आरती करने में जीव हिंसा होती है तो पाप किसे लगता है?

पाप किसे लगेगा, जलाने वाले को या फिर जो करेंगे उन सबको?

कृत, कारीत, अनुमोदना - तीनों क्रियाओं में फल लगता है।

जो कर रहा है - कृत
जलाने वाला - कारीत
तथा खड़े खड़े अनुमोदना करने वाले।

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Or jarurat se jyada bijli jalane par.

Aarti krne se to pratyaksh hme 4 indriya tk k jeevo ki hinsa dikhai dete h. Kintu bijli k nirman m sangyi panchendriya tk k bde bde jeevo ki hinsa hoti h to jinalaya m jrur se jyada light pankhe jhalar aadi ka upyog yadi hota h to use kya kahenge

Aarti m bhi apne gurudev k anuyayi kuch log bijli vala deepak rakhkr aarti krte h

Mandiro m a.c. or bht tarah ki nyi tachlonology jinki avayashakta nh h vo layi ja rh h. Ye sb adhikadhik hinsa k sadhan h. Jitni hinsa inse hogi utna dharmik karya k inse fayda nh hoga

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और जब रात्रि में घंटा बजाने का निषेध है, तो फिर रात्रि में Loudspeaker से भक्ति करने पर भी हिंसा का प्रसंग बना, मंदिर में AC, RO सब हिंसा के ही साधन ठहरे | चंचल मन वालो को दीप जलाकर कुछ स्थिरता होती है, 8 द्रव्य भी स्थिरता के ही साधन है, लेकिन दीप का निषेध तो होता है पर AC का नहीं, कि AC हमे गर्मी कि आकुलता से बचाएगा तो परिणामो में स्थिरता होगी, सो ऐसे ही दीप भी स्थिरता के लिए ही है फिर उसका इतना निषेध क्यों ? और जो विवेक से निषेध करना ही है तो सर्व ही हिंसा के साधनो का करो … just thoughts

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Isme sb jagah Apne Apne parinam-bhav kaise bnte hai vo b count krne chahiye.
Light vagere aisi hi jle phir vo ghar me ho ya mndir me ya koi jahar sarkari sansthao me pap lagta hi hai. Mndir me ap swadhyay k hetu jala the ho to pap ka bndh punya me count hoga or ap decoration k hetu krte ho to anantguna pap lagega.
Jain Dharm yani Apne Dharm me bhavo ka fal bataya gya hai
Jo b kre uska fl soche fir vo mandirji ho ya apna ghar.

Sirf aartika nishedh krna kafi nahi hai.
Aartika nishedh kisko hai, kb hai vo bhi Janna jaruri hai. Apn ghr me uhi bijli jalaye khana pakaye usme b pap lagata hai.
Aarti ka nishedh unko hai jo Dharm k Marg me already age hai fir b vo Agni ko jiv nhi smj pa the Apne jaise sravak ko vo Dharm Marg me lagane k nimit b bn skti hai. Isliye Apne ko kaise nishedh krna vo b sochna chahiye.
Tote ki tarah kbhi bhi kisiki bato ka uhi arth na nikle vo b Dhyan me rakhna.
Apna dhrm anekantmay hai isliye ek hi sentence k bahot arth ho skte hai, bahot apexa-nay se b bat khi ja skti hai.
Soche vichar kre…

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दीपक जलाना उचित या अनुचित?

दीपक से भक्ति आदि की विधि देवों द्वारा की जाती है, उनके दीपक रत्न के होते हैं, अतः उससे आरती करने में दोष नहीं है।
पहले भी जब तक रत्न के दीपक थे तब तक उनसे ही आरती की जाती थी, इसका उदाहरण आपको दक्षिण में कई मंदिरों में उनसे संबंधित इतिहास में मिल सकता है।

वर्तमान परिपेक्ष्य में दीपक का प्रयोग इस लिए गलत है, क्योंकि उनमें स्पष्ट रूप से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है

प्रश्न- हिंसा तो और भी कार्यों में होती है, जैसे मंदिर बनवाते समय जमीन खोदने में, पानी का प्रयोग करने में, जिनवाणी छपवाते समय कागज बनाने में, इत्यादि। जबकि दीपक तो भक्ति की प्रबलता दर्शाता है, फिर इसका निषेध क्यों?
उत्तर- प्रभावना के लिए कतिपय आरम्भ के कार्य करने ही पढ़ते हैं, किन्तु उनमे भी जिनमे हिंसा कम हो ऐसे उपाय से कार्य करना चाहिए। किन्तु बुद्धिपूर्वक हिंसा के प्रसाधनों का प्रयोग भक्ति की बहुलता के नाम पर करना हिंसा को ही उपादेय मानना है।

