स्वरूप संबोधन स्तोत्र हिन्दी पद्यानुवाद | Swaroop Sambodhan Stotra Hindi Padyanuwad

स्वरूप संबोधन स्तोत्र : आचार्य अकलंकदेव विरचित

( हिंदी पद्यानुवाद)

मुक्त अमुक्त स्वरूप जो सकलकर्ममल शून्य।
ज्ञानमूर्ति अक्षय अहो नमन करूँ परमात्म ॥१॥

आतम कारणरूप है ज्ञान-दर्शमय कार्य।
ग्राह्य अग्राह्य स्वरूप है व्ययोत्पाद अरु ध्रौव्य ॥२॥

दर्शन-ज्ञान स्वरूप से कहते चेतनरूप।
धर्म प्रमेयत्वादि से कहें अचेतनरूप ।।३।।

है अभिन्न यह ज्ञान से और कथंचित् भिन्न।
पूर्वापर सब ज्ञानमय ही कहते हैं आत्म ॥४॥

ज्ञानमात्र अरु देहमय है अरु नहिं यह आत्म।
कहें सर्वगत भी अहो सर्वथा न जग व्यापि ॥५॥

नाना ज्ञानस्वभाव से है अनेक नहिं एक ।
चेतन एक स्वभाव से जानो एक-अनेक ।।६।।

कथन योग्य निजरूप से अवक्तव्य पररूप।
अतः अवाच्य न सर्वथा नहिं वक्तव्य स्वरूप ॥७॥

स्व-पर धर्म से है अहो विधि-निषेध स्वरूप ।
ज्ञानमूर्ति यह आत्मा नहिं मूर्तिक जड़ रूप ॥८॥

इत्यादिक बहु धर्म है बन्ध मोक्ष फलदाय ।
उन-उन कारण से स्वयं जीव करे स्वीकार ॥९॥

जो कर्त्ता है कर्म का वह भोगे फल-कर्म ।
अन्तर बाह्य उपाय से वही मुक्त निष्कर्म ॥१०॥

दर्श-ज्ञान-चारित्र ही आत्म प्राप्ति का मार्ग।
तत्त्व प्रतीति यथार्थ को कहते सम्यग्दर्श ॥११॥

वस्तु स्वरूप यथार्थ का निर्णय सम्यग्ज्ञान।
स्व-पर प्रकाशक कथंचित् भिन्न प्रमिति से ज्ञान ॥१२॥

दर्शन-ज्ञान स्वभाव में लीन रहे परिणाम ।
सुख-दुःख में समभावमय सम्यक्चारित्र नाम ॥१३॥

अथवा यह दृढ़ भावना है चारित्र विशेष।
ज्ञाता-दृष्टा एक मैं सुख-दुःख भोगूँ एक ॥१४॥

दर्श-ज्ञान-चारित्र हैं मोक्ष प्राप्ति के हेतु ।
बाह्य क्षेत्र अरु काल तप हैं सहकारी हेतु ॥१५॥

यथा शक्ति सुख-दुःख में वर्ते तत्त्व विचार।
भाऊँ निज शुद्धात्मा नहिं रागादि विकार ॥१६॥

जैसे नीले वस्त्र में चढ़े न केशर रंग।
नहीं तत्त्व का ग्रहण हो यदि कषाय मन रंग ॥१७॥

अतः दोष से मुक्ति के लिए विनाशो मोह।
उदासीन हो जगत से तत्त्व विचार करो ॥१८॥

हेय ग्राहा को जानकर करो हेय का त्याग।
निरालम्ब होकर लहो ग्राह्य तत्त्व आधार ॥१९॥

निज्ञ-पर वस्तुस्वरूप का चिन्तन करो यथार्थ।
उदासीनता वृद्धि से करो मोक्ष पद प्राप्त ॥२०॥

जिसे न इच्छा मोक्ष की भी वह शिवपुर जाय।
अतः हितैषी भव्यजन करें न कुछ भी चाह॥२१॥

यदि सोचो ! इच्छा सुलभ क्योंकि आत्माधीन ।
क्यों न करो पुरुषार्थ फिर सुख भी आत्माधीन ॥२२॥

अतः स्व-पर को जानकर तजो जगत् का मोह।
स्व-संवेद्य निराकुल निज में ही थिर हो॥२३॥

स्वयं स्वयं से स्वयं के लिए स्वयं आधार।
निज को ध्याकर पीजिए परमानन्द रस धार ॥२४॥

निज स्वरूप सम्बोधते हैं ये पच्चीस छन्द ।
पढ़े सुने अरु आदरे भोगे परमानन्द ॥२५॥

हिंदी पद्यानुवाद: पं. अभय कुमार जैन

1 Like