सुरपति ले अपने शीश | Surpati le apne seesh

सुरपति ले अपने शीश, जगत के ईश गये गिरिराजा;
जा पांडुक शिला विराजा॥ टेक॥

शिल्पी कुबेर वहाँ आकर के, क्षीरोदधि का जल लाकर के;
रचि पैडि ले आये, सागर का जल ताजा, फिर न्हवन कियो जिनराजा ॥१॥

नीलम पन्ना वैडूर्यमणी, कलशा लेकर के देवगणी;
इक सहस आठ कलशा लेकर नभ राजा, फिर न्हवन कियो जिनराजा ॥२॥

वसु योजन गहराई वाले, चहुँ योजन चौड़ाई वाले;
इक योजन मुख के कलश ढुरे जिनमाथा, नहीं जरा डिगे शिशुनाथा ॥३॥

सौधर्म इन्द्र अरु ईशाना, प्रभु कलश करें धर युग पाना;
अरु सनत्कुमार महेन्द्र, दोय सुरराजा, शिर चमर दुरावे साजा ॥४॥

फिर शेष दिविज जयकार किया, इन्द्राणी प्रभु तन पोंछ लिया;
शुभ तिलक दृगांजन शची कियो शिशुराजा, नाना भूषण से साजा ॥५॥

ऐरावत पुनि प्रभु लाकर के माता की गोद बिठा करके;
अति अचरज ताण्डव नृत्य कियो दिविराजा, स्तुति करके जिनराजा ॥६॥

चाहत मन मुन्नालाल शरण वसु कर्म जाल दुठ दूर करन;
शुभ आशीषमय वरदान देहु जिनराजा, मम न्हवन होय गिरिराजा ॥७॥

लेखक - मुन्नालाल जी, सिवनी

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लेखक - मुन्नालाल जी, सिवनी

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