प्रश्न- मंदिरों में अधिक light, A. C. आदि का प्रयोग उचित या अनुचित?
उत्तर- मंदिर साधना का केंद्र है सुविधा का नहीं। किन्तु आधुनिकता की दौड़ में साधना भी बिना सुविधा के लोगों को असम्भव ही लगती है, और मंदिरों में व्यर्थ light और A.C. आदि का प्रयोग उपयोग चंचल न होने पाए के नाम पर किया जाता है।

वास्तविक रूप से किस तरह प्रभावना, मंदिर आदि का निर्माण, उसकी रूप रेखा होनी चाहिए, इस सब का जीता जागता उदाहरण अमायन का मंदिर है, बड़े पंडित जी साहब के निर्देशन में कम से कम हिंसा किये हुए मुख्यतया अहिंसक विधि को वहाँ अपनाया जाता है।
मंदिर की इमारत आदि खड़ी करने में छने पानी का प्रयोग करना, ऐसे सेठ से पैसे न लेना जिसका धन अन्याय के व्यापार से कमाया गया हो, आवश्यक आवश्यकता से अधिक किसी भी प्रकार के संसाधनों का प्रयोग नहीं करना, जैसे यदि सिर्फ एक ही light में पढ़ने योग्य प्रकाश आ रहा है तो व्यर्थ में ही दिखावे के लिए अधिक lights का प्रयोग न करना आदि।

सार- तर्क वितर्क के स्थान पर यदि समाधान बन कर समाज के कार्यों को अहिंसक रीति से किया जाये तो जैन धर्म के अहिंसा का सिद्धांत कथन के साथ साथ प्रयोग में भी जीवित रह सकेगा।

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:pray::pray:

पूरे प्रकरण का इस बात से ही काफ़ी समाधान हो जाता है। समस्त चरणानुयोग का आधार ही अहिंसा है, और प्रयोजन जीव के परिणामों में विवेक पूर्वक विशुद्धता की वृद्धि करना।

:ok_hand:t3::ok_hand:t3:

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Mujhe aapki saari baat acchi lagi aur svikaar bhi hai par mere 2 prashn hai -

  1. Dharmadhyaan aur bhakti ke kaafi karyo mai 1 indriya jeevo ki hinsa toh hoti hii hai phir chahe woh ahaar daan ho ya fir koi aur karya toh phir deepak jala kar aarti karna hii galat kyo hai?

  2. Maine shayad kahi par suna tha ki dipak jalane ke antarmuhurt baad hii jeev utpatti prarambh hoti hai. Kya aisa theek hai?

Baat apki theek hai ki bhakti ke naam par tark vitark karna theek nahi par mere mann mai yeh prashn utha isliye pooch raha hun kyunki pooja aadi mai bhi hum padhte hai deepak ka argh.

Finally yadi hum shudh ghee ka upyog karke jaldi se jaldi aarti karle toh kya aisa karna theek hoga.

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इसका उत्तर ऊपर दिया जा चूका है।

हठाग्रह और परम्पराओं को छोड़ सिद्धांतों के आधार से विचार करें। समाधान स्वयमेव ही होगा।

दीपक जलाना अपने आप में ही जब हिंसक कार्य है तो अन्तर्मुहूर्त तक का इंतजाऱ करना तो planning से जीवों को मारने जैसा हो जायेगा। अखण्ड दीपक इसका प्रतीक है।

शुद्ध घी से भी जलेगा तो दीपक ही। और दीपक से भक्ति में विशेषता आती है ये समझ नहीं आता।

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दीपक जलाना अपने आप में ही जब हिंसक कार्य है तो अन्तर्मुहूर्त तक का इंतजाऱ करना तो planning से जीवों को मारने जैसा हो जायेगा। अखण्ड दीपक इसका प्रतीक है।

Mai yeh baat nahi samajh paa raha. Agni toh 1 indriya hai theek usi prakaar jis prakaar jal bhi 1 indriya hai. Toh phir jal ka upyog theek kyu aur agni ka kyu nahi?

Haan par yeh baat zarur hai ki agni jalane se tras jeevo ka ghaat hone ki sambhavna zyaada hai.

