तादात्म्यसम्बन्ध- मोक्षमार्गप्रकाशक

मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार में ऐसा आया है -

यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोंमें आत्माको कर्म – नोकर्मसे भिन्न अबद्धस्पृष्ट कहा है?
उत्तरः — सम्बन्ध अनेक प्रकारके हैं। वहाँ तादात्म्यसम्बन्धकी अपेक्षा आत्माको कर्म-नोकर्मसे भिन्न कहा है, क्योंकि द्रव्य पलटकर एक नहीं हो जाते, और इसी अपेक्षासे अबद्धस्पृष्ट कहा है। अथवा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी अपेक्षा बन्धन है ही, उनके निमित्तसे आत्मा अनेक अवस्थाएँ धारण करता ही है; इसलिये अपनेको सर्वथा निर्बन्ध मानना मिथ्यादृष्टि है।

यहाँ पर अबद्धस्पृष्ट और तादात्म्यसम्बन्ध का अर्थ क्या है ? व् सम्बन्ध के और कौनसे प्रकार हैं ?

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सम्बन्ध के अनेक प्रकार है किन्तु कुछ की चर्चा यहाँ संक्षेप में करते है:

  • तादात्म्य संबंध - (समयसार, गाथा 61 की टीका ); जो वस्तु सर्व अवस्थाओं में जिस भावस्वरूप हो और किसी भी अवस्था में उस भाव स्वरूपता को न छोड़े; उस वस्तु का उन भावों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होता है । {द्रव्य और गुण में नित्य तादात्म्य और द्रव्य तथा पर्याय में अनित्य तादात्मय; एक के बिना दूसरे का होना असंभव}
    इसी को व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध भी कहते है (समयसार कलश, 49) |

  • संयोग सिद्ध संबंध (समयसार, गाथा 69-70 की टीका के आधार से) - स्वभाव और विभाव में - यद्यपि क्रोध आत्मा में होता लेकिन क्रोध और आत्मा में ऐसा सम्बन्ध नहीं है जैसा आत्मा और ज्ञान में है । अतः क्रोध को आत्मा का संयोगी भाव कहा जाएगा, स्वभाव नहीं |

  • एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध - (समयसार, गाथा 69-70 की टीका) एवं जीवपुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसंबंधात्मा बन्धः सिध्येत् - इसप्रकार इस जीव के और पुद्गल के परस्पर अवगाह लक्षणवाला संबंधरूप बंध सिद्ध होता है ।

बस इसमें विशेष इतना है कि एकक्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध दो प्रकार के है –

  1. दो द्रव्यों का एक क्षेत्र में मात्र रहना, बिना किसी बंधन के | (जैसे – सिद्ध भगवान् के प्रदेशों में ही अनंत निगोदिया जीव भी रहते है और कार्माण वर्गणायें भी है लेकिन बंधन रूप एकक्षेत्रावगाह नहीं है)

  2. दो द्रव्यों का एक क्षेत्र में रहना + बन्ध (हमारे साथ जितने क्षेत्र में आत्मा के प्रदेश है उन्हीं प्रदेशों में कार्माण वर्गणायें भी है लेकिन बन्धन रूप है)

यहाँ जो दूसरा वाला एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, उसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का एक sub-set समझना चाहिए ।

अतः पण्डितजी के कथन का भाव यह है कि आत्मा को संसार दशा में अबद्धस्पृष्ट सर्वथा नहीं कहा जा सकता, अन्यथा निश्चयाभास होगा |

संबंधों के अन्य भेदों के लिए देखें - सम्बन्ध

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कृपया अबद्धस्पृष्ट की व्याख्या करें।

अबद्धस्पृष्ट - आत्मा कर्मों से न बँधा है, न ही वे कर्म आत्मा को छूते है ।

समयसार, गाथा 14, आत्मख्याति टीका -

अबद्धस्पृष्ट - जिसप्रकार जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र का, जल से स्पर्शितपर्याय की ओर से अनुभव करने पर, देखने पर, जल से स्पर्शित होना भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य कमलिनी पत्र के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर जल से स्पर्शित होना अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
इसीप्रकार अनादिकाल से बंधे हुए आत्मा का पुद्गलकर्म से बँधने, स्पर्शित होनेरूप अवस्था से अनुभव करने पर बद्धस्पष्टता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि पुद्गल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।

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इसे संश्लेष संबंध भी कहते हैं। और इनके बीच में अनुपचरित असदभूत व्यवहार नय घटित होता है।

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@jinesh
where will I find नित्य and अनित्य तादात्म्य सम्बन्ध?
@Sulabh

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So far, I could find it in a secondary source:

यहाँ पर कोई कहता है कि यदि पर्यायके साथ द्रव्यका तादात्म्य सम्बन्ध है तो वह पर्याय विनष्ट क्यों हो जाती है ? इसका यह अर्थ है कि तादात्म्य सम्बन्ध एक तो नित्य होता है और एक अनित्य होता है। पर्यायोंके साथ जो सम्बन्ध है वह अनित्य है और गुणोंके साथ जो सम्बन्ध है वह निरन्तर रहता है, अतः नित्य है।

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उद्धरण हेतु धन्यवाद!

इस प्रश्न का मूल कारण यह है कि तादात्म्य सम्बन्ध के ऐसे दो भेद कहीं मिलते नहीं है।

साथ ही थोड़ी और खोजबीन करने पर यह भी समझ आया है कि तादात्म्य तो नित्य ही होता है लेकिन तन्मयता परिणामात्मक होने से अनित्य है।

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Could you please share more about it. In mean time sharing my understanding from shastra reading.

