सम्मेद अचल-³
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
कण-कण तेरा कितना पावन-²
कितना निर्मलतम !
सम्मेद अचल-³
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
ज्यों-ज्यों पथिक ऊर्ध्व गति करता गलता मान तरल हो
जाती चिर मूर्छा अनादि की चाहे चढ़ा गरल हो
अरे ओ! मानस्तंभ अटल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
निज स्वभावरत पावन पुरुषों के भावों की गंगा
अरे! वायुमंडल में अब भी वही तरंगित अमला
अरे! धो देती मानस मल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
झरते यहां अरे पद-पद पर अमृत के झरने
दृष्टि मात्र में ही पी लेते अन्तर्दृष्टि जिन्हें
हो न फिर क्यों अन्तर उज्ज्वल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
रे! अतीत वैभव का देता तू उज्ज्वल आभास
तू है शाश्वत पावनता का गौरव मय इतिहास
अरे ओ! भू सौन्दर्य अटल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
उन विभूतियों की स्मृति देती निज-वैभव-दर्शन
नहीं राग जिसका कर पाता एक पलक स्पर्शन
अरे! वह निज निगूढ़ तम घन
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
बरबस झुक जाता है मस्तक उस वैभव के आगे
जिसको पाकर चिर-दरिद्र के भाग्य अचानक जागे
अरे ओ! महामहिम भूतल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
मिट जाते तेरी गोदी में अरे! सात ही भय
ज्ञान और श्रद्धा का होता अद्भुत यहां समन्वय
यही है तेरा वंदन-फल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
एक-एक अणु भी ऐ गिरिवर! है तेरा अनमोल
निखिल-विश्व-वैभव भी उसको नहीं सकेंगे तोल
नमन शत शाश्वत सिद्धि-स्थल
अरे ओ! शिखर सम्मेद अचल !
रचयिता: श्री बाबू जुगलकिशोर जी 'युगल ’
Source: चैतन्य वाटिका