  1. जल का प्रयोग आवश्यकता में अंतर्गत है, जबकि अग्नि का प्रयोग किसी भी प्रकार की आवश्यकता में नहीं हैं।
  2. जिस तरह से जल को प्रासुक किया जा सकता है वैसे अग्नि को नहीं।
  3. त्रस जीवों का घात अग्नि में अधिक है और जल में कम।
  4. जल से भक्ति का संबंध नहीं है अपितु सुरक्षा का संबंध है, किन्तु अग्नि का कोई उद्देश्य विशेष देखने में नहीं आता।
  5. यदि सभी एक इंद्रिय का उपयोग ठीक मान लिया जाये तो वनस्पति के उपयोग में भी दोष नहीं लगेगा, फिर चाहे वे सप्रतिष्ठित हों या अप्रतिष्ठित, सचित्त हों या अचित्त।
  6. जल का प्रयोग किसी प्रयोजन विशेष से किया जा रहा है, किन्तु अग्नि का सिर्फ परंपरा के कारण।
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Dhanyavaad. Jai Jinendra :pray:

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कृत = खुद ने किया
कारित = किसीसे करवाया
अनुमोदन = कोई कर रहा हो उस कार्य मे अपना अभिप्राय जोड़े/ प्रोत्साहित करें.

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स्वाभाविक-सी बात है। प्रथम तो आरती करने वाले को ही पाप लगेगा। फिर कृत, कारित, अनुमोदना का पाप सबके हिस्से में बराबर-बराबर जाऐगा।

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जब तेज आंधी में बड़े-बड़े हाथी उड़ जाते हैं तो छोटे-छोटे मच्छरों की तो बात ही क्या है, उसी तरह भगवान की पूजा से भवों - भवों के पाप नष्ट हो जाते हैं तो दीपक जलाकर पूजा करने से छोटा सा पाप हो जाता है उसका क्या महत्व ?

रही बात हिंसा की तो हां दीपक जलाकर जीवों की हिंसा तो होती ही है, लेकिन अगर हम अपने पूरे दिन में देखे, तो कितनी हिंसा कर देते हैं और मंदिर आकर अहिंसा महाव्रती बन जाते हैं। पानी छानकर, प्रासुक करके आज तक नहीं नहाये या कपड़े धोए।‌ इसमें हमसे जीवों के घात होने की चर्चा भी हम नहीं करते। लेकिन पूजा, मंदिर में दीपक की हिंसा दिखती है।
रही बात हिंसा की तो हमारे अनेक पूर्व आचार्य को हम हिंसक तो नहीं कह सकते क्योंकि अष्ट द्रव्य में दीपक और धूप को उन्होंने एक द्रव्य माना है। इससे हमारे नि: शंकित - सम्यक दर्शन के अंग की अवहेलना होती है ।

रही बात अष्ट द्रव्यों की तो सारे अष्ट द्रव्य बिना हिंसा के बन ही नहीं सकते, चावल बनाने में कितनी हिंसा होती है, एक बार खेत जा कर तो देखिए। लड्डू चढ़ाते हैं हम मोक्ष कल्याणक पर, उसको भी बंद कर देना चाहिए सबसे अच्छा तो महाव्रत ही धारण कर लेना चाहिए या भाव पूजा ही करना चाहिए।

गृहस्थ का मन , चित्त्त भटकता है, इसलिए अष्ट द्रव्य के माध्यम से वह अपना मन स्थिर रखता है। दीपक का अपना महत्व है, दीपक से ध्यान एकाग्र होता है पूजा करते करते जब घर की याद आती है तो दीपक देखकर वापस मंदिर में मन आ जाता है ।

संसार में कई तरह के लोग होते हैं, सभी लोग पंडित विद्वान नहीं होते। कई लोगों को पूजा करते - करते नींद आने लगती है।

इसलिए इन बातों पर बहस करना ठीक नहीं, यह पर्सनल मैटर है कि जिसको जैसा ठीक लगे, वैसा करें लेकिन दूसरों को हिंसक की दृष्टि से ना देखें । हो सकता है वह हमसे पहले ही मोक्ष चला जाए, और हम भटकते रह जाएं।

आज जैनियों में बड़े-बड़े व्यापारी, ठेकेदार, इंडस्ट्रियलिस्ट आदि तमाम जैनी वायु प्रदूषण करके धुएं से जीवो को मारते हैं‌ । अगर हम उनसे कहें कि दीपक जलाने से हिंसा होती है, इसको न जलाएं। हां, जो धीरे धीरे त्याग करना शुरू कर दिए हैं प्राइवेट कार की जगह मोटरसाइकिल या पब्लिक वाहन का प्रयोग करते हैं, प्रासुक जल से नहाते हैं, उनके लिए तो अच्छा है की दीपक धूप आदि का प्रयोग ना करें और धीरे धीरे महाव्रत की ओर अग्रसर हों।

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जैन धर्म हिंसा के लिए प्रेरणा नहीं देता। आप तो हिंसा को उपादेय सिद्ध करना चाहते हैं।
भगवान की पूजा से भवों भवों के पाप नष्ट होते हैं यह सही है, किन्तु छोटा पाप करने योग्य है ये कहाँ से सिद्ध करना चाहते हैं?
यदि पाप छोटा सही है तो भाव पाप, भाव व्यसन सभी को सही सिद्ध करना पड़ेगा। कारण कि क्रियात्मक तो वे हैं नहीं अब भावात्मक ही हैं सो करने में भी क्या दोष?