शास्त्र में स्पस्ट “अनित्य तादात्म्य” ऐसा शब्द वर्तमान में न मिलने पर भी भाव मिल रहे है।

प्रथम तो शास्त्रो में तन्मयता (समयसार गाथा 99 टीका) और तादात्मय (समयसार गाथा 66 टीका) दोनों को व्याप्त व्याप्ति व्यापक से ही समझाया है।

तन्मय और तादात्म्य दोनों का हेतु द्रव्य-पर्याय में अनन्यपना और अन्य द्रव्य से भिन्नता दिखाना है। इसलिए इनके अर्थ में कोई अंतर नहीं भासित होता।

समयसार गाथा- 310 की टीका स्पष्ट है कि “सभी द्रव्यों को अपने परिणामो के साथ तादात्म्य है।” यहाँ स्पष्ट ही है कि द्रव्य-पर्याय तादात्म्य है। (शास्त्रो में द्रव्य पर्याय में केवल तन्मयता ही लिखी है, तादात्म्य नही- ऐसा नहीं।)

क्योंकि परिणाम अनित्य होने से उसके साथ का तादात्म्य कैसा होगा? नित्य या अनित्य? तन्मय और तादात्म्य एकार्थ है और प्रवचनसार गाथा 8 टीका और 114 टीका में "उसकाल तन्मय’ ऐसा लिखा भी है जो अनित्य तादात्म्य की ही सिद्धि है।

समयसार गाथा 61-62 टीका को ध्यान से देखे तो वहां वर्णादिस्वरूप और वर्णादिभाव ऐसे दो शब्दों का इस्तेमाल हुआ है। उसका मर्म समझने पर बहुत बाते स्पष्ट होती है।

जो 29 वर्णादि भावो की बात पूर्व गाथाओ में आई है उनमें अधिकतर पर्यायें है। और वर्णादिस्वरूप से पुद्गल के असाधारण लक्षण (वर्ण, गंध, रस, स्पर्श) ग्रहण किया है। (स.गाथा 62 टीका)

अब गाथा 61 की टीका में लिखा है कि “वर्णादिस्वरूपता से व्याप्त होता और वर्णादिस्वरूपता की व्याप्ति रहित नहीं होता ऐसे पुद्गल का वर्णादिभावों के साथ तादात्म्यलक्षण संबंध है।”

इसतरह स्पष्ट हुआ कि वर्णादिस्वरूप पुद्गल का वर्णादिभावो (गुण-पर्यायो) से तादात्म्य है। जब पर्याय अनित्य है तो

ऐसा एकांत संभव नही।

पुनः विचार करने योग्य है।

गाथा 69 की टीका में आत्मा और क्रोधादि आस्रव को संयोगसिद्ध संबंध कहा है। वहाँ आप जीव के क्रोधादि की बात मानकर उसका आत्मा के साथ संयोगसिद्ध संबंध मान रहे हों। जो पुनः विचारणीय है।

शास्त्रो में संयोग संबंध दो द्रव्य के बीच बताया है। स्वभाव विभाव के बीच संयोग संबंध नही बताया कहीं भी।

क्रोध में संयोग निमित होने से उसे संयोगी भाव कहना ठीक है किंतु उसका अर्थ यह नही की क्रोध का आत्मा से संयोग संबंध है। जीव क्रोध का संयोग संबंध तो निमित के साथ है स्वयं जीव के साथ नहीं।

इसप्रकार से जीव के क्रोध को आत्मा से संयोग संबंध सिद्ध करने का तारण करना गलत हो जाएगा क्योंकि वास्तव में आत्मा ही क्रोध रूप परिणमा होने से उसका तो आत्मा के साथ अनित्य तादात्म्य है।

जीव क्रोध और पुद्गल क्रोधादि ऐसे क्रोध के दो प्रकार नहीं स्वीकार के कारण यह सब गलती हो रही है। वास्तव में गाथा 69 में पुद्गल क्रोधादि आस्रव का जीव से संयोग संबंध बताया है। पुद्गल क्रोध भी 3 प्रकार है। नो कर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म। किन्तु शास्त्र आधार होते हुए भी पुद्गल क्रोध का पूर्वाग्रह से अस्वीकार के कारण यह गलती चली आ रही है। हम युवा को यह गलती आगे बढ़ने से रोकने की अपनी जिन्मेदारी समझनी होगी।

इतने मात्र तर्क से क्रोधभाव का आत्मा से संयोग संबंध सिद्ध करना तर्क नही। अनित्य तादात्म्य है। शास्त्र में द्रव्य जिस भाव परिणमें उससे तन्मय बताया भी है। उससे संयोग नही बताया। द्रव्य का गुण-पर्याय से संयोग तो वैशेषिक मान्यता है। हम जैनमतानुयायी है।

आप इसपर पुनः विचार जरूर करें क्योंकि आपके उत्तर में यह गलती रहते हुए उसे solution mark किया गया है। भविष्य में फ़ॉरम से यह बात पढ़नेवाला उसे जिनमत मान लेगा।

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आपने प्रश्न उपस्थित किया है अतः इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। मुझे इस विषय में कोई पूर्वाग्रह नहीं है। यदि आप इस पूरे प्रकरण का एवं समयसार ग्रंथाधिराज का पुनः अवलोकन करेंगे तो सम्भवतः आपको पुनर्विचार का अवसर मिले।

बात अत्यंत स्पष्ट है फिर भी आपको कुछ शंकाएँ हो रही है इसलिए कुछ बिन्दु यहाँ रख रहा हूँ। आप अपने विचार अवश्य बताइए:

  • यदि ऐसा होता तो फिर उसी प्रकरण में गाथा 71-74 में जिस आस्रव के सम्बन्ध में अशुचि, दुःखरूप, दुःख का कारण आदि विशेषणों के द्वारा उसका स्वरूप स्पष्ट किया है तथा आत्मा की उससे भिन्नता बताई है, वह पुद्गल क्रोधादि आस्रव पर कैसे घटित होगी? अभी तो आस्रव हुआ है, फिर अनंतर समय में बन्ध होगा और उदय तो आबाधा काल पूर्ण होने के बाद ही आएगा। ऐसे आस्रव से मुझे भेदविज्ञान की क्या आवश्यकता?

  • तथा सबसे बड़ी बात - जो आस्रव मेरे ज्ञान का विषय तक नहीं बनता, उसके प्रति मैं कर्ता बुद्धि कैसे रख सकता हूँ कि “ये मेरे द्वारा किया गया कार्य है”?

  • गाथा 69 की टीका में यहाँ तक लिखा है कि “… यावद्भेदं न पश्यति तावदशङ्कमात्मतया क्रोधादौ वर्तते” - यदि यहाँ पुद्गल क्रोधादि की बात होती तो इसका अर्थ क्या करेंगे?

