहीं है, तो सोचिये जो एक स्वाँस में अठारह बार जन्म-मरण करता है, उसके दु:खों का वर्णन करना तो असंभव है।*
निगोदिया-जीव के दु:खों पर विचार करने से पहले देखते हैं कि निगोदिया-जीव कहाँ-कहाँ है ?
आगम से ज्ञात होता है कि निगोदिया-जीव संपूर्ण लोक में ठसाठस भरे हुये हैं। यहाँ तक कि सिद्धशिला पर भी अनंत निगोदिया-जीव है। विचार करें सिद्धशिला पर अनंत जीव-- उनमें से सिद्ध जीव भी अशरीरी फिर भी अनंत-सुखी और वहीं निगोदिया-जीव भी स्वयं का शरीर ना होने की अपेक्षा अशरीरी होते हुये भी अनंत-दु:खी !!
जहाँ तक हमारे ज्ञान का विषय है निगोदिया-जीव जो हम प्रतिदिन देखते हैं जैसे – जमीकंद में, वनस्पतिकाय में, मनुष्यों और तिर्यंचों के शरीर में इत्यादि।
जमीकंद और वनस्पतिकाय में पाये जाने वाले जीवों की वेदना तो हम प्रत्यक्ष देखते है। कैसे ?
पहले पेड़ से तोड़ा गया, मसला गया, काटा गया, उबाला गया, गर्म तेल में छोंका गया, पकाया गया, चीर-फाड़कर तला गया, भूना गया, पीसा गया – क्या-क्या नहीं करते हम उन निगोदिया जीवों के साथ !! कभी एक क्षण के लिए भी विचार आता है कि ये भी जीव हैं, इनको भी कष्ट हो रहा होगा !! इतने पर भी चैन नहीं, हम बड़े स्वाद से, मजे लेकर उन कलेवरों को खाते भी हैं, जिनमें निगोदिया जीव रहते हैं।
हे आत्मन् ! ये तो वे दु:ख हैं जो हमें प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं, उन दु:खों को क्या कहें जो हमारे ज्ञान का विषय भी नहीं बनते। कैसी विडम्बना है कि फिर भी हमें विरक्ति और त्याग का भाव नहीं आता।
कहने का अभिप्राय यही है कि निगोदिया जीवों का दु:ख नारकी जीवों से अनंत गुणा अधिक है।
इस तरह से अनंतकाल निगोद में बिताकर, जैसे भाड़ में से चना फुटककर बाहर आता है वैसे ही हम सभी जीव निगोद से बाहर आये हैं। उसकी भी निश्चित सीमा है – छह-महिने आठ-समय में 608 जीव ही निगोद से बाहर आते है। फिर एकेन्द्रिय, दो, तीन, चार इन्द्रियों में जन्म लेता हुआ ये जीव पंचेन्द्रिय पर्याय प्राप्त करता है, उसमें भी असंज्ञी हुआ तो ये भव भी बेकार चला गया। संज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो भोगों में मस्त रहा।
भाई ! इस प्रकार निगोद से पंचेन्द्रिय तक की यात्रा करते हुये आज हम सभी इस उत्तमकुल अर्थात् वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा के शासन में जन्में हैं। यदि अब भी आत्महित नहीं किया तो पुनः निगोद की यात्रा की तैयारी पक्की है। वही जन्म-मरण का दु:ख, वही अनंत वेदना ।
इसीलिये कहते हैं –
काल करे सो आज कर,आज करे सो अब।
** पल में परलै होयेगी , बहुरि करेगा कब ??**
- डॉ. रंजना जैन, दिल्ली
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