अतः आपका यह तर्क गलत सिद्ध हुआ।

मंदिर आकर के पाप न छोड़े तो मंदिर आने का क्या लाभ? रही बात पानी छानने की तो आप छानिये कौन मना करता है? आप स्वतंत्र हैं अहिंसात्मक क्रिया हेतु। किन्तु दैनिक क्रियाओं में होने वाली हिंसा को मुख्य करते हुए धर्म के कार्यों में भी हिंसा को उचित सिद्ध करना व्यर्थ का हठ है। सो आपका उक्त तर्क भी खंडित हुआ।

दीपक और धूप में आग का दीपक और अग्नि में झोंकी गयी धूप कहाँ से सही है। अष्ट द्रव्य में पीली चिटक को दीप और लवंग आदि को धूप के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया है।
अब यदि हिंसा की क्रिया को आप उचित सिद्ध करेंगे तो न मात्र सम्यक दर्शन की अपितु सम्पूर्ण जैन शासन की अवहेलना का दोष आवेगा।
इसप्रकार आपका तर्क स्ववचन बाधित हुआ।

चावल चूंकि एक खेती है, आरम्भ के पाप कर तो हम जिम्मेदार बन नहीं रहे, उपचार रूप आगम में जिन अचित्त द्रव्यों से पूजन की विधि बताई है सो उससे करते हैं जो निर्दोष है।
लड्डू चढ़ाना गलत ही है, इसलिए न ही चढ़ाये तो बेहतर होगा। महाव्रत धारण कर सकें तो बहुत बहुत अनुमोदना। भाव पूजा द्रव्य पूजा से श्रेष्ठ है। सो उसका उपाय बने तो वह ही करें।
आपके उक्त तर्क भी न्याय रहित होने से स्वतः खंडित हुए।

चित्त भटकता है सो स्थिर करने का उद्यम करें। इसके सम्बध में चर्चा पूर्व में हो चुकी अतः मौन। क्या दीपक जिन प्रतिमा से अधिक आकर्षक है जो प्रतिमा के रहते उपयोग हेतु दीपक की आवश्यकता आन पड़ी।
सो इस तर्क पर तो आप स्वयं विचार करें।

ये बात आपकी सही है। सहमति।

सो आपने पुनः यह चर्चा विवादित तर्कों से उठायी ही क्यों? अतः नियम का प्रयोग पहले स्वयं करें।

हमारा प्रयास तो जैन क्रियाओं से हिंसा को दूर करने का है, अन्य को विपरीत भासे सो हमारा क्या दोष।

आप दीपक की हिंसा के पक्षधर हैं या विरोधी इसका निर्णय स्वयं करें, पश्चात ही खण्डन करें।

विशेष- व्यक्तिगत आधार से जिनागम नहीं चला करता, आगम, तर्क और युक्ति ही प्रमाणिकता प्रदान करती है।

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हिंसा तो तब भी होती है जब मंदिर दूर हो और हम वाहन का प्रयोग करके मंदिर जाएं। फिर तो हमको घर बैठे ही भगवान का स्मरण कर लेना चाहिए ।

इस स्थापना का वर्णन किस प्राचीन आचार्य के ग्रंथ में लिखा है ?

आदि पुराण के चैप्टर ६ में भी धूप के धुएं का वर्णन आया है -

और अगर दीपक के प्रतीक रूप पीली चिटक को लिया गया है तो क्या यह सही है ? यशोधर राजा ने आटे का मुर्गा बली में चढ़ाया तो इससे उसे वही पाप का बंद हुआ जो जीवित मुर्गे को चढाने में लगता है। इसी तरह अन्य द्रव्यों के प्रतीक रूप लेकर , उसे पूजा करने में लगभग वही हिंसा का दोष लगता है।

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निश्चिततः आपने कहीं न कहीं यह कहानी सुनी होगी या स्वयं पढ़ी होगी कहाँ पढ़ी है ग्रन्थ का उद्धरण भी दें। प्रसंग क्या था यह आपको ख्याल में होना चाहिए .

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धर्म के कारणों को संसार के प्रपंचों से जोड़कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं आप?

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