  • वहीं, टीका में क्रोधादि के संदर्भ में “… अन्तरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म” - ऐसा कहा है। पुद्गल क्रोधादि अन्तरंग में उत्पन्न कैसे हो सकते है?

  • इन आस्रवों को आकुलता स्वभाववाला कहा गया है, सो पुद्गल क्रोधादि के आस्रव से तो मुझे आकुलता का अनुभवन नहीं होता। जबकि गाथा 71 की आत्मख्याति टीका में आचार्य स्पष्टरूप से क्रोधादि के अनुभवन की चर्चा करते हैं। पुनः ध्यान देना चाहिए कि आस्रव अलग है और उदय अलग है। यदि यहाँ क्रोधादि के उदय की बात होती तो कदाचित् पुद्गल क्रोधादि की कल्पना फिर भी संभव थी। लेकिन यहाँ आस्रव की चर्चा है।

  • एकत्व-विभक्त आत्मा की अनुभूति के लिए समस्त परभावों से भेदविज्ञान आवश्यक है जिसमें जीव-क्रोधादि भी गर्भित है।

कर्तृकर्माधिकार के इस पूरे प्रकरण (गाथा 69-74) का भाव पण्डित टोडरमलजी ने भी एक पंक्ति में कह दिया है:

वे अपने किये भासित होते है, इसलिए इनको बुरा कैसे माने?

मोक्षमार्गप्रकाशक, चतुर्थ अधिकार, आस्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल, पृ. 82.

यहाँ भी पण्डितजी ने मिथ्यात्व-कषाय आदि जीव को होनेवाले भावों की चर्चा की है। पुद्गल क्रोधादि की नहीं।


यदि एक बार आप कर्तृकर्माधिकार के इस प्रकरण को एवं पूरे अधिकार को पुनः जीव-क्रोधादि के अर्थ में देखेंगे, तो मैं समझता हूँ कि ज्ञान और क्रोधादि में जो भिन्नता है, उस भेदज्ञान का आनन्द आपको भी अवश्य आएगा।


जीव-क्रोधादि का आत्मा के साथ वैसा संयोग नहीं है जैसा शरीर का आत्मा के साथ है। लेकिन क्रोधादि का आत्मा के साथ ऐसा भी सम्बन्ध नहीं है जैसा ज्ञान का आत्मा के साथ है। - इतना समझने पर न निश्चयाभास का भय रहेगा, न ही पर्याय-मूढ़ता का। निश्चयाभासी क्रोध को ऐसा भिन्न कर देता है जैसा कि मानो वह स्वयं किसी भी अपेक्षा उसका कर्ता है ही नहीं। तथा पर्याय-मूढ़ जीव क्रोधादि को अपना ऐसा स्वभाव मानता है कि मानो वह किसी भी अपेक्षा से अपने से भिन्न है ही नहीं। इन दोनों ही मिथ्यात्वों से बचने के लिए स्याद्वादमय शैली में निबद्ध इस अधिकार का सम्यक् प्रकार से स्वाध्याय होना चाहिए।

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बिल्कुल - यदि निष्पक्ष सत्यता के स्वीकार की तैयारी से चर्चा हो तो जरूर बाह्य अभ्यंतर धर्म प्रभावना होगी।

इस फोरम पर बिना पूर्वाग्रह चर्चा हो पाती है, यह इस फॉरम की अद्भुत विशेषता है। और आपका पूर्वाग्रह न होना वह अभिनंदनीय है।

आपका जो मत है वहीं आज अधिकतर लोगों का मत है। और जो मैं लिख रही हूं वह प्रसिद्ध नहीं किंतु उसकी सत्यता दिखाना चाहती हूँ। इसलिए आपसे पूर्वाग्रह न रखने के लिए निवेदन है। पूर्व परिचित वात से भिन्न बात का स्वीकार मुश्किल तो होता ही है।

चलो करते है।

अजीव अधिकार में गाथा 50-55 में वर्णादि से गुणस्थान तक सभी को पुद्गल द्रव्य का परिणाम निश्चय से लिखा है।

आचार्य ने निश्चय से जो लिखा हो वह वैसा ही मानना चाहिए, ना कि उसे जीव के मानकर अपेक्षा से पुद्गल कहना चाहिए।

हाँ, यदि वे पुद्गल कैसे? ऐसी शंका हो तो उसका समाधान दिया जा सकता है। किंतु यह समाधान तो उचित नही की आचार्य निश्चय से पुद्गल लिखे और हम उसे पुद्गल के न मानकर, जीव के माने, और फिर अपेक्षा से पुद्गल के कहे।

इसपर तो चर्चा हुई ही है फोरम पर।

इसलिए प्रथम तो यह जानना जरूरी है कि क्या आपको दो प्रकार के भाव कर्म स्वीकार है या नहीं? पुद्गल क्रोधादि और जीव क्रोधादि। यदि हाँ तो ठीक है।

आप और मैं इतनी बात पर सहमत है कि जीव और पुद्गल दोनों प्रकार के रागादि होते है।

अब यह अवलोकन करना है कि समयसार की किस गाथा मैं कोनसे रागादि आस्रव की बात है।

यदि गाथा 69 में पुद्गल की बात है तो 71 से 74 तक सभी गाथाओ में पुद्गल की ही बात होनी चाहिए, ऐसी ग्रंथि न रखे।

जब जीव और पुद्गल दो प्रकार के आस्रव है तो भिन्न भिन्न गाथाओ में इनमें से कोई एक या दोनों रागादि की बात आ ही सकती है। यह बात खास लक्ष में रखना।

मैंने सभी गाथाओ में केवल पुद्गल रागादि की ही बात है यह नहीं कहा है। जीव रागादि की भी बात है।

किंतु केवल जीव रागादि की ही बात नहीं। पुद्गल की भी बात है। यह मेरा कहना है। जहाँ आचार्य जीव या पुद्गल जो भी आस्रव बताए वहाँ उसे वैसे देखना उचित हे।

क्रम कुछ ऐसा है कि गाथा 69 में पुद्गल, 70 में जीव, 71 में पुद्गल, 72 में जीव, 73 में पुद्गल, 74 में जीव, 75 में पुद्गल के रागादि की बात है।

आप पुनः इन गाथाओं का इसरूप अवलोकन कीजियेगा। तब यदि जिस गाथा में मैंने पुद्गल के रागादि है ऐसा कहा है वहां वह घटित न हों तो चर्चा में वह बात जरूर रखियेगा।

आप ने केवल कर्म के आगमन को ही आस्रव माना है। किंतु भावकर्म, द्रव्यकर्म, नौ कर्म जिसमें मन वचन काय के योग समाहित है वे भी आस्रव हैं। यह बात ध्यान में रखकर अवलोकन करें। क्योंकि मन वचन काय भी पुद्गल रागादि है। जो अपने ज्ञान में आते है। और उनसे भेदज्ञान आवश्यक भी है।

यहां गाथा में कहा है की जब तक ज्ञानमय जीव और पुद्गल रागादि का भेद नहीं जानता तब तक पुद्गल रागादि मैं आत्मता करते हुए स्वयं क्रोध रूप वर्तता है।

यहां जिससे भेदज्ञान करना है वे तो पुद्गल रागादि है और जो स्वयं क्रोध रूप वर्तता है वह तो जीव का ही क्रोध परिणमन है।

पहेले जो संयोग सिद्ध संबंध समझकर भेद की बात चल रही है वह पुद्गल क्रोधादि से है।

जो अंतरंग में प्रतिभासते है वह जीव के रागादि ही अपना कर्म है और अनादि से अज्ञान उसका कर्ता। इसीतरह जीव की कर्ताकर्म की प्रवृति चली आ रही है।

जी जीव के आस्रव को ही आकुलता स्वभावी कहा है।

गाथा 71 में अनुभवन की चर्चा कहा है? दिखायेगा।

वहां तो स्पष्ट लिखा है कि निश्चय से क्रोधादि और ज्ञान का एक वस्तुपना नहीं है।

निश्चय, जो जिसका है, उसे उसका कहता है।

जीव के राग को जीव का कहना निश्चय है। और जिसे निश्चय ने पुद्गल का कहा हो वह वास्तव में पुद्गल ही है। वह जीव के हो और उसे किसी अपेक्षा से पुद्गल कहे ऐसा नहीं। ऐसा निश्चय कथन का स्वरूप ही नहीं।

जीव का जीव के राग के साथ निश्चय से एक वस्तुपना है। और पुद्गल रागादि के साथ एक वस्तुपना नहीं है।

अब वहां आचार्य द्वारा स्पष्ट भिन्न वस्तु लिखे जाने पर भी पुद्गल जो कि भिन्न वस्तु ही है और उसके रागादि होते भी है फिर भी उसे न स्वीकारते हुए, जो भिन्न वस्तु नही ऐसे जीव के रागादि की सिद्धि मनवाकर सिद्धांत की खींचतान उलटपलट को justify करना क्या उचित है?

आप पुनः याद करिए कि आस्रव केवल कर्म का आना ही नहीं किन्तु मन वचन काय का योग भी है। जिससे भेदज्ञान करने से अज्ञान के निमित से होने वाले नये कर्म के बंध से निवृति होती है।

द्रव्य आस्रव से निवृति के लिए जीव के आस्रव से वस्तुभिन्नता नही करनी किंतु उस अज्ञान आस्रव रूप परिणमन छोड़ना है।

जीव आस्रव की जीव से वस्तुभिन्नता करने से तो अज्ञानरूप आस्रव का अस्तित्व रहता है। बस केवल भिन्नता की है। उसके अस्तित्व में कर्म का आगमन और बंध कैसे रुके?

कर्म के आगमन को रोकने के लिए जीव के आस्रव से पररूप भिन्नता की जरूर नहीं। उसे हेय मानकर उस रूप जीव के परिणमन को रोकने की जरूर है। भिन्न वस्तु में कर्तुत्व नही हो सकता और जीव रागादि को रोकने के लिए उसे अपने कर्ता रूप अधिकार में रखना पड़ता है।

क्या जिसके कर्ता हम नहीं उसे मिटाने के पुरुषार्थ को टोडरमलजी ने सम्यक्त्व कहा होगा? क्योंकि पंडितजी ने तो रागादि मिटाने के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा हैं।

जीव के एकत्व में अपने सभी गुण पर्यायों से एकत्व करना है। और पर द्रव्य व उनके भाव से विभक्त करना है।

विभाविक पर्याय से वस्तुरुप एकत्व नहीं छोड़ना पड़ता। केवल स्वभावरुप एकत्व छोड़ा जाता हैं।

अब आप जब समयसार को सीधा समयसार में आचार्य ने क्या लिखा है उससे समझ जाएंगे तो ही पंडित टोडरमलजी को समझ पाएंगे।

जब चलती धारा से भिन्न कुछ कहने का साहस किया है मैंने, तो बिना अवलोकन किये तो यह साहस नहीं कर सकती ना?

इसलिए मेरे निवेदन पर आप एकबार कर्तृकर्माधिकार के इस प्रकरण को एवं पूरे अधिकार को पुनः जीव एवं पुद्गल दोनों प्रकार के क्रोधादि के अर्थ में देखेंगे, तो मैं समझती हूँ कि ज्ञान और जीव-पुद्गल क्रोधादि में भिन्नता कैसे देखनी इसकी सम्यक समझ से भेदज्ञान का आनन्द अवश्य हो आएगा।

तब जीव के रागादि को जीव के प्रदेश से भिन्न करने की, उसे संयोगरूप देखने की जो आनंद की अनुभूति है उसमें आनंद मानने का मिथ्यापना भी भासित हो जाएगी।

जीव और जीव के क्रोधादि में, ऐसा या वैसा, कैसा भी संयोग नहीं है। वे संयोगी भाव पुद्गल संयोग से कहे गए है जीव के साथ संयोग है इसलिये नहीं।

स्याद्वाद के नाम पर सिद्धान्त का खंडन कर एक वस्तु में
वस्तु भिन्नता बताना जैनमत
से बहार हो जाना है।

आपका कोई प्रतिपक्ष हो तो जरूर कहियेगा। और यदि मेरी बात में सत्यता लगे तो स्वीकार का साहस जरूर कीजियेगा।

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कृपया पुद्गल रागादि और जीव रागादि में अंतर स्पष्ट करे
यदि हो सके तो उदहारण पूर्वक बताये।

जो जीव के परिणाम राग आदि रूप है वे जीव के रागादि है । जो कर्म का रागउदय आदि है, मन वचन काय का राग रूप परिणमन आदि है वह पुद्गल रागादि है।

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आपने उपर्युक्त जितनी बातें कही है, उन पर मैं पुनर्विचार अवश्य करूँगा। कई विषयों में अभी भी संतुष्टिजनक उत्तर नहीं मिले है। मैं एक-एक बात पर पुनः प्रश्न उपस्थित करूँ, फिर आप पुनः उनका स्पष्टीकरण दे, यह परम्परा चलती रहेगी।

आपको यदि ऐसा लगता है तो आप सप्रमाण एवं सयुक्ति इस बात को सिद्ध करने के लिए एक लेख लिखिए एवं अपना मत स्पष्टतया प्रगट कीजिए। फिर उसे आप प्रेषित कीजिए। तभी अच्छे से चर्चा हो पाएगी। अभी पूर्वपक्ष के किसी एक बात पर मैं प्रश्न उपस्थित करता हूँ तो आप कुछ ऐसा सामने रखते है जो नया होता हैं तथा जिसका कोई प्रमाण भी नहीं दिया जाता। अतः जब तक आपका पूरा मत प्रगट न हो तब तक इस विषय में चर्चा संभव नहीं है। अथवा यदि आपने पहले से कुछ लिखा हो, तो आप मुझे फोरम पर व्यक्तिगत मेसेज से भेज सकते है। निवेदन है कि पूर्व में अथवा यहाँ फोरम भी जो चर्चाएँ हुई है, कृपया उन्हें न भेजे। मैं प्रमाण सहित लेख की अपेक्षा कर रहा हूँ। यदि उसमें समय लगे तो कोई दिक्कत नहीं है। आप अपने समय की अनुकूलता से जहाँ जैसा संभव हो, उसे लिखकर मुझे अवश्य भेजिए। मैं ध्यान से निष्पक्ष भाव से उसे पढ़ूँगा तथा योग्य प्रतिक्रिया भी अवश्य की जाएगी।

दूसरी बात, चूँकि यह विषय अभी परस्पर विवादित है, अतः सामूहिक रूप से इस विषय पर चर्चा नहीं करनी चाहिए। जब हम एक मत हो जाएँगे तो यहाँ स्पष्टीकरण दे सकते है।

आपका आभार एवं धन्यवाद

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आपसे सहमत हूँ। i shall write and share in 10 days.

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आपकी इस बात से में सहमत नहिं। जब जब प्रमाण की जरूर लगी, या मंगा वह दिया गया हे। अभी अभी किशनजी को भी सप्रमाण उत्तर दिया है।

मेरे पूर्व उत्तर में भी गाथा के शब्दों का प्रमाण है ही। आप गाथा खोलकर देखिएगा।

I and Jineshji had a good elaborated discussion on it. Now he wish to take time to think on it. In the mean time, with his consent posting my views on the topic.

इस विषय पर कुछ शंकाए और उनके समाधान निम्न प्रकार हो सकते है।

शंका 1

जयसेन आचार्य की टीका अनुसार भावकर्म के दो भेद है। क्या अमृतचन्द्र आचार्य की टीका में उनके कथनो से ही उसके दो भेद सिद्ध कर सकते हैं?

उत्तर:

गाथा 328-331 की टीका में अमृतचन्द्रदेव ने भावकर्म लिखा है।

टीका: “जीव ही मिथ्यात्वादि भावकर्म का कर्ता है; क्योंकि यदि वह (भावकर्म) अचेतन प्रकृति का कार्य हो तो उसे (भावकर्म को) अचेतनत्व का प्रसंग आ जायेगा। जीव अपने ही मिथ्यात्वादि भावकर्म का कर्ता है; क्योंकि यदि जीव पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्वादि भावकर्म को करे तो पुद्गलद्रव्य को चेतनत्व का प्रसंग आ जायेगा। 329- 331”

यह गाथा ‘जीव के भावकर्म का कर्ता कौन?’ इस संदर्भ में है। फिरभी उसमें आचार्यदेव ने यह भी सिद्ध किया कि जीव भावकर्म का कर्ता तो है किंतु केवल अपने भावकर्म का। जो पुद्गल के मिथ्यात्व आदि भावकर्म है उसका कर्ता जीव नहीं। इससे सिद्ध होता है कि पुद्गल के भावकर्म है जो अमृतचन्द्रदेव को स्वीकार है। दोनों प्रकार के भावकर्मो का स्वीकार है इसलिए तो कहना पड़ा कि जीव पुद्गल के भावकर्म का कर्ता नहीं। केवल अपने भावकर्म का कर्ता है।

शंका 2

गाथा ८७ में दिए मिथ्यात्व आदि अजीव द्रव्यास्रव का अर्थ नए आनेवाले कर्म है या कर्मोदयरुप आस्रव?

उत्तर:

भाषा टीकाकार ने गाथा 87 से पहेले ही प्रश्न में पूछा है कि मिथ्यात्व आदि भाव क्या हैं? प्रश्न भाव पर ही है।

अब टीका के वाक्यों को देखते है। (कृपया समयसार मूल शास्त्र गाथा ८७ की टीका खोलकर आगे का उत्तर पढ़े।)

टीका: “मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जो भाव” - देखिए यहां भाव लिखा है।

टीका: “जो भाव हैं वे प्रत्येक मयूर और दर्पण” - अब मयूर और दर्पण से स्पष्ट है कि नये बंध रहे या सत्ता में पड़े द्रव्यकर्म की बात नहीं किन्तु उदयगत कर्म और जीव के भाव के निमित नैमित्तिक की बात है। यह मयूर और दर्पण का द्रष्टांत नये आनेवाले कर्म के साथ घटित नहीं होता।

टिका: “इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीव के अपने द्रव्यस्वभाव से अजीव के द्वारा भाये जाते हैं वे अजीव ही हैं”- देखिये फिर यहाँ इत्यादि भाव लिखा है।

अब भावार्थ में तो तीन बार उदय और भाव की यह बात स्पष्ट ही लिखी गई है कि

भावार्थ :-

  1. पुद्गल के परमाणु पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मरूप से परिणमित होते हैं। उस कर्म का विपाक (उदय) होने पर उसमें जो मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न होता है वह मिथ्यात्वादि अजीव है और कर्म के निमित्त से जीव विभावरूप परिणमित होता है, वे विभाव परिणाम चेतन के विकार हैं इसलिये जीव हैं।

देखिये यहां स्पष्ट ही हो रहा है कि मयूर और दर्पण से कर्मउदय और जीव के विकार का निमित नैमित्तिक बताया जा रहा है। अब यदि यहाँ नए बंध रहे कर्म अर्थ करेंगे तो पंडित जयचंद जी के भावार्थ से विरोध व्यक्त होगा।

  1. यहाँ यह समझना चाहिये कि मिथ्यात्वादि कर्म की प्रकृतियाँ पुद्गलद्रव्य के परमाणु हैं। जीव उपयोगस्वरूप है। उसके उपयोग की ऐसी स्वच्छता है कि पौद्गलिक कर्म का उदय होने पर उसके उदय का जो स्वाद आवे उसके आकार उपयोग हो जाता है। अज्ञानी को अज्ञान के कारण उस स्वाद का और उपयोग का भेदज्ञान नहीं है, इसलिए वह स्वाद को ही अपना भाव समझता है।

  2. जब उनका भेदज्ञान होता है अर्थात् जीवभाव को जीव जानता है और अजीव भाव को अजीव जानता है तब मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है ॥ ८७॥

मुमुक्षु का प्रयोजन सम्यकत्व प्राप्ति है तो पुद्गल भावकर्म के स्वीकार के बिना उससे भेदज्ञान कैसे करेंगे? क्योंकि 87 के भावार्थ के यहां प्रस्तुत तीसरे पॉइंट अनुसार जीवभाव और अजीवभाव में भेदज्ञान से मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है। और फिर टीकाकार आचार्य ने बार बार भाव शब्द लिखा होने के बाद भी खेद है कि किसी कारणवश ऐसी मान्यता बन जाती है कि गाथा में नये कर्मो आस्रव ही भासता है। मिथ्यात्व आदि शब्द से कर्मोदय और कर्मोदय को भावकर्म रूप अस्वीकार वर्तता है। जबकी गाथा 328-331 की टीका में तो अमृतचन्द्रदेव ने भावकर्म लिखा भी है।

शंका 3

उदयागत कर्म को आस्रव कहते है उसका गाथा १६४-१६५ से अतिरिक्त आधार।

उत्तर:

प्रथम तो जब गाथा 164 में कर्मोदय को आस्रव कहा है तो कर्मोदय को आस्रव कहने का निषेध नहीं हो सकता है। फिर भी उसे आस्रव कहने के अन्य आधार भी यहाँ दिए जा रहे है।

कोई समझे कि उदय को आस्रव बस एक गाथा 164-165 में ही कहा है जो की स्थूल कथन है। किंतु ऐसा नहीं। गाथा 169 के उत्थानीका में ही द्रव्यास्रव शब्द है। और 170 में उन 4 प्रकार के द्रव्यास्रव को बंध के हेतु लिखे है। यहाँ से स्पष्ट है कि 169-170 में उदय की बात है।

इतना ही नहीं भावपाहुड गाथा 114 में जयचंदजी तत्त्व की भावना का चिन्तन कराते हुए आस्रव तत्व का चिंतन कर्मोदय से करा रहे है, नवीन कर्म आगमन से नहिं।

भावपाहुड गाथा 114: “तीसरा `आस्रवतत्त्व’ है वह जीव-पुद्गल के संयोग जनित भाव हैं, इनमें अनादि कर्मसम्बन्ध से जीव के भाव (भाव आस्रव) तो राग-द्वेष-मोह हैं और अजीव पुद्गल के भावकर्म के उदयरूप मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग द्रव्यास्रव हैं । इनकी भावना करना कि ये (असद्भूत व्यवहारनय अपेक्षा) मुझे होते हैं (अशुद्ध निश्चयनय से) राग-द्वेष-मोह भाव मेरे हैं, इनसे कर्मो का बंध होता है, उससे संसार होता है, इसलिए इनका कर्ता न होना (स्व में अपने ज्ञाता रहना।)”

और अध्यात्म अभ्यास शुरू करने हेतु जो सबसे पहले पढ़ी जाती है ऐसी जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में भी आस्रव को 4 प्रकार के बताते हुए कर्मोदय को आस्रव लिखा है।

अमृतचंद्रदेव और जयसेनाचार्य दोनों की टीका में आस्रव और प्रत्यय पर्यायवाची की तरह प्रयोग हुआ है। हिंदी अनुवादक ने भी संस्कृत में दिए कर्मोदय-प्रत्यय शब्द का हिंदी में आस्रव अनुवाद एक नही कई बार किया हैं। भावार्थ में तो जयचंदजी ने कर्मोदय-प्रत्यय को अधिकतर द्रव्यास्रव ही लिखा है।

इसतरह पूर्व के अनेक पंडितों ने कर्मोदय को आस्रव स्वीकारा है।

शंका 4

कर्मो के परिणाम जैसे की उदय बंध सता आदि उनको हम जानते नहीं तो उससे भेद्ज्ञान नहीं हो सकता।

उत्तर:

समयसार गाथा 75.

जो कर्म का परिणाम अरु नोकर्म का परिणाम है

सो नहीं करे जो मात्र जाने वही आत्मा ज्ञानी है।

गाथा 75 पढ़ते हुए विचार जरूर करना चाहिए कि यहां “मात्र जाने” ऐसा कह के कर्मों के परिणाम को ज्ञानी जानता है ऐसा क्यों लिखा।

टीका में लिखा है कि “निश्चय से मोह राग द्वेष सुख दुख आदिरूप से अंतरंग में उत्पन्न होता हुआ जो कर्म का परिणाम…” - क्या इन अंतरंग मोह राग द्वेष आदि "जीव के है और पुद्गल के कहे है?” या वास्तविक पुद्गल है?

यदि वह मोह राग द्वेष आदि को “जीव के है किंतु पुद्गल के परिणाम कहे है” - ऐसा मानते है तो, टीका में तो स्पष्ट लिखा है कि “पुद्गल परिणाम और आत्मा को घट और कुम्भार की भांति व्याप्यव्यापकभाव के अभाव के कारण कर्ताकर्मपने की असिद्धि है।” यदि उसे जीव के है और पुद्गल के कहे है, तो फिर जीव के साथ व्याप्यव्यापकभाव का अभाव नही। क्योंकि यदि वे जीव के मोह आदि है तो जीव उनमें व्यापक है ही। इसतरह टीका के व्याप्यव्यापकभाव के अभाव की बात से यह बात का विरोध आ रहा है।

इसलिए यह सिद्ध हुआ कि यहाँ लिखे मोह राग द्वेष आदि अंतरंग परिणाम वे वास्तविक पुद्गल है। जीव के भाव को पुद्गल कहने रूप पुद्गल नही। जीव का उसमें व्याप्यव्यापकभाव का अभाव भी है। और जीव उनका ज्ञाता है।

हाँ जीव, ‘कर्म के मोह आदि उदय को जानता है’ - यह आचार्य की बात स्वीकारते हुए यह जिज्ञासा हो सकती है कि कैसे जानता है? अब उसका उत्तर गाथा 132 से 136 की टीका में पुद्गल के मिथ्यात्व असंयम कषाय और योग के उदय का ज्ञान में कैसा स्वाद आता है वह दिया है। उस नैमित्तिक स्वाद से निमित का ज्ञान होता है और उससे भेदज्ञान संभव और आवश्यक है।

इस टीका में दी हुई एक लाइन जरूर लक्ष में लेना कि “यह पौद्गलिक मिथ्यात्व आदि के उदय हेतुभुत होने पर जो कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि भाव…”

इससे 2 बात सामने आती है।

पहेले तो यह मिथ्यात्व आदि पौद्गलिक है। जीव के नहीं।

इस लाइन से एक और मुख्य बात पर लक्ष दिलाना चाहती हूं की कर्म के (मोहनियकर्म के) उदयरूप आस्रव को मिथ्यात्वादि लिखा जाता है और नए कर्म के आगमन/बंध को ज्ञानावरणादि लिखने की पद्धति है।

गाथा 164-165 में भी उसी तरह दिया है। इसलिए पौद्गलिक *मिथ्यात्वादि आस्रव शब्द से कर्मोदय समझना चाहिए। नवीन कर्म आस्रवण नहीं।

यह बात यदि ध्यान में रहेगी तो जब कभी जिन जिन गाथाओं में मिथ्यात्वादि लिखा होगा तो “वह जीव के ही हो सकते है” - ऐसा अर्थ शीघ्रता से न करने में सावचेती रहेगी क्योंकि वह मिथ्यात्व आदि कर्मोदय भी हो सकते हैं।

और यदि उन गाथाओं में पुद्गल के मिथ्यात्व की बात ज्ञान में बैठ गई तो उनके लिए आस्रव शब्द है, वह आस्रव शब्द कर्मउदय के लिए कैसे? यह उलझन नहीं रहेगी। क्योंकि सामान्यतः पुद्गल के मिथ्यात्वादि शब्द उदय के लिए है नए कर्म आस्रवण/ बंध के लिए नहीं।

समयसार में आस्रव अधिकार में जीव एवं पुद्गल के मिथ्यात्वादि आस्रव की ही चर्चा अधिक एवं प्रधान है ज्ञानावरणादि आस्रव की कम है।

समयसार के पूर्वरंग में गाथा ३६ में “मोह कुछ मेरा नहीं” कहते हुए आचार्य टीका की प्रथम लाईन में ही लिखते है की “निश्चय से फलदान की सामर्थ्य से प्रगट होकर भावकरुप होनेवाला पुद्गलद्रव्य से रचित मोह मेरा कुछ भी नहीं लगता।“ – अब यहाँ भावक कहकर स्पष्ट कर्मोदय की बात है। क्योंकि जीव का मोह तो भाव्य कहलाता है। और टीका की अंतिम लाईन है की “इसप्रकार भावकभाव जो मोह का उदय उससे भेद्ज्ञान हुआ।“ इसतरह पुद्गल मोह भी सिद्ध हुआ और उससे भेद्ज्ञान भी।

पुद्गल मोह को पुद्गल मानकर उससे से भेद्ज्ञान करना शास्त्रयुक्त है। उसे न स्वीकारते हुए “जीव के मोह को पुद्गल कहा है” – इस सुने हुए कथन की सिद्धि के लिए गाथाओ का अनर्थ करते हुए गाथा ६९ में द्रव्य-पर्याय में संयोगसिद्ध सम्बद्ध, गाथा १८१ में द्रव्य-पर्याय में प्रदेश भिन्न आदि असिद्धान्तिक बातों की सिद्धि क्यों? फिर उसके लिए ज्ञान और द्रष्टि के विषय में विरोध खड़ा होने से और फिर उसके भी विविध तर्क ढूंढते है।

संयोगसिद्ध सम्बन्ध द्रव्य पर्याय में नहीं होते, दों भिन्न द्रव्यों में होते है इस संबंधित कुछ आधार यहाँ प्रस्तुत करती हूँ।

टीका ६९-७० में दिया है की “जबतक यह आत्मा, जिन्हें संयोगसिद्ध सम्बन्ध है ऐसे आत्मा और क्रोधादि आस्रवों में” - यहाँ सोचना है की संयोगसिद्ध सम्बन्ध किनमें होता हैं?

जैनकोष से संयोग संबध के आधार लिए जा रहे हैं।

  • धर्म-धर्मी में संयोग संबंध का निरास:

अब यदि भेद पक्ष का स्वीकार करने वाले वैशेषिक या बौद्ध दंडी-दंडीवत् गुण के संयोग से द्रव्य को ‘गुणवान्’ कहते हैं तो उनके पक्ष में अनेकों दूषण आते हैं– द्रव्यत्व या उष्णत्व आदि सामान्य धर्मों के योग से द्रव्य व अग्नि द्रव्यत्ववान् या उष्णत्ववान् बन सकते हैं पर द्रव्य या उष्ण नहीं। (राजवार्तिक/5/2/4/43/32 ); ( राजवार्तिक/1/1/12/6/4 )।

इस आधार से यह सिद्ध होता है की

• एक द्रव्य के धर्म धर्मी में संयोग सम्बन्ध मानना बौद्ध और वैशेषिक मान्यता है जैन नहीं।

• यदि कोई तर्क करे की यह बात स्वाभाविक धर्म/पर्याय के लिए हैं जब की गाथा ६९-७० में वैभाविक पर्याय की बात है। तो प्रथम तो आधार में ऐसा लिखा नहीं गया की यह तर्क मात्र स्वाभाविक के लिए है विभाविक के लिए नहीं।

• और दूसरी बात, यदि स्वाभाविक पर्याय से तादात्म्यपना स्वीकार किया जा रहा हैं तो यह सिद्ध हुआ की “द्रव्य-पर्याय” में संयोग सम्बन्ध नहीं है।

अब केवल वैभाविक पर्याय से ही द्रव्य का संयोग सम्बन्ध सिद्ध या असिद्ध करना है।

आगे दिए जा रहे टीका के कथन अनुसार स्वाभाविक पर्याय का अपनेपन से स्वीकार होना चाहिए। टीकांश: ‘आत्मा, जिनके तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध है ऐसे आत्मा और ज्ञान में विशेष (अन्तर, भिन्न लक्षण) न होने से उनके भेद को (पृथकत्व को) न देखता हुआ, निःशंकतया ज्ञान में आत्मपने से प्रवर्तता है।’

अब यह देखते हैं की क्या विभाविक पर्याय का द्रव्य से संयोगसंबंध है? तो संयोगसंबंध की सारी व्याख्या यह कहती हे की भिन्न पदार्थ में ही सयोग हो सकता हे।

शास्त्र आधार:-

• दूसरी बात यह भी है कि संयोग संबंध तो दो स्वतंत्र सत्ताधारी पदार्थों में होता है, जैसे कि देवदत्त व फरसे का संबंध। परंतु यहाँ तो द्रव्य व गुण भिन्न सत्ताधारी पदार्थ ही प्रसिद्ध नहीं है, जिनका कि संयोग होना संभव हो सके। ( सर्वार्थसिद्धि/5/2/266/10 ) ( राजवार्तिक/1/1/5/7/5/8 ); ( राजवार्तिक/1/9/11/46/19 ); ( राजवार्तिक/5/2/10/439/20 ); ( राजवार्तिक/5/2/3/436/31 ); ( कषायपाहुड़ 1/1-20/322/353/6 )।

• सर्वार्थसिद्धि/6/9/326/7 संयुजाते इति संयोगो मिश्रीकृतम् । =संयोग का अर्थ मिश्रित करना अर्थात् मिलाना है। ( राजवार्तिक/6/9/2/516/1 )

• धवला 15/24/2 को संजोगो। पुधप्पसिद्धाण मेलणं संजोगो। =पृथक् सिद्ध पदार्थों के मेल को संयोग कहते हैं।

• मू.आ./48 की वसुनंदि कृत टीका - अनात्मीयस्यात्मभाव: संयोग:। =अनात्मीय पदार्थों में आत्मभाव होना संयोग है।

द्रव्य - वैभाविक पर्याय में संयोग संबंध का आधार नहीं मिल रहा। इसलिए बिना आधार यह बात रखना दोष है। यह वैशेषिक मान्यता हैं जिसका अपने आचार्यों ने निषेध किया हैं। और हम उनकी परंपरा के होकर जिनका अपने आचार्यों ने निषेध किया उसे जैनमत के रूप में प्रस्तुत करें? ऐसा दोष कभी न हो हमसे।

जब शास्त्र कहतें हैं की दो पृथक पदार्थों में संयोग होता है, और पुद्गलगत क्रोधादि पृथक पदार्थ होते हैं। तो इस गाथा में क्रोधादि का आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध दिखाया है उसे पुद्गल स्वीकारने में क्या दोष आ रहा हैं?

उसे पुद्गलरुप अस्वीकार करते हुए, जीव के मानकर, सिद्धान्त से विरोध खड़ा होता है। और फिर व्यवहार नय से नहीं निश्चय से जीव के क्रोधादि को पुद्गल के खाते में डालते हुए उसे पर्याय रूप लेकर द्रव्य से पर्याय का संयोग सम्बन्ध सिद्ध का शास्त्र आधार होना आवश्यक है। जो मिल नही रहा।

जीव क्रोधादि का पृथकवाला संयोग नहीं किन्तु निमिताधीन होने से जीव क्रोधादि का जीवद्रव्य के स्वयं के साथ भी संयोग है - ऐसा तर्क शास्त्र में लिखा मिलता नहीं? पुद्गल कर्म का तो जीवक्रोधादि से संयोग है और जीव को भी अपने ही भावों से संयोग कहेंगे तो संयोग शब्द का अर्थ ही क्या रहेगा?


जिनेशजी इसपर अधिक चिंतन और अन्य विद्वानों से चर्चा-विचारणा चाहते है इसलिए अब उनकी सहमती से यह मेरे विचार फॉरम पर रख रही हूँ।

जिनेशजी का सुझाव था की मैं एक लेख लिखकर विद्वानों को भेजू। वैसे यह लिखा जा रहा उत्तर स्वयं एक लेखरुप ही है तो लेख की आवश्यकता तो अभी नहीं भासती। और समाज में मेरी ऐसी कोई भूमिका नही है की अन्य विद्वान मुझे सुनने को समय निकाले। हाँ यदि, आप में से कोई २०-२५-३० जिज्ञासु-विद्वान-अभ्यासी को एकत्रित कर पाए तो ५- दिवसीय सम्मेलन की व्यवस्था में मदद कर सकती हूँ।

आचार्यदेव द्वारा रचित समयसार के सम्यक् अर्थ द्वारा सत्यता से सम्यक्त्व तक सभी जीव पहोचें ऐसी भावना के साथ विराम लेती हूँ। आभार।

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