नित्य निगोद से संबंधित प्रश्न

नित्य निगोद क्या है? वहा आयु की क्या सीमाएं है?

जहाँ जीव अनादि काल से अन्य पर्याय(प्रत्येक वनस्पति +४स्थावर और त्रस पर्याय ) धारण किये बिना जिस निगोद में रहता आ रहा है ,उसे नित्य निगोद कहते है ।
०यहॉ पर्याप्त निगोदियाँ जीव की आयु अंतरमूर्त है ।
०अपर्याप्त निगोदियाँ जीव की आयु क्षुद्र भव(एक श्वास में अठारह बार ) प्रमाण है ।-(एक श्वास में अठ दश बार यह तथ्य इनकी अपेक्षा है)

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@aman_jain Can a jeev from Nitya Nigodh escape from Nitya Nigodh? Can it take birth somewhere else?

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नित्य निगोद से 6 महीने आठ समय में 608 जीव निकलते है ,और उनमें से एक आचार्य के मतानुसार बादर निगोदिया जीव सीधे संज्ञी पचेंद्रिय पर्याय धारण करके उसी भव से मोक्ष जा सकता है ,और सूक्ष्म निगोदिया जीव मुनि पर्याय धारण कर सकता है


और अन्य आचार्य के अनुसार बादर व सूक्ष्म दोनो मनुष्य पर्याय धारण कर उसी भव से मोक्ष जाते है ।

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@aman_jain Thank you for answering these.

निगोदिया-जीवों की स्थिति और दु:ख

साधारण नामकर्म के उदय से जीव निगोद शरीरी होता है। ‘नि’ - अर्थात् अनंतपना निश्चित है जिनका, ऐसे जीवों को ‘गो’ अर्थात् एक ही क्षेत्र, ‘द’ अर्थात् देता है, उसको ‘निगोद’ कहते हैं। अर्थात् जो अनंत जीवों को एक निवास दे उसको निगोद कहते हैं। और निगोद ही शरीर है जिनका उनको ‘निगोद शरीरी’ कहते हैं।

निगोद के दो भेद –
नित्य-निगोद और इतर-निगोद।

नित्य-निगोद - यानि वह जीव जिसने अभीतक कभी त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की। लेकिन भविष्य में कर सकता है।

इतर-निगोद - यानि वह जीव जो निगोद से निकलकर त्रस स्थावर पर्याय धारण करने के बाद आत्महित ना करने से पुनः निगोद में जन्म लेता है।

निगोदिया-जीव को अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान होता है।

निगोदिया-जीव की गणना एकेन्द्रिय के अंतर्गत आती है। एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट समुच्चय काल उत्कृष्ट असंख्यात पुदगल परावर्तन है। यह काल इतना लम्बा है कि उसके अनन्तवें भाग में भी अनंत चौबीसी हो सकती है।
निगोद से निकलकर त्रस-पर्याय में रहने का उत्कृष्ट-काल दो हजार सागर है।

त्रस-पर्याय से वापस निगोद में जाये तो इतर निगोद का उत्कृष्ट-काल ढ़ाई पुदगल परावर्तन है।
निगोदिया-जीव में ज्ञान भले ही अत्यल्प है पर कषाय की अति तीव्रता है। विचार करने की शक्ति ही नहीं है।

निगोद अवस्था में जीव को जो दु:ख है उसे कहने में जिनेन्द्र देव भी समर्थ नहीं है।

निगोदिया-जीव एक स्वाँस में अठारह बार जन्म-मरण करता है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि मनुष्य गति का जीव एक बार जन्म और एक बार मरण में जो दु:ख प्राप्त करता है, हम उन दु:खों को भी कहने में समर्थ नहीं है, तो सोचिये जो एक स्वाँस में अठारह बार जन्म-मरण करता है, उसके दु:खों का वर्णन करना तो असंभव है।*

निगोदिया-जीव के दु:खों पर विचार करने से पहले देखते हैं कि निगोदिया-जीव कहाँ-कहाँ है ?
आगम से ज्ञात होता है कि निगोदिया-जीव संपूर्ण लोक में ठसाठस भरे हुये हैं। यहाँ तक कि सिद्धशिला पर भी अनंत निगोदिया-जीव है। विचार करें सिद्धशिला पर अनंत जीव-- उनमें से सिद्ध जीव भी अशरीरी फिर भी अनंत-सुखी और वहीं निगोदिया-जीव भी स्वयं का शरीर ना होने की अपेक्षा अशरीरी होते हुये भी अनंत-दु:खी !!

जहाँ तक हमारे ज्ञान का विषय है निगोदिया-जीव जो हम प्रतिदिन देखते हैं जैसे – जमीकंद में, वनस्पतिकाय में, मनुष्यों और तिर्यंचों के शरीर में इत्यादि।

जमीकंद और वनस्पतिकाय में पाये जाने वाले जीवों की वेदना तो हम प्रत्यक्ष देखते है। कैसे ?

पहले पेड़ से तोड़ा गया, मसला गया, काटा गया, उबाला गया, गर्म तेल में छोंका गया, पकाया गया, चीर-फाड़कर तला गया, भूना गया, पीसा गया – क्या-क्या नहीं करते हम उन निगोदिया जीवों के साथ !! कभी एक क्षण के लिए भी विचार आता है कि ये भी जीव हैं, इनको भी कष्ट हो रहा होगा !! इतने पर भी चैन नहीं, हम बड़े स्वाद से, मजे लेकर उन कलेवरों को खाते भी हैं, जिनमें निगोदिया जीव रहते हैं।

हे आत्मन् ! ये तो वे दु:ख हैं जो हमें प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं, उन दु:खों को क्या कहें जो हमारे ज्ञान का विषय भी नहीं बनते। कैसी विडम्बना है कि फिर भी हमें विरक्ति और त्याग का भाव नहीं आता।

कहने का अभिप्राय यही है कि निगोदिया जीवों का दु:ख नारकी जीवों से अनंत गुणा अधिक है।

इस तरह से अनंतकाल निगोद में बिताकर, जैसे भाड़ में से चना फुटककर बाहर आता है वैसे ही हम सभी जीव निगोद से बाहर आये हैं। उसकी भी निश्चित सीमा है – छह-महिने आठ-समय में 608 जीव ही निगोद से बाहर आते है। फिर एकेन्द्रिय, दो, तीन, चार इन्द्रियों में जन्म लेता हुआ ये जीव पंचेन्द्रिय पर्याय प्राप्त करता है, उसमें भी असंज्ञी हुआ तो ये भव भी बेकार चला गया। संज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो भोगों में मस्त रहा।

भाई ! इस प्रकार निगोद से पंचेन्द्रिय तक की यात्रा करते हुये आज हम सभी इस उत्तमकुल अर्थात् वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा के शासन में जन्में हैं। यदि अब भी आत्महित नहीं किया तो पुनः निगोद की यात्रा की तैयारी पक्की है। वही जन्म-मरण का दु:ख, वही अनंत वेदना ।

इसीलिये कहते हैं –
काल करे सो आज कर,आज करे सो अब।
** पल में परलै होयेगी , बहुरि करेगा कब ??**

  • डॉ. रंजना जैन, दिल्ली

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great info, thanks.

which karma jiva does in nigod that they get tras paryay? because it must be a good karma to get out of nigod. how can jiva perform good karma in nigod?

भाव कर्म से

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nigodiya jeev does not have man-vachan-kay …how can they perform bhav karma?? can you please provide more details. Thanks.

निगोदिया जीव के मन-वचन तो नहीं है पर काया है |

जीव का कुछ न कुछ परिणमन होता ही है (कुछ न कुछ चारित्र गुण की पर्याय होगी ही), इसी परिणमन को जीव का परिणाम या भाव कहते है, सो निगोदिया जीव के भी निरंतर परिणमन होने से भाव है और ये भाव विभाव रूप होने से भाव कर्म भी है |

अब सूक्ष्म जीव विकलत्रय आदि के शुभ भाव कैसे होंगे? तो गोधा जी कहते है -

  1. जब ये जीव भी पंच परमेष्ठी के संपर्क में आते है तो इनकी भी कसाय में मंदता हो जाती है (द्रव्य छेत्र काल के प्रभाव से) । जैसे यदि हम किसी ऑफिस की पार्टी में यदि चले जायें तो वहाँ द्रव्य छेत्र काल के प्रभाव से अन्य प्रकार के भाव होते है और यदि हम किसी सिद्ध छेत्र में चले जायें तो वहाँ द्रव्य छेत्र काल के प्रभाव से अन्य प्रकार के भाव होते है । यदि हम जीन्स पहनकर मंदिर जाए और यदि धोती दुपट्टा पहनकर मंदिर जाए तो भाव में फर्क है । ऐसे ही जैसे जिस वन में रिद्धिधारी मुनि बैठते है वहां साप नेवला शेर हिरन जैसे जन्म से विरोधी पशु भी वैर भूलकर शांत चित्त हो मुनि के सन्मुख बैठते है, वहां बिना मौसम के ही फल फूल हो जाते है (मतलब जो एकइंद्रिय वनस्पति है आज वह भी प्रसन्न है), वहां वायु सुगन्धित हो जाती है (मतलब जो वायु में एकइंद्रिय, निगोदिया आदि जीव है आज मुनि के स्पर्श से (द्रव्य छेत्र काल के प्रभाव से) आज वह भी प्रसन्न है) । जहाँ केवली भगवान् की गंध कुटी होती है वहां १ योजन तक किसी भी जीव को कोई बाधा नहीं रहती । ऐसे द्रव्य छेत्र काल के प्रभाव से इनके भी शुभ भाव हो जाते है ।

  2. जब तीर्थंकर का जन्म होता है तब सभी जीवो को छन भर के लिए शांति मिलती है, यदि उसी समय किसी निगोदिया, विकलत्रय आदि के जीव के आयु बंध हो जाये, तो उसके शुभ गति बंध जाएगी ।

(हसमुख दोषी जी ऐसा कहते है - जैसे जब पानी गरम होना सुरु होता है तब उसके bottom surface पर कुछ छोटे bubbles होते है और उबलते पानी में top surface पर बड़े बड़े bubbles होते है, विकल्प उन बड़े बड़े bubbles की तरह है, क्योंकि हम मन वाले है इसलिए उन छोटे bubbles का हमे ख्याल नहीं है)

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Thanks, it is helpful.

Jai Jinendra,
चर्चा तो बहुत अच्छी है , इसी में मेरी एक जिज्ञासा है कि जो करणानुयोग में हर अन्तर्मुहूर्त के बाद परिणामों के परिवर्तन की बात है , यहां उसे शामिल करना चाहिए !!
क्योकि जहाँ शुद्धोपयोग नही है , वहाँ शुभ से अशुभ ओर अशुभ से शुभ निश्चित रूप से परिणाम बदलेंगे ।
तो जो सहज ही परिणामों के परिवर्तन काल मे आयु बंधे , तो भी जीव उच्च गतियों को प्राप्त कर सकता है ।

यहाँ चने की भांति उचटने वाली बात भी ज्ञात हो जाती है ।

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शंका-मनुष्य और तिर्यंच गति में चारों आयु का आस्रव होता है, क्या देवगति और नरक गति में भी चारों आयु का आस्रव होता है … भावार्थ-इस सूत्र को अलग से लिखने का कारण है कि, स्वभाव की सरलता भी मनुष्यायु के आस्रव का कारण तो है

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देव गति में देव और नरक आयु के बंध का अभाव है
और नरक गति में भी देव और नरक आयु के बंध का अभाव है

क्या करे ओर कहसे शुरुवात करे ??
जो अपने समजाय वो तो बहोत अच्छा था…निगोद की दाशा से मुझे डर लागा रहा है |

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Parmatma ke aas pass aur swarg mein kitne nigod jeev hote hai.

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सम्पूर्ण तीन लोक सूक्ष्म निगोदिया जीवों से भरा हुआ है, सिद्धशिला और स्वर्ग में भी अनंत निगोदिया जीव हैं, लेकिन गजब की बात यह है कि उसी स्थान पर सिद्ध परमात्मा अनंत सुख का अनुभव कर रहें हैं और उसी स्थान पर वे निगोदिया जीव दुख का।

बहुत अच्छे से पूरी बात बता दी है।

उपाय तो एक ही है और वह है तत्वविचार और आत्मानुभूति।

सबसे पहले तो डर लग रहा है इस शब्द को भूल जाओ भविष्य को लेकर कभी मत डरना, अगर डरना है तो वर्तमान में गलत दिशा पर चलने से डरो, तभी आप डर से जीत पाओगे।

और जीवन चाहे लौकिक हो या धार्मिक, सलाह पूरी दुनिया से लो चलेगा पर खूब विचार करके अंतिम निर्णय स्वयं का लेना सीखो।

अपनी नजर में जब तक आप दुनिया को या दुनिया के नियमो को वैल्यू दोगे तब तक आपको स्वयं की महिमा नहीं आयेगी।

इसलिए सांसारिक कार्य केवल उतना करो जितनी आवश्यकता है, इसके अलावा बाकी समय केवल तत्वविचार और आत्मानुभूति में ही लगाना।

यही एक मार्ग है, इसके अलावा कोई मार्ग नहीं है।

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