सोलह अंगों के सोलह अर्घ
सवैया तेईसा
1. दर्शन विशुद्धि भावना
दर्शन शुद्ध न होवत जों लग, तों लग जीव मिथ्याती कहावे ।
काल अनंत फिरे भवमें, महा दुखन को कहुं पार न पावे ।।
दोष पचीस रहित, गुण-अम्बुधि, सभ्य कदरशन शुद्ध ठरावै।
‘ज्ञान’ कहे नर सोहि बड़ो, मिथ्यात्व तजे जिन-मारग ध्यावै ।।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः अर्घं ।। 1 ।।
2. विनय सम्पन्नता भावना
देव तथा गुरु राय तथा, तप संयम शील व्रतादिक-धारी ।
पाप के हारक काम के छारक, शल्य-निवारक कर्म-निवारी ।।
धर्म के धीर कषाय के भेदक, पंच प्रकार संसार के तारी।
‘ज्ञान’ कहे विनयो सुख कारक, भाव धरो मन राखो विचारी ।।
ॐ ह्रीं विनय सम्पन्नता भावनायै नमः अर्घं ।। 2 ।।
3. निरतिचार शीलव्रत भावना
शील सदा सुख कारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे ।
दानव देव करे तसु सेव, विषानल भूत पिशाच पतीजे ।।
शील बड़ो जग में हथियार, जुशील को उपमा काहे की दीजे ।
‘ज्ञान’ कहे नही शील बराबर, ताते सदा दृढ़ शील धरीजे ।।
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः अर्घं ।। 3 ।।
4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना
ज्ञान सदा जिनराज को भाषित, आलस छोड़ पढ़े जो पढ़ावे ।
द्वादस दोउ अनेक हुं भेद, सुनाम मती श्रुति पंचम पावे।।
चार हुं भेद निरन्तर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे ।
‘ज्ञान’ कहे श्रुत भेद अनेक जु लोकालोकहि प्रगट दिखावे।।
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावनायै नमः अर्घं ।। 4 ।।
5. संवेग भावना
भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संयम सज्जन ए सब खोटो |
मन्दिर सुन्दर काय सखा सबको इसको हम अंतर मोटो ।।
भाउके भाव धरो मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो |
‘ज्ञान’ कहे शिव साधन को जैसो, साह को काम करे जु बणोटो ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः अर्घं ॥ 5 ॥
6. शक्तितस्त्याग भावना
पात्र चतुर्विध देख अनूपम, दान चतुर्विध भावसु दीजे ।
शक्ति-समान अभ्यागत को, अति आदर से प्रणिपत्य करीजे ||
देवत जे नर दान सुपात्रहि, तास अनेकहिं कारण सीजे ।
बोलत ‘ज्ञान’ देहि शुभ दान जु, भोग सु भूमि महासुख लीजे ।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनायै नमः अर्घं ॥6॥
7. शक्तितस्तपो भावना
कर्म कठोर गिरावन को निज, शक्ति समान उपोषण कीजे ।
बारह भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे ।
भाव धरी तप घोर करो नर, जन्म सदा फल काहे न लीजे।
‘ज्ञान’ कहे तप जे नर भावत ताके अनेकहिं पातक छीजे ।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपो भावनायै नमः अर्घं । ॥ 7 ॥
8. साधु समाधि भावना
साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अध छीजे ।
साधु की संगति धर्म को कारण, भक्ति करे परमारथ सीजे ।।
साधु समाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे ।
‘ज्ञान’ कहे यह साधु बड़ो, गिरिश्रृंग गुफा बिच जाय बिराजे ।।
ॐ ह्रीं साधु समाधि भावनायै नमः अर्घं ॥ 8 ॥
9. वैयावृत्यकरण भावना
कर्म के योग व्यथा उदई मुनि, पुंगव कुन्तसभेषज कीजे ।
पीत कफान लसास भगन्दर, ताप को सूल महागद छीजे ।।
भोजन साथ बनायके औषध, पथ्य कुपथ्य विचार के दीजे ।
‘ज्ञान’ कहे नित ऐसी वैयावृत्य करे तस देव पतीजे ।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः अर्घं ॥9॥
10. अर्हद्भक्ति भावना
देव सदा अरिहन्त भजो जेई, दोष अठारा किये अति दूरा।
पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किए चक चूरा ।।
दिव्य-अनन्त-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा ।
‘ज्ञान’ कहे जिनराज अराधो, निरंतर जे गुण मंदिर पूरा ||
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्ति भावनायै नमः अर्घं ।। 10।।
11. आचार्य भक्ति भावना
देवत ही उपदेश अनेक सु-आप सदा परमारथ-धारी ।
देश-विदेश विहार करें, दश धर्म धरे भव पार उतारी ।।
ऐसे अचारज भाव धरी भज, सो शिव चाहत कर्म निवारी ।
‘ज्ञान’ कहे गुरु भक्ति करो नर, देखत ही मन माहि विचारी ।।
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः अर्घं ।। 11 ॥
12. बहुश्रुत भक्ति भावना
आगम छन्द पुराण पढ़ावत, सहित तर्क वितर्क बखाने ।
काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने ।।
ऐसे बहु श्रुत साध मुनीश्वर, जो मनमे दोउ भाव न आने ।
बोलत ‘ज्ञान’ धरी मनसान जु, भाग्य विशेषते जानहिं जाने।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुत भक्ति भावनाये नमः अर्घं ।। 12 ।।
13. प्रवचन भक्ति भावना
द्वादस अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे ।
वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मन मांहि ठरावै।।
पढ़ बहु भाव लिखो निज अक्षर, भक्ति करी बड़ी पूज रचावे ।
‘ज्ञान’ कहे जिन आगम-भक्ति, करो सद्बुद्धि बहु श्रुत पावे।।
ॐ ह्रीं प्रवचन भक्ति भावनायै नमः अर्घं ।। 13 ॥
14. आवश्यकापरिहाणि भावना
भाव धरे समता सब जीवसु स्तोत्र पढ़े मुख से मनिहारी ।
कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसुं, वंदन देव-तणों भव तारी ।।
ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ बेर करे पड़कम्मन भारी ।
‘ज्ञान’ कहे मुनि सो धनवन्त जु, दर्शन ज्ञान चरित्र उधारी ।।
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः अर्घं ।। 14 ॥
15. मार्ग प्रभावना भावना
जिन-पूजा रचो परमारथसूं, जिन आगे नृत्य महोत्सव ठाणों ।
गावत गीत बजावत ढोल, मृदंगके नाद सुधांग वखाणो ।।
संग प्रतिष्ठा रचौ जल-जातरा, सद् गुरु को साहमो कर आणो ।।
‘ज्ञान’ कहे जिन मार्ग प्रभावन, भाग्य- -विशेषसुं जानहिं जाणो ।
ॐ ह्रीं मार्ग प्रभावना भावनायै नमः अर्घं ।। 15।।
16. वात्सल्य भावना
गौरव भाव धरो मन से मुनि-पुगङवको नित वत्सल कीजे ।
शील के धारक भव्य के तारक, तासु निरंतर स्नेह धरी जे ।।
धेनु यथा निज बालक के, अपने जिय छोडि न और पती जे ।
‘ज्ञान’ कहे भवि लोक सुनो, जिन वत्सल भाव धरे अघ छीजे ।।
ॐ ह्रीं वात्सल्य भावनायै नमः अर्घं ।